गुंडे देखे हैं आपने ? कैसे होते हैं ? आक्रामक,डरावने. इनके काम करने के तरीके पर गौर
किया, कभी आपने ? काम मतलब वही- गुंडई.
उनका जो मोडस ओपरेंडी यानि मोड ऑफ ऑपरेशन बोले तो काम करने का तरीका होता है,उसपर गौर कीजिएगा.
गुंडेपने के शुरुआत से लेकर गुंडेपने के चरम तक,उनके
तौर-तरीके में ख़ासी एकरूपता होती है. लफंगई से गुंडई में प्रमोशन के लिए खास
टारगेट चुनते हैं. एक कमजोर व्यक्ति चिन्हित करेंगे और ताबड़तोड़ उस पर टूट पड़ेंगे. चूंकि
कमजोर व्यक्ति के पीछे किसी की ताकत नहीं तो उसे पीटना,हींग
लगे न फिटकरी टाइप मामला हो जाता है. वह प्रतिवाद कर नहीं सकता और अगल-बगल वालों
पर रौब गालिब होता है,सो अलग ! एक बार कमज़ोरों पर हाथ सफाई
की लत लगी तो कमजोरों के झुंड के झुंड पीटने पर भी प्यास नहीं बुझती. धीरे-धीरे इस
मार-पिटाई के माहौल से तथाकथित सभ्रांत लोग भी भयाक्रांत होने लगते हैं. अभी इन
कमजोरों पर हाथ उठा रहा है,कल को हम पर भी चला दे तो ! इनका
तो क्या है ,हमारी तो इज्जत ही चली जाएगी !
एक तबका बिना वजह मार खाता है और कमजोर होने के चलते चुप रहता
है,दूसरा हिस्सा बिना पिटे मरी हालत को स्वीकार कर लेता है. इस तरह किसी भी
गुंडे का साम्राज्य स्थापित होता है.
इसके अलावा एक पूरा तंत्र है,जो गुंडों को
पालता-पोसता है. नए उभरते गुंडों पर नजर रखता है,उनकी “सेवाओं”
से खुद को मजबूत करता है. पुराने बोझ हो चुके गुंडों को निपटाने के लिए नए गुंडों
का इस्तेमाल करता है.जब तक काम के हैं,तब तक तंत्र गुंडों का
संरक्षक रहता है और गुंडे तो तंत्र की सेवा में हर दम हाजिर रहते ही हैं. तंत्र
गुंडों का तारणहार होता है तो गुंडे तंत्र के संकटमोचक.
इधर तंत्र अपने कर्मों से मुश्किल में फंसा और उधर गुंडों ने
तत्काल एक नकली दुश्मन गढ़ा. इस गढ़े गए दुश्मन की अवस्था बॉक्सिंग के पंचिंग बैग जैसी होती है. बॉक्सर अभ्यास करे तो पंचिंग बैग पर प्रहार करेगा और
बॉक्सर गुस्से में घर आए तो घूंसे तब भी पंचिंग बैग पर ही बरसाएगे ! तंत्र और
गुंडे के खेल में त्रासद यह है कि इसमें कमजोर व्यक्ति या समुदाय पंचिंग बैग बन
जाता है. और ये जो पहलवान हैं अखाड़े में नहीं उतरते बस पंचिंग बैग पर ही बहादुरी
का प्रदर्शन करते हैं.
गुंडे के मामले में जरा भी असंतोष पनपने की गुंजाइश बनी तो
तंत्र घोषित कर देगा कि गुंडे के खिलाफ कही या सोची गयी कोई भी बात तंत्र के खिलाफ
समझी जाएगी. गुंडा सुरक्षित,तंत्र सुरक्षित !
एक और बात गुंडों में
खास होती है. वे अपने से शक्तिशाली से कभी नहीं टकराते. तमाम बंदूक-तमंचे-बम के
बावजूद कोशिश करते हैं कि अपने पर भारी पड़ने वाले का रास्ता न काटा जाये. फर्ज
कीजिये कि जो कल अपेक्षाकृत कमजोर था और आज शक्तिशाली हो गया तो ? तो
बहुत आसान है,कल जिस पर गुर्राये,आज क्यांऊं-क्यांऊं करते हुए उसके चरणों में लोट जाएँगे !
इसका उल्टा हो जाये कि आज का शक्तिशाली,कल शक्तिहीन हो जाये
तो ? तो फिर क्रम बदल जाएगा,जिसके
सामने आज क्यांऊं-क्यांऊं करते हुए लोट रहे हैं,कल उस पर गुर्राएंगे !
तथाकथित शरीफ लोग अपने जीवनचर्या और स्वार्थों में सिकुड़ते-सिमटते
रहे तो गुंडों का फैलाव होता रहा. हर तरफ गुंडे,हर क्षेत्र में गुंडे,चाकू-तमंचे वाले कम हुए तो उनके बिरादर-सहोदर तकनीक वाले गुंडे. गुंडों के
इस फैलाव के साथ ही गुंडों का तौर ही समाज का स्वीकृत तौर बनता जाता है,गुंडा व्यवहार को ही समाज अपना सामान्य व्यवहार यानि नैचुरल बिहेवियर
समझने लगता है. तब गुंडे उसे अपने सगे लगते हैं और ऐसा न हो सकने,ऐसा न कर सकने वाले, उसे महामारक दुश्मन लगने लगते
हैं. तब पढ़ा-लिखा निकृष्ट कोटि का विध्वंसक मान लिया जाता है और तोड़-फोड़ मचाने
वाला गुंडा-माईबाप,सरताज,आँखों का तारा,जान से प्यारा मालूम पड़ता है !
ऐसी स्थिति बनी रहे तो गुंडे फलेंग-फूलेंगे, ये उनके
लिए वरदान है. लेकिन गुंडों को सिर-माथे बैठाएगा तो समाज रसातल को ही जाएगा.
गुंडों के खिलाफ और इंसाफ के हक में खड़े होना बहुत जरूरी है.
लड़ते गुंडे भी हैं,लड़ना इंसाफ के लिए भी पड़ता है. पर बुनियादी
अंतर यह है कि गुंडा अपने से ताकतवर से कभी नहीं लड़ेगा और इंसाफ के लिए तो ताकतवर
से टकराना अनिवार्य शर्त है. नाइंसाफी तो अपने साथ, नाइंसाफी
का ध्वजवाहक गुंडा भी नहीं चाहता. इसलिए
हक-इंसाफ के पक्ष में खड़े होने से बड़ी कोई ताकत नहीं है.
ब्रेख्त तो कहते हैं -इंसाफ जनता की रोटी है.
- इन्द्रेश मैखुरी
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