1990 का दशक था. उत्तराखंड में अमर उजाला,दैनिक जागरण
जैसे अखबारों के कदम बहुत जमे हुए नहीं थे. तभी 1994 में उत्तराखंड आंदोलन हुआ. शहर-शहर,कस्बे-कस्बे जुलूस निकलने लगे. आंदोलन की वैचारिकी और तौर-तरीका जो था,सो था पर आन्दोलन में भारी भागीदारी को इन दो अखबारों ने अपने लिए सुनहरा अवसर
समझा. ऐसी खबरें छपने लगी जिसमें खबर चार लाइन और लोगों के नाम दस लाइनों में होते
थे. खबर में 20-30-50 नाम छपना मामूली बात थी. खबरों से ज्यादा अपने नाम की खातिर लोग
इन अखबारों को खरीदने लगे. मेरे जैसे 12वीं में पढ़ने वाले विद्यार्थी के लिए अखबार
में नाम छपना बड़ी बात थी. मैंने भी बहुत साल,पचासियों नाम वाली
अखबारी कतरने संभाल कर रखी. फिर छात्र जीवन में ही,वह निरर्थक
लगा तो सब कतरनें बाहर फेंक दी. बहरहाल,खबरों में पचासों नाम
छापने के इस कारनामें ने पहाड़ में “छपास” रोग की बुनियाद मजबूत की और इन अखबारों की
भी. उत्तराखंड आंदोलन का जो हुआ,वह तो सामने है ही,पर उत्तराखंड में इन अखबारों को आलीशान अवस्था में पहुंचाने के काम जरूर वह
आंदोलन आया.
लेकिन आंदोलन के चलते प्रसार
में भारी उछाल के बावजूद पूरी पहाड़ में कहीं भी इन अखबारों के दफ्तर नहीं थे. इन अखबारों
के खबरनवीस,दूरसंचार विभाग के तारघर में लगे फ़ैक्स से खबर भेजा
करते थे.अखबार लाने वाली गाड़ी से भी खबरों के लिफाफे भेजे जाते थे. राष्ट्रीय अखबारों को खबर भेजने वाले भी तार घर से
खबर भेजते थे.बहरहाल पहाड़ में अखबार के दफ्तरों का चलन नहीं था.
उसी नब्बे के दशक में देहारादून
से एक दैनिक अखबार निकलना शुरू हुआ- हिमालय दर्पण.उत्तराखंड की अखबारी दुनिया में यह
अखबार आँधी की तरह आया,हालांकि तूफान की तरह चला भी गया. लेकिन
अखबारों का तौर इसके आगमन से बदल गया. हिमालय दर्पण ने पहाड़ के शहर और कस्बों में अपने
दफ्तर खोले. दफ्तर में बैठने का इंतजाम तो था ही फ़ैक्स भी होता था. हिमालय दर्पण के
ही प्रतिनिधि ऐसे थे,जिन्हें फ़ैक्स करने तारघर नहीं जाना होता
था.
कार्टून-अलफ्रेडो गार्जन
देखा-देखी अमर उजाला और दैनिक जागरण को भी अपने फ़ैक्स वाले दफ्तर खोलने पड़े. इस तरह पहाड़ में अखबार के दफ्तरों का चलन आया. हिमालय दर्पण तो कुछ ही वर्षों में बंद हो गया, लेकिन इन अखबारों के दफ्तर रह गए. फ़ैक्स के बाद कंप्यूटर और मॉडम का जमाना आया तो थके हुए ही सही इन अखबारों के दफ्तरों में कंप्यूटर भी आ गये.
और अब आया है कोरोना काल. इस
कोरोना काल में अखबार भी लगता है कि “आपदा को अवसर में बदलने”
का सूत्र लपक चुके हैं. खबर है कि अमर उजाला ने पौड़ी,कर्णप्रयाग,रुद्रप्रयाग और विकासनगर कार्यालय बंद कर दिये हैं. एक अन्य दैनिक अखबार-हिंदुस्तान
द्वारा भी गढ़वाल में अपने सभी दफ्तर बंद किए जाने की सूचना है.
कोरोना काल में समाचार माध्यमों से छंटनी का दौर
भी शुरू हो चुका है. यह छंटनी की परिघटना तो राष्ट्रीय है. इसके खिलाफ कुछ पत्रकार
संगठन सुप्रीम कोर्ट भी गए पर अब तक कोई राहत नहीं मिल सकी.
अखबारों के मालिकान, छंटनी की इस राष्ट्रीय परिघटना में उत्तराखंड के अपने कारिंदों की आहुति देने
के दिशा में बढ़ चुके हैं. पंजाब केसरी वाले बीते डेढ़-एक साल से “उत्तराखंड टाइम्स” या “नवोदय टाइम्स” के नाम
से अखबार निकाल रहे हैं. यह “नवोदय टाइम्स” अभी पी.डी.एफ. स्वरूप में लोगों तक पहुँच रहा है.
लेकिन इस “नवोदय टाइम्स” ने अखबारी रूप में
नवोदय से पहले अपने छह पत्रकारों का कैरियर,इस महा आपदा काल में
अस्त कर दिया है . जो रह गए हैं,उनकी तनख़्वाहें आधी कर दी गयी
हैं.
उत्तराखंड बनने के लाभार्थियों
की गिनती की जाये तो अखबारों के मालिकान भी अग्रिम पंक्ति में दिखाई देंगे. उन्हें
बेहद रियायती दरों पर राज्य में ज़मीनें मिली,सरकारी विज्ञापन खुले
हाथों से सरकारों ने उन पर लुटाया. लेकिन सिर्फ अखबार होने के दम पर खूब मुनाफा काटने
वाले मालिकान ने इस मुनाफे के छींटे तक इन
अखबारों के लिए रात-दिन एक करने वाले पत्रकारों पर नहीं पड़ने दिये. पहाड़ में तो हालत
यह है कि जिन ढेर सारे लोगों को आम जनता पत्रकार समझती है,उन्हें
अखबार पत्रकार का दर्जा तक नहीं देता. उन्हें अपने लिए खबरें भेजने के लिए नियुक्त
करने से पहले,उनसे अखबार वाले शपथ पत्र भरवा लेते हैं कि वे पाठक
हैं,जो शौकिया तौर पर खबर भेज रहे हैं. किसी तरह की ज़िम्मेदारी
से बचने के लिए अखबार के अंदर ही “संवाद एजेंसी” जैसी जुगत है.
अखबार क्या देते हैं,अपने कारिंदों को इसकी बानगी देखिये. दो-चार बरस पहले,उत्तराखंड के एक पहाड़ी ब्लॉक मुख्यालय पर एक अखबार में आवेदन करने वाले मित्र
ने बताया कि अखबार वालों ने उससे कहा कि 500 रुपया महीना में काम कर लोगे ! उत्तराखंड
के एक प्रसिद्ध पहाड़ी नगर में 1500 रुपया महीना में खबरें भेजने वाला पत्रकार,उस नगर का “हाईएस्ट पेड” पत्रकार था.
चैनलों
की दशा तो अखबारों से अधिक गंभीर है. पहाड़ी नगरों-कस्बों में चैनलों
के लिए काम करने वाले अधिकांश लोगों को चैनल यदि कुछ देते हैं तो वो है-चैनल का नाम
लिखा हुक्कानुमा माइक,जिसे गर्व के साथ चैनल आई.डी. कहा जाता
है !
बीते दिनों खबर थी कि एन.डी.टी.वी.
ने पचास हजार रुपये से अधिक तनख्वाह वालों की तनख्वाह में
कटौती की. सहसा ख़्याल आया कि उत्तराखंड की मीडिया में पचास हजार से अधिक तनख्वाह वालों
की गिनती हो तो मुट्ठी भर से अधिक नहीं निकलेंगे ! उत्तराखंड में तो फ्रीलान्स जर्नलिज़्म
के बजाय फ्री जर्नलिज़्म है जो खूब फल-फूल रहा है. तनख्वाह
पाने वालों की छंटनी और कॉस्ट कटिंग होगी,लेकिन फ्री जर्नलिज़्म
वालों का कोई क्या बिगाड़ सकता है !
श्रमजीवी पत्रकार एवं अन्य समाचार पत्र
कर्मचारी अधिनियम,1955 में
यह प्रवाधान है कि केंद्र सरकार अखबारों में काम करने वाले पत्रकारों और गैर पत्रकारों के लिए
वेतन आदि का निर्धारण करने के
लिए समय-समय पर वेतन बोर्ड गठित करेगी. इसी प्रावधान के अंतर्गत केंद्र सरकार ने न्यायमूर्ति
जी.आर.मजीठिया की अध्यक्षता में 2007 में वेज बोर्ड गठित
किया. मजीठिया वेज बोर्ड ने 2010 में अपनी सिफ़ारिशें केंद्र सरकार को सौंप दी,जिन्हें केंद्रीय श्रम मंत्रालय ने 2011 में अधिसूचित कर दिया. इस वेज बोर्ड
के खिलाफ सभी अखबारों के मालिकान सूप्रीम कोर्ट चले गए. 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने
अखबारों के सभी मालिकान की याचिकाएं खारिज कर दी.
वेज बोर्ड का लाभ देने से बचने के लिए "खबरों से पहले"लोगों तक पहुँचने का दावा करने वाले अखबार ने उत्तराखंड के वरिष्ठ पदों पर कार्यरत पत्रकारों को प्रदेश से बाहर ट्रान्सफर करने
की रणनीति अपनाई ताकि वे परेशान हो कर नौकरी ही छोड़ दें. लुग्दी रंग-नंबर वन अखबार ने तो अपने पत्रकारों
से लिखवा कर ले लिया कि उन्हें वेज बोर्ड का लाभ नहीं चाहिए ! अखबारों का पैंतरा यह
भी है कि वे बड़ी संख्या में पत्रकारों को पे रोल पर रखते ही नहीं,जिससे अधिकांश पत्रकार स्वतः ही वेज बोर्ड की परिधि से बाहर हो जाते हैं.
इस कोरोना काल में यह फिर
नजर आया कि मीडिया के मालिकान जिन पत्रकारों की वजह से मुनाफा कमाते हैं,उनकी जरा भी चिंता मालिकान को नहीं है.
मुनाफा होता है तो मालिकान समेटते हैं और इस महा आपदा में मुनाफा नहीं हो रहा तो घाटे
के दंश का शिकार बनने के लिए पत्रकारों को आगे कर दिया गया है. मीडिया में काम करने वाले पत्रकार श्रमजीवी हैं.
उनके श्रम से ही खबरों की दुनिया और मीडिया
हाउसेस चलते हैं पर मीडिया मालिकान श्रम परजीवी हैं,जो पत्रकारों
का खून चूस कर ही फलते-फूलते हैं.कोरना काल में यह पुनः सिद्ध हुआ.
इन्द्रेश
मैखुरी
1 Comments
मीडिया सरकार की वैचारिक सन्तान बनी हुई है इतना तो झेलना पड़ेगा
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