उच्चतम न्यायालय ने 20 जुलाई को उत्तराखंड के आयुर्वेदिक
मेडिकल कॉलेजों में फीस वृद्धि को रद्द करने के उत्तराखंड उच्च न्यायालय के फैसले को
चुनौती देने वाली याचिका खारिज कर दी. यह याचिका एक प्राइवेट मेडिकल कॉलेज द्वारा दाखिल
की गयी थी. समाचारों के अनुसार उच्चतम न्यायालय ने प्राइवेट मेडिकल कॉलेज की याचिका
न केवल खारिज कर दी,बल्कि यह भी आदेश दिया कि इस मामले में
कोई पुनर्विचार याचिका दाखिल नहीं की जा सकेगी.
लेकिन यह सवाल उठ सकता है कि प्राइवेट आयुर्वेदिक
मेडिकल कॉलेज वाले सुप्रीम कोर्ट गए तो इस लेख के शीर्षक में उत्तराखंड
सरकार को आयुर्वेद और एलोपैथी पढ़ने वालों के खिलाफ क्यूँ
बताया गया है ? इस बात को समझने के लिए पहले आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेजों
के मामले को समझते हैं. फिर एलोपैथी पढ़ने वालों की चर्चा भी करेंगे.
आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेजों का किस्सा शुरू यूं होता
है कि 14 अक्टूबर 2015 को यानि हरीश रावत के मुख्यमंत्रित्व काल में तत्कालीन
प्रमुख सचिव ओमप्रकाश द्वारा एक शासनादेश जारी करके निजी आयुर्वेदिक मेडिकल
कॉलेजों में बी.ए.एम.एस. की फीस 80 हजार रुपये प्रतिवर्ष तथा
छात्रावास शुल्क 18 हजार रुपये को बढ़ा कर 2 लाख 15 हजार रुपया प्रतिवर्ष कर
दिया जाता है. बी.एच.एम.एस. पाठ्यक्रम के लिए यह फीस 73 हजार 600 रुपया प्रतिवर्ष तथा
छात्रावास शुल्क 18 हजार रुपये से बढ़ा कर
1 लाख 10 हजार रुपया प्रति वर्ष कर दी गयी.बढ़ी हुई फीस नए छात्र- छात्राओं से ही
नहीं पहले से पढ़ रहे छात्र-छात्राओं से भी वसूली जाने लगी. मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र रावत के अत्यंत प्रिय
अफसर, तत्कालीन प्रमुख सचिव और वर्तमान में अपर मुख्य सचिव ओम प्रकाश का फीस
वृद्धि संबंधी उक्त आदेश पूरी तरह अवैधानिक था. 2004 में
पी.ए. इनामदार बनाम महाराष्ट्र सरकार के मुकदमे में उच्चतम न्यायालय ने आदेश दिया
था कि प्राइवेट कॉलेजों की फीस निर्धारण के लिए राज्य स्तर पर विशेषज्ञ कमेटी गठित
की जाये. उक्त आदेश के अनुपालन में उत्तराखंड सरकार द्वारा
“उत्तरांचल अनएडेड प्राइवेट प्रोफेशनल एजुकेशनल
इंस्टीट्यूशंस (रेग्युलेशन एंड फ़िक्सेशन ऑफ फी) अधिनियम,2006” पारित किया गया. उक्त अधिनियम के अनुसार निजी संस्थानों में शुल्क
निर्धारण, उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश की
अध्यक्षता वाली कमेटी द्वारा किया जाएगा. जहां 2006 में पारित उक्त अधिनियम में शुल्क निर्धारण कमेटी के लिए सेवानिवृत्त न्यायाधीश को नामित
करने का अधिकार उत्तराखंड उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को दिया गया था,वहीं 2010 में राज्य में बनी भाजपा की सरकार ने उक्त अधिनियम में संशोधन
करके शुल्क निर्धारण कमेटी के लिए सेवानिवृत्त न्यायाधीश को नामित करने का अधिकार
सरकार के हाथ में यानि स्वयं के हाथ में ले लिया.
फिर भी शुल्क
वृद्धि का अधिकार वैधानिक रूप से उक्त कमेटी को ही है. परंतु वर्तमान सरकार के
अत्यंत चहेते अफसर ने पिछली सरकार के कार्यकाल में नियम -कायदों की धज्जियां उड़ाते
हुए स्वयं ही शुल्क वृद्धि का ऐलान कर दिया. इस शुल्क वृद्धि के खिलाफ बी.ए.एम.एस.
के 2013-14,2014-15 तथा
2015-16 बैच के 5 छात्रों ने उच्च न्यायालय,नैनीताल में
जनहित याचिका दाखिल की. उत्तराखंड सरकार ने न्यायालय में तर्क दिया कि उक्त शुल्क
वृद्धि इसलिए जायज है क्यूंकि यह 7 साल बाद की गयी है. जुलाई 2018 में न्यायमूर्ति
सुधांशु धूलिया की एकल पीठ ने राज्य सरकार के तर्क को खारिज करते हुए फीस वृद्धि के राज्य सरकार के आदेश को
अरक्षणीय करार देते हुए रद्द कर दिया. एकल पीठ ने यह भी आदेश दिया कि यदि किसी
कॉलेज ने छात्र-छात्राओं से बढ़ी हुई फीस
ली है तो न्यायालय के आदेश की प्रति प्राप्त होने के 2 हफ्ते के भीतर वह वसूली गयी
धनराशि लौटा दे.
उच्च न्यायालय की एकल पीठ के फैसले के खिलाफ प्राइवेट
आयुर्वेदिक कॉलेजों की एसोसिएशन ने डबल बेंच में अपील की. डबल बेंच ने 9 अक्टूबर
2018 को सुनाये गए अपने फैसले में कहा कि फीस बढ़ाने का राज्य सरकार का निर्णय
उत्तरांचल अनएडेड प्राइवेट प्रोफेशनल एजुकेशनल इंस्टीट्यूशंस (रेग्युलेशन एंड
फ़िक्सेशन ऑफ फी) अधिनियम,2006 और उच्चतम न्यायालय द्वारा
स्थापित कानून का उल्लंघन है.साथ ही डबल बेंच ने एकल पीठ के फैसले को सही करार
दिया.
कायदे से उच्च न्यायालय की सिंगल बेंच और डबल बेंच का
फैसला आने के बाद उत्तराखंड सरकार को प्राइवेट आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेजों को छात्र-छात्राओं
को फीस लौटाने को कहना चाहिए था. लेकिन उत्तराखंड
सरकार ने ऐसा नहीं किया. उच्च न्यायालय के निर्णय को लागू कराने के लिए उत्तरदाई सरकार
और प्राइवेट मेडिकल कॉलेज मिल कर उच्च न्यायालय के फैसले की खुली अवहेलना करते रहे.
उच्च न्यायालय का आदेश लागू हो और बढ़ी हुई फीस वापस किए जाने की मांग को लेकर बीते
वर्ष अक्टूबर से शुरू करते हुए छात्र-छात्राओं ने महीनों आंदोलन चलाया और पुलिस दमन
झेला. साथ ही उच्च न्यायालय में अवमानना याचिका भी लगाई. तब जा कर सरकार की तरफ से
आश्वासन की पुड़िया इनकी तरफ सरकाई गयी.
उच्च न्यायालय के स्पष्ट फैसले और उच्चतम न्यायालय के
ताजा फैसले के बाद यह साफ हो गया कि आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेज के छात्र-छात्राओं से
अवैध तरीके से भारी फीस ली जा रही थी और उत्तराखंड की सरकार छात्र-छात्राओं के साथ
नहीं प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों के साथ थी.
इस पूरी प्रक्रिया में प्राइवेट आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेजों में पढ़ने वाले
छात्र-छात्राओं को आयुर्वेदिक चिकित्सा के गुर सीखने के बजाय कानूनी दांवपेंच,कोर्ट-कचहरी और धरना प्रदर्शन में अपना वक्त लगाना पड़ा. आयुष प्रदेश बनाने
का नारा लगाने वाली सरकार,आयुष पढ़ने वाले छात्र-छात्राओं से बेजा
फीस वसूलने वालों के साथ खम ठोक कर खड़ी रही.
इसी तरह का मामला प्रदेश में एलोपैथी पढ़ने वालों का भी
है. उन्हें भी बीते वर्ष से ज्यादा बेतहाशा
फीस वृद्धि का शिकार बना दिया गया है. उत्तराखंड के सभी राजकीय मेडिकल कॉलेजों में
पूर्व में बॉन्ड की व्यवस्था थी,जिसके तहत इन मेडिकल कॉलेजों में
प्रवेश लेने वाले छात्र-छात्राओं को एक बॉन्ड पर दस्तखत करना होता था कि वे पास
आउट होने के बाद एक निर्धारित अवधि तक प्रदेश के सरकारी चिकित्सालयों में सेवा
देंगे.
बीते वर्ष हल्द्वानी और देहारादून के राजकीय मेडिकल
कॉलेजों के लिए राज्य सरकार द्वारा बॉन्ड की व्यवस्था समाप्त कर दी गयी और
श्रीनगर(गढ़वाल) और अल्मोड़ा के राजकीय मेडिकल कॉलेजों में बॉन्ड व्यवस्था को ऐच्छिक
कर दिया गया.
लेकिन इसके साथ ही एम.बी.बी.एस की
फीस में सरकार द्वारा भारी वृद्धि की गयी. फीस पंद्रह हजार रुपये सालाना से बढ़ा कर
सीधे चार लाख छब्बीस हजार पाँच सौ रुपये कर दी गयी. देश के किसी राजकीय मेडिकल
कॉलेज में इतनी अधिक फीस नहीं है. एम्स, किंग जॉर्ज मेडिकल
यूनिवर्सिटी,बी.एच.यू. जैसे संस्थानों में भी फीस एक-डेढ़ लाख
रुपये से अधिक नहीं है.
हल्द्वानी और देहारादून के राजकीय मेडिकल कॉलेजों के छात्र-छात्राएं
बीते एक साल से निरंतर इस फीस वृद्धि के खिलाफ आवाज़ उठा रहे हैं. सोशल मीडिया में भी
वे लगातार अभियान चलाये हुए हैं.
लेकिन इसके बावजूद भी सरकार टस से मस नहीं हो रही
है. इन छात्र-छात्राओं की वाजिब मांग सुनने को उत्तराखंड सरकार कतई तैयार नहीं है.
प्राइवेट आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेजों में पढ़ने वालों हों
या राजकीय मेडिकल कॉलेजों में एमबीबीएस पढ़ने वाले हों,लगता है कि उत्तराखंड में इनसे जम कर वसूली का अभियान चला हुआ है. इसके लिए
निजी क्षेत्र और सरकार में एक ऐसी जुगालबंदी नजर आती है,जो आम
छात्र-छात्राओं के लिए चिकित्सा विज्ञान पढ़ने का रास्ता बंद करने पर उतारू हैं.इस मुहिम
से कुछ तिजोरियाँ जरूर भर सकती हैं,लेकिन प्रदेश की कमजोर स्वास्थ्य
व्यवस्थाओं के लिए ऐसे फैसलों के दूरगामी परिणाम नुकसानदेह साबित होंगे.
-इन्द्रेश मैखुरी
2 Comments
🙏🙏🙏
ReplyDeleteभैजी तो क्या ये नियम सभी निजी शिक्षण संस्थानों पर लागू होते हैं या सिर्फ आयुर्वेदिक कॉलेजों पर ही ??
नियम तो सभी प्राइवेट कॉलेजों के लिए हैं कि फीस निर्धारण के लिए कमेटी होगी
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