“तुम्हारी दोनों तरफ से मौत है,अगर चुपचाप रहते हो तो दाने बिन मर जाओगे. इसलिए मैं
कहता हूँ तुम भूख से नहीं गोली खा कर मरो.” क्या ऐसा नहीं लगता कि यह संवाद अभी
बोला जा रहा हो ? बदहवास,व्याकुल
मजदूरों को कोई संबोधित कर रहा हो,जिनके सामने कोरोना से बड़ा संकट मौत है !
लेकिन यह संवाद अभी नहीं 1946 में बोला गया. कालापानी की सजा भुगत कर पेशावर
विद्रोह के नायक चंद्र सिंह गढ़वाली जेल से बाहर आए. उनकी रिहाई के साथ अंग्रेजों
ने चंद्र सिंह गढ़वाली के गढ़वाल प्रवेश पर रोक लगा दी थी. पेशावर विद्रोह से पहले
चंद्र सिंह गढ़वाली आर्य समाजी हुए और जेलों में रहते हुए कम्युनिस्टों के संपर्क
में आ कर कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बने.
कम्युनिस्ट पार्टी ने 1946 की गर्मियों में
जनता के बीच काम करने के लिए, कॉमरेड चंद्र सिंह गढ़वाली को रानीखेत
भेजा. एक दिन रानीखेत में चंद्र सिंह गढ़वाली को सड़क पर बड़बड़ाता हुआ एक कुमाऊँनी
बूढ़ा दिखाई दिया,जो कह रहा था कि उसके घर पहुँचने से पहले
उसके परिवार के सभी सदस्य हैजे से मर जाएँ ! गढ़वाली जी ने उसके ऐसा कहने का कारण
पूछा तो वह बोला कि 06 दिन से उसके घर में अन्न का दाना नहीं है. वह कर्ज लेकर
बाजार आया है, परंतु कहीं अन्न का दाना नहीं मिलता. चंद्र
सिंह गढ़वाली ने उस बूढ़े को अनाज दिलवाया.सप्लाई के अफसर के पास गए तो उसने कहा कि
दूकानदारों को बराबर अनाज दिया जा रहा है. बाजार में घूमे तो पता चला कहीं अनाज का
दाना नहीं है. तुरंत उन्होंने बाजार में मुनादी करवाई- “अन्न चाहने वाले डाकखाने के पास जमा हो जाएँ,वहीं सभा होगी.” इसी सभा में कॉमरेड चंद्र सिंह गढ़वाली
ने लोगों से भूखों मरने के बजाय गोली खा कर मरने यानि संघर्ष करने का आह्वान किया.
400 लोग सभा में ही चंद्र सिंह गढ़वाली के साथ मिल कर लड़ने को तैयार हो गए.
चंद्र सिंह गढ़वाली ने उन भूखे लोगों को
समझाया कि भूखे मरने से बचने के लिए हमें संगठित होना चाहिए. भूखों,गरीब,बेसहाराओं के पास आज भी यदि कोई रास्ता है
तो वही है जो 1946 में कॉमरेड चंद्र सिंह गढ़वाली रानीखेत में बता गए.
चंद्र सिंह गढ़वाली की अगुवाई में पेशावर
में 23 अप्रैल 1930 को गढ़वाल राइफल के जवानों ने निहत्थे पठान स्वतन्त्रता
सेनानियों पर गोली चलाने से इंकार कर दिया.ये पठान स्वतन्त्रता सेनानी सीमांत
गांधी और बादशाह खान के नाम से लोकप्रिय खान अब्दुल गफ्फार खान के संगठन-खुदाई
ख़िदमतगार से जुड़े हुए थे.ये पूर्णतया अहिंसावादी थे.बादशाह खान ने पठानों को
अहिंसा का महत्व समझाते हुए कहा-ब्रिटिश साम्राज्य अहिंसावादी पठान को हिंसक पठान
से अधिक खतरनाक समझता है.
इन अहिंसक पठानों के शांत जुलूस पर अंग्रेज़
अफसर कैप्टन रिकेट द्वारा-गढ़वाली थ्री राउंड फायर के आदेश के जवाब में ही चंद्र
सिंह गढ़वाली ने बुलंद स्वर में कहा-गढ़वाली सीज फायर ! और सब गढ़वाली सिपाहियों ने
बंदूकें जमीन पर टिका दी ! आज के समय में
जब धार्मिक घृणा अपने चरम पर है तब थोड़ा सोच कर देखिये कि ये मामूली रूप से साक्षर
सिपाही, दिमागी तौर पर कितना आगे बढ़े हुए थे कि वे
अंग्रेज़ अफसरों के इस बहकावे में नहीं आए कि पठानों पर इसलिए गोली चलानी है
क्यूंकि वे हिंदुओं पर अत्याचार करते हैं. चंद्र सिंह गढ़वाली ने अपने साथियों को
समझा दिया कि मसला हिन्दू-मुसलमान का नहीं अंग्रेज़ और स्वतन्त्रता सेनानियों के
बीच का है. गोली चला देते तो आराम से नौकरी करते पर गोली न चलाने की भारी कीमतें
उन्होंने चुकाई,फौज से निकाले गए,कालापानी की सजा हुई. पर उन कम पढे-लिखे फ़ौजियों ने सांप्रदायिक
सौहार्द की जो मिसाल कायम की,वह 90 साल बाद,आज के कूढ़मगजों पर भारी है.
ये गढ़वाली सिपाही सांप्रदायिक घृणा के
बहकावे में नहीं आए,यह “फूट डालो-राज करो” की बुनियाद पर खड़े
ब्रिटिश साम्राज्यवाद के लिए भीषण धक्का था. अँग्रेजी फौज,अंग्रेजों के साथ नहीं बल्कि धर्म की बेड़ियाँ तोड़ कर
अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने वाले स्वतन्त्रता सेनानियों के साथ हो रही हैं,यह भी अंग्रेजों के लिए भारी झटका था. इन्हीं फ़ौजियों
के ज़ोर से तो हिंदुस्तान पर उनकी हुकूमत चल रही थी ! ये हाथ में अँग्रेजी बंदूक और
तन पर अँग्रेजी वर्दी सहित, यदि अपने हमवतनों के साथ हो जाएँगे तो अंग्रेजों
के पास इस देश में बचता ही क्या ?
पेशावर में गढ़वाली सिपाहियों के गोली चलाने
से इंकार की घटना ने अंग्रेजों को इस कदर भयभीत कर दिया कि उत्तर पूर्व सीमांत
प्रांत के चीफ़ कमिश्नर सर नॉर्मन बोल्टन रातों को सो ही नहीं पाते थे. और जब भी इस
अंग्रेज़ अफसर को नींद आती,भयानक सपने उसे जगा देते.गढ़वाली सिपाहियों
ने गोली नहीं चलायी पर बोल्टन सपने में देखता कि अंग्रेज़ महिलाओं और बच्चों का
कत्ल हो रहा है. उसकी हालत इस कदर बिगड़ गयी कि उस अंग्रेज़ अफसर का दिमागी संतुलन
बिगड़ने का खतरा पैदा हो गया. इसलिए अंग्रेजों ने उसका तबादला कर दिया. एक अंग्रेज़
अफसर मैलकम डार्लिंग ने लिखा, “राजनीतिक हालत कम हिंसात्मक है पर मनोवैज्ञानिक हालत हमेशा की
तरह खराब है.”
इस विवरण से चंद्र सिंह गढ़वाली की अगुवाई
में अंजाम दिये गए उस खामोश पेशावर विद्रोह के धमाके का अंदाजा लगाया जा सकता है.
कॉमरेड चंद्र सिंह गढ़वाली और उनकी
सांप्रदायिक सौहार्द की विरासत और सम्झौताविहीन संघर्षों की परंपरा जिंदाबाद !
- इन्द्रेश मैखुरी
संदर्भ :
1.
वीर
चंद्र सिंह गढ़वाली-लेखक राहुल सांकृत्यायन,किताबमहल प्रकाशन
2.
The Art of Panicking
Quietly: British Expatriate Responses to ‘Terrorist Outrages’
in India, 1912-33 - Kama Maclean
2 Comments
वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली को नमन
ReplyDeleteइंक़लाब जिन्दाबाद
✊✊✊✊
jindabad
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