जीत सिंह नेगी
उत्तराखंड के पहले कलाकार तो जो गढ़वाली गीत-संगीत को रिकॉर्डिंग स्टुडियो तक ले
गए. 1949 में उनका पहला ग्रामोफोन रिकॉर्ड हुआ था. इस तरह से कहें तो उत्तराखंड में गीत-संगीत की जो इंडस्ट्री है,उसकी बुनियाद जीत सिंह नेगी ने डाली. गीत-संगीत के अलावा रंगकर्म से भी
जीत सिंह नेगी जी का जुड़ाव रहा है.
उनके गीत बहुत
सीधे,सरल और मधुर थे, जो पहाड़ के
रूप सौन्दर्य से लेकर पहाड़ के जीवन के कष्ट और पहाड़ से बिछोह के गीत हैं. बहुत
वैचारिक या कष्टों के कारकों की जड़ तक वे नहीं जाते,लेकिन
पहाड़ की पीड़ा उनमें दिखती है.
जैसे उनका एक गीत
है :
घास काटी की
प्यारी छैला ए
रुमुक ह्वेगे घार
ऐ जा दी
एक पहाड़ी
स्त्री है,जो घास लेने जंगल में,किसी पहाड़ ढलान पर गयी हुई है. घर में पति है,जो उसे
पुकार रहा है कि साँझ ढल गयी,दूध पीने वाला बच्चा है, घर आ जा. उसकी चिंता है घास के लिए पता नहीं किस ढलान पर चली गयी है,बाकी सब तो घर लौट आए हैं. तू ही नहीं आई,तुझ बिन घर
सूना है. बरसात में घास का गट्ठर गीला होगा और बोझ बढ़ गया होगा. तेरे मायके से
मेहमान आए हैं, सब तुझे पुकार रहे हैं. एक बार हाँ बोल के मन
को तसल्ली दे दे. तेरे न आने से आँसू सावन-भादो की तरह से बरसते हैं,इनको आ कर पोंछ दे.
देर साँझ तक
घास ले कर न लौटी स्त्री और उसके साथ अनहोनी होने की आशंका,यह आज भी पहाड़ की तस्वीर है. पर्वतीय ढलानों पर घास लेने गयी स्त्री और
पाँव फिसलने से या ऊपर से पत्थर आ जाने से जान गंवा बैठी स्त्री,आज भी पहाड़ी गांवों की हकीकत है. उस पीड़ा को सीधे-साधे तरीके से बयान करता
गीत है ये. गीत में आशंका है कि कुछ अनहोनी न हो गयी हो पर उम्मीद भी है क्या पता
घास लेने गयी,वह महिला किसी की पुकार पर तो हाँ बोल ही देगी.
उनका एक गीत है :
चल रे मन माथ जयोला
(चल रे मन ऊपर हो कर आते हैं)
यूं कुछ धार्मिक किस्म की बात गीत में है,पर पहाड़ का जो वर्णन है,वह बेहद खूबसूरत है. गीत का एक अंश है
:
धार मा बैठिल्यो त्वेतें बुथ्यालो
डाँडो को ठंडों बथौऊं रे
आदमी पहाड़ चढ़ रहा है,खड़ी चढ़ाई है.पहाड़ चढ़ने वाला पसीने से तरबतर है. फिर
किसी ऊंचाई पर वह धम्म से नीचे बैठता है. और तभी ऊंचाई की ठंडी हवा जैसे सहलाती है,जैसे थपकी दे रही हो.
इसी गीत में एक अंतरा है :
काळी कुएड़ी बसग्याळी मैनों
लौंकदी
बगत बौळ्यांद
डांडों
तबी
त मैत की बेटी खुदींदा
सैसूर्यों
का गौंऊ रे
(काला कोहरा बरसाती महीनों में
जब बौराता हुआ सा पसरता है तो
ससुराली गांवों में मायके को बेटी तड़पती है)
अब देखिये बात
तो कुछ धार्मिक टाइप से शुरू हुई थी,लेकिन
पहाड़ के गाँव में मायके की याद में कलपती स्त्री तक पहुँच गयी.पहाड़ का गीत,पहाड़ की स्त्री,उसके विरह और पीड़ा के बिना मुकम्मल होता
ही नहीं है.
यूं जीत सिंह नेगी, हमारे पीढ़ी के लिए अप्राप्य थे. वे ग्रामोफोन और एल.पी.रिकॉर्ड के जमाने के
गायक थे और अब तो कैसेट के बाद सी.डी. भी आउटडेटेड होने को है. लेकिन नयी पीढ़ी से जीत
सिंह नेगी की वाकफ़ियत कराई उत्तराखंड के स्वनाम धन्य लोकगायक,गीतकार,संगीतकार नरेंद्र सिंह नेगी ने. नरेंद्र सिंह
नेगी ने जीत सिंह नेगी के गीतों को “तू होली बीरा” नाम के एलबम में पुनः प्रस्तुत कर
दिया.
ये विचार कहाँ से आया,इसके संदर्भ में नरेंद्र सिंह नेगी
बताते हैं कि कुछ साल पहले जब वे दुबई में कार्यक्रम देने गए थे तो वहाँ कुछ बुजुर्ग
लोगों ने उंसने जीत सिंह नेगी के गीतों को सुनने की चाहत और उन गीतों की अनुपलब्धता
की चर्चा की. तब भारत लौट कर जीत सिंह नेगी से उनके गीतों को गाने की अनुमति ले कर नरेंद्र सिंह नेगी ने उन गीतों
को पुनः गाया.
ये गीत यूट्यूब पर मिल जाते हैं. जीत सिंह नेगी के मूल स्वर में न सही,लेकिन गीत तो वे उपलब्ध हैं ही और उनके ही हैं.
ये गीत यूट्यूब पर मिल जाते हैं. जीत सिंह नेगी के मूल स्वर में न सही,लेकिन गीत तो वे उपलब्ध हैं ही और उनके ही हैं.
नरेंद्र सिंह नेगी
जी ही बताते हैं कि एच.एम.वी. कंपनी ने भी एक समय जीत सिंह
नेगी और कुछ अन्य उत्तरखंडी कलाकारों का ग्रामोफोन रिकॉर्ड किया था. एच.एम.वी. कंपनी
कलाकारों को रॉयल्टी देती थी. लेकिन उस जमाने में उत्तरखंडी लोगों के पास ग्रामोफोन
उतने थे नहीं तो वो एल.पी. रिकॉर्ड बहुत बिके नहीं और इनको बहुत कुछ प्राप्त नहीं हो
सका. कैसेट कंपनियों का जमाना आया तो वे लोकप्रिय लोकगायकों से उनके गीतों का कॉपीराइट
खरीद कर,उन्हें एकमुश्त रकम देने लगी,जो कि
गीतों की गुणवत्ता और लोकप्रियता के हिसाब से मामूली ही होती थी.
तू होली ऊंची डांड्यूं मा बीरा
घसियारी का भेस मा
खुद मा तेरी सड़क्यूं पर मी
रूणु छौं परदेस मा
(तू होगी ऊंचे शिखरों पर बीरा घसियारी के भेस में
याद में तेरी सड़कों पर रोता हूँ,मैं परदेस में)
1940 के दशक के
अंतिम वर्षों में व्यावसायिक संगीत की दुनिया में पदार्पण करने वाले गायक की पीड़ा,कमोबेश आज भी पहाड़ की सतत पीड़ा है. रोजगार के लिए पहाड़ छोडने का एक अनवरत सिलसिला
है,जो थमता नहीं है.
1925 में
पौड़ी जिले की पैडलस्यूं पट्टी के अयाल गाँव में जन्मे जीत सिंह नेगी का 21 जून 2020
को 95 वर्ष की उम्र में देहावसान हो गया. प्रख्यात रंगकर्मी डॉ.सुवर्ण रावत ने जीत
सिंह नेगी को श्रद्धांजलि देते हुए लिखा कि “सिर्फ पाँच साल दूर थे वे एक शताब्दी से.” भले ही वे जीवन की शताब्दी पूरी करने से पाँच
साल पूर्व दुनिया से चले गए,लेकिन अपने गीतों के जरिये जीत सिंह
नेगी इस यात्रा से भी कई पड़ाव आगे तक पहुंचेंगे. श्रद्धांजलि.
-इन्द्रेश मैखुरी
6 Comments
बढ़िया👌
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteबहुत सुन्दर लेख
ReplyDeleteधन्यवाद
DeleteThank you for posting this article about my grandfather 🙏 Late Shri Jeet Singh Negi.
ReplyDeleteMr.Jeet singh negi sir,was a great person, who started our real garhwali sangeet.he is unforgettable.
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