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स्वयं सेवा को ही जन सेवा समझे "श्रीमंत"?

“जैसे उनके दिन फिरे”-प्रख्यात व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई जी की एक व्यंग्य कथा का शीर्षक है. और यहाँ तो दिन ही नहीं,पार्टी,डंडा-झंडा,तमगा सब फिर रहा है. इत्तेफाक से परसाई जी भी उसी मध्य प्रदेश के वाशिंदे थे,जहां यह फेरा-फेरी का खेल हाल-फिलहाल चल रहा है. 
भारतीय लोकतन्त्र में तरक्की के जो नए प्रतिमान गढ़े जा रहे हैं,उसमें उत्थान और पतन का भेद लगभग गड्डमड्ड हो चुका है. यूं भी कह सकते हैं कि उत्थान के लिए पतन होना,एक अनिवार्य शर्त सी बनती जा रही है.  जिनको लोग भेजते हैं चुन के,फेरी लगती है,बोली लगती है तभी दिन फिरते हैं “उनके”. हर बाजार के अपने नियम कायदे हैं. सांसद-विधायकों की मंडी के भी हैं.यहाँ ऊंची बोली लगने का गणित यह है कि बंदा सांसद-विधायक तो चुना जाना चाहिए,पर पार्टी की राजनीतिक ताकत कम होनी चाहिए या परभाव की ओर होनी चाहिए. पार्टी की राजनीतिक/वैचारिक  ताकत जितनी कमजोर,उसके सांसद-विधायकों की बोली लगने की गुंजाइश उतनी ज्यादा. 

एक पार्टी है जो फेरी वालों की तरह घूम-घूम कर बोली लगा रही है और दूसरी तरफ बोली लगने से हर्षोल्लास वाली मुद्रा में “माननीयों” की टोली है ! जिनकी बोली नहीं लगी,वे भी आस में हैं कि “जैसे उनके दिन फिरे”,वैसे हमारे भी फिरें तो हम सत्ता की झोली में ‘गिरें’ !

मध्य प्रदेश में इस फेरा-फेरी में अपनी पुरानी पार्टी से ‘फिर’ कर नई पार्टी में पहुंचे ज्योतिरादित्य सिंधिया. उनकी तारीफ और कद थोड़ा बड़ा दिखाने के लिए बताने वाले ये ज़ोर दे कर बताते हैं कि वे ग्वालियर राजघराने के वर्तमान मुखिया हैं. हमारे देश में राजघराने भी जातीय भेदभाव और छूआछूत की तरह है. संविधान ने इन्हें खत्म कर दिया है पर ये संविधान को मुंह चिढ़ाते हुए, पूरी ठसक के साथ समाज में मौजूद हैं और महिमामंडित भी होते रहते हैं !

“श्रीमंत” सिंधिया साहेब जहां से आए हैं,उस पार्टी में वह जगह उनके पिता,विरासत में छोड़ कर गए थे. वे जिस जगह पहुंचे हैं वहाँ उनकी दादी रही हैं,बुआएँ अभी हैं,फुफेरा भाई भी है. बड़े लोगों की बड़ी बात ! उनके लिए सब पार्टियां घर जैसी हैं,हर पार्टी में उनकी रिश्तेदारी है.भ्रष्टाचारी उसूल से उनका नाता रहा है और दंगाई उसूल भी उनका सगा है ! पिता के घर से बच्चा रूठ के निकला तो बुआ के घर चला गया ! बुआ के घर से मन भर जाएगा तो पिता के घर आ जाएगा !


इस्तीफा देते हुए श्रीमंत सिंधिया साहेब ने कहा कि वे अब इस पार्टी में जनता की सेवा नहीं कर पा रहे हैं,इस लिए नए ठौर को निकल रहे हैं. बलिहारी है,इस मासूमियत की. राजघराने का चश्म-ए-चिराग,चांदी का चम्मच मुंह में लेकर पैदा हुआ राजदुलारा,सेवा नहीं कर पाने से इस कदर द्रवित है कि दलबदलू हो जा रहा है,अपने मुंह पर विभीषण का तमगा पा रहा है  !

वे फरमाते हैं कि ग्वालियर राजघराने का उद्देश्य ही सेवा रहा है. राजे-रजवाड़े और सेवा,क्या कहने !

अकबर इलाहाबादी लिखते हैं :
“कौम के गम में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ 
रंज बहुत है लीडर को मगर आराम के साथ ”

लैरी कॉलिन्स और  डॉमिनिक लैपियर ने भारत के स्वतन्त्रता आंदोलन पर एक किताब लिखी-फ्रीडम एट मिडनाइट. इस किताब में एक पूरा अध्याय राजे-रजवाड़ों के कारनामों पर है. लैरी कॉलिन्स और  डॉमिनिक लैपियर इन लगभग 565  राजे-महाराजों को ‘विचित्र’ ठहराते हैं और लिखते हैं कि “यदि औसत निकालें तो इनमें से प्रत्येक के पास 11 पदवियाँ,5.8 पत्नियाँ, 12.6 बच्चे, 9.2 हाथी, 2.8 निजी रेल डिब्बे, 3.4 रौल्स रौइस कारें थी और प्रत्येक ने 22.9 शेरों का शिकार किया था.”  सिंधिया बाबू की परिभाषा के हिसाब से देखें तो यह सब सेवभाव के आवश्यक जतन माने जाएँगे . अनावश्यक विस्तार में जाने से बचते हुए,इस पुस्तक के दो किस्से पढ़ लिए जाएँ,जो उस ग्वालियर राजघराने के बारे में हैं ,जिसके चश्म-ए-चिराग सिंधिया साहब हैं. लैरी कॉलिन्स और  डॉमिनिक लैपियर लिखते हैं, “बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ से पहले ग्वालियर के एक महाराजा को सूझा कि बकिंघम पैलेस, इंग्लैंड में जो सबसे बड़ा झाड़फानूस है, उससे भी बड़ा झाड़फानूस मेरे महल में होना चाहिए. ऐसा झाड़फानूस वेनिस में तैयार हो भी गया. मगर किसी ने महाराजा से कहा कि क्या आपके महल की छत उसका बोझ सह सकेगी ? महाराजा ने ... अपना सबसा बड़ा हाथी बुलवाया और येन-केन-प्रकारेण उसे छत के साथ बाकायदा लटका कर दिखा दिया कि महल की छत की मजबूती की दशा क्या है.”

एक और किस्सा देखिये. पुस्तक कहती है “बिजली की ट्रेनों पर महाराजा ग्वालियर जान देते थे. ग्वालियर का शासन भारत के श्रेष्ठतम शासनों में से एक था. वहाँ के महाराजा ने लोहे की एक जबरदस्त मेज बनवाई. उस पर ठोस चांदी की पटरियाँ बिठाई,जिसकी लंबाई 250 फीट से ज्यादा थी. यह मेज भोजन कक्ष में रख दी गयी. दीवार में छेद करके पटरियों को इस प्रकार आगे बढ़ाया गया कि उस जबर्दस्त मेज का संबंध राजसी रसोईघर से जुड़ गया. अब एक कंट्रोल पैनल की रचना की गयी. उसमें न जाने कितने स्विच थे,अलार्म थे,सिग्नल थे,लिवर और एक्सलरेटर थे. यह पैनल मेज पर फिट कर दिया गया.” आगे लेखकों ने लिखा कि महाराज खुद खाना लाने वाली इस ट्रेन का कंट्रोल पैनल से संचालन करते थे. वे चाहते तो अपने किसी मेहमान को भूखा भी रख सकते थे. खाना लदी ट्रेन मेहमान के आगे नहीं रुकेगी तो वह भोजन ले ही नहीं सकता था. 

छत की मजबूती सिद्ध करने के लिए छत पर हाथी लटकाने वाले और चांदी की पटरी पर दौड़ती लोहे की ट्रेन से खाना खाने वालों के वारिस जब कहें कि राजनीति में वे सेवा के लिए हैं तो  समझाइए कि वे या तो मेवा और सेवा में फर्क नहीं कर पाते या फिर मेवा को ही सेवा समझते हैं !

सांसदी व मंत्री पद न रहे तो लगे कि सेवा नहीं हो पा रही है और सांसदी व  मंत्री पद पक्का हो जाये तो सेवा करने की गारंटी लगने लगे तो “श्रीमंत”  जनसेवा नहीं स्वयं की सेवा की बात कर रहे हैं ! आत्मा-परमात्मा स्वयं को ही समझे हैं “श्रीमंत”? स्वयं ही महाराजा हैं,स्वयं ही जन,स्वयं की सेवा के सारे जतन !

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