उत्तराखंड में कुछ खबरें गाहे-बगाहे सुनाई देती हैं.
ये खबरें बरबस स्कूली दिनों में पढ़ी गयी,उस कहानी की याद दिलाती हैं,जिसमें एक लड़का गाँव वालों को परेशान करने के लिए चिल्लाता है -भेड़िया आया,भेड़िया आया ! गाँव वाले भेड़िये को मारने दौड़ते पर भेड़िया तो होता ही नहीं है.
इस पर लड़का खूब खिलखिला कर हँसता. उत्तराखंड
में कुछ-कुछ अंतराल पर सुनाई देने वाली खबरें इसी प्रकृति की हैं. वे उस भेड़िये के
आने की हांक है,जो आता ही नहीं है. ये खबरें
हर छठी-छमाही सुर्खियां बनती हैं. फिर अदृश्य हो जाती हैं. अगली बार पुनः लौटती हैं,सुर्खियां बन
कर. बार-बार इन खबरों को सुर्खियां बनाने वाले भी यह नहीं पूछते कि पिछली बार सुर्खियां
बनने के बाद ये खबरें किस बिल में बिला गयी थी ?वहां से ये फिर
बाहर निकली हैं,उसी बिल में बिलाने को !
इनमें से टॉप पर बार-बार लौटने वाली खबरें हैं-उत्तराखंड
में मंत्रिमंडल विस्तार की सुगबुगाहट और दूसरी खबर है-उत्तराखंड में होगी बंपर भर्तियाँ
! ये स्थायी शीर्षक हैं,जो हर दो-चार महीने के अंतराल में नमूदार
होते हैं.
उत्तराखंड में नियम के हिसाब से मंत्रिमंडल की संख्या
12 है,एक मुख्यमंत्री और 11 मंत्री. 2017 में त्रिवेन्द्र रावत ने जब मुख्यमंत्री
के तौर पर शपथ ली तो उन्होंने नौ मंत्री बनाए और दो पद रिक्त रखे. 2019 में कैबिनेट
मंत्री प्रकाश पंत के देहावसान के बाद मंत्रियों की संख्या आठ रह गयी. रह-रह कर दावेदारों
में उबाल आता है,कभी भाजपा संगठन का बयान आता है कि सही समय है
मंत्रिमंडल के खाली पद भरने का.
अरे बंधु, सबसे सही समय तो उसी
दिन था,जिस दिन सरकार शपथ ले रही थी. नौ मंत्री बना दिये थे तो
दो और बनाने में क्या बाधा थी ? या ऐसा था कि नौ,जिनमें से आधे से ज्यादा कॉंग्रेस से आए हैं,उनके अलावा
56-57 विधायकों में से कोई मंत्री बनाने के लायक ही नहीं समझा गया ? आत्मनिर्भरता का ताजातरीन जुमला उत्तराखंड सरकार पर लागू किया जाये तो कहा
जा सकता है कि मंत्री बनाने में तक ये सरकार आत्मनिर्भर नहीं, कॉंग्रेस निर्भर रही है !
अब कहा जा रहा है कि सावन के बाद भरे जाएँगे मंत्रिमंडल
के खाली पद ! और बेचारे दावेदारों की दशा है कि सावन हरे,न भादो सूखे !
थोड़ा गहनता से विचार किया जाये तो लगता है कि जब साढ़े
तीन साल सरकार,मंत्रिमंडल में तीन खाली पदों के साथ चल गयी तो इन
डेढ़ साल में ऐसा कौन सा पहाड़ सरकार को खोदना है कि उसका काम बिना तीन मंत्री बनाए नहीं
चलेगा.गढ़वाली मुहावरे का इस्तेमाल करते हुए कहें तो कह सकते हैं कि अभी जो मंत्रिमंडल
में हैं उन्होंने भारी “फरकाया” तो कुछ वो तीन “फरकाएंगे” जो अगर सही में बन गए, डेढ़ साल के लिए तो !
राज्य जिस हालत में है और जैसी सरकार की कार्यशैली
है,उससे लगता नहीं
कि मंत्री-मुख्यमंत्रियों के होने से बहुत फर्क पड़ता है. हरीश रावत जब मुख्यमंत्री
बने तो उन्होंने मंत्री बनाए पर महीने-दो महीने तक उन्हें विभाग ही नहीं बांटे. कोई बता दे कि जनता ने भारी कमी महसूस की हो मंत्रियों की ! हाँ मंत्री बेचारे अलबत्ता
परेशान रहे कि वे हैं भी और नहीं भी हैं !
वर्तमान सरकार को ही देखिये. क्या मंत्रिमंडल में कुछ
और लोगों के होने या नहीं होने से कोई फर्क पड़ने वाला है ? कुछ लोगों की मंत्री बनने की साध पूरी हो जाएगी,इससे
अधिक तो कुछ होता नहीं दिखता. सरकार की कार्यकुशलता का तो कहना ही क्या ! सरकार अपने
दायित्वों के प्रति किस कदर मुस्तैद है,इसका नमूना जून 2017 में
मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र रावत द्वारा विधानसभा अध्यक्ष को लिखे गए पत्र में देखा जा
सकता है.
उक्त पत्र में मुख्यमंत्री ने विधानसभा अध्यक्ष को बताया था कि मुख्यमंत्री के पास जो विभाग हैं, विधानसभा सत्र के दौरान उनसे संबंधित प्रश्नों के उत्तर कौन-कौन मंत्री देंगे.
विभाग किसी और के पास रहेंगे और जवाब कोई और देगा ! जब इससे कोई अंतर नहीं पड़ता तो
फिर तीन मंत्री हों,न हों,इससे क्या फर्क
पड़ने वाला है ?
दूसरी खबर रोजगार वाली है,जो महीने-दो महीने में अखबारों में दिखती है. “प्रदेश
में होंगी बंपर भर्तियाँ”,ये कुछ-कुछ महीनों के अंतराल में दिखने
वाला शीर्षक है. ऐसा लगता है कि भर्तियाँ नहीं कोई बंपर सेल या स्टॉक क्लियरेंस सेल
लगी हो. लेकिन नौकरियाँ का स्टॉक क्लियर होता नहीं और बेरोजगारों की संख्या बढ़ती जाती
है. पिछले साल को उत्तराखंड सरकार ने रोजगार वर्ष घोषित किया. लेकिन बंपर भर्तियाँ
न हो सकी तो बंपर भर्तियों वाले शीर्षक की गुंजाइश निरंतर बनी हुई है.पुरानी कहावत
है-गुड़ न दे तो गुड़ जैसे ही बात ही दे. उत्तराखंड में नयी कहावत गढ़ी जा रही है-नौकरी
न दे तो नौकरी का समाचार ही दे !
हालत यह है कि राज्य में जब से त्रिवेंद्र रावत की सरकार
आई है,पी.सी.एस. की परीक्षा तक नहीं हुई है. इसके लिए राज्य में लोकसेवा आयोग है,वो क्या करता है,कौन जाने ! बहुत सालों बाद फॉरेस्ट गार्ड
की परीक्षा हुई तो उसमें भी पेपर लीक हो गया.
मुख्यमंत्री जी बयान देते हैं कि बेरोजगारी की दर माइनस
में चली गयी है. सरकार में हजारों पद रिक्त हैं और बेरोजगारी की दर माइनस में है !
चार साल से पी.सी.एस की परीक्षा नहीं हो रही
और बेरोजगारी की दर माइनस में है. है ना चमत्कार !
हालांकि सरकारी रिपोर्टें ही मुख्यमंत्री जी के दावे की
हवा निकालने को पर्याप्त हैं. उत्तराखंड
सरकार द्वारा तैयार करवाई गयी मानव संसाधन विकास रिपोर्ट कहती है कि राज्य में
माध्यमिक स्तर से ऊपर के पढे लिखे युवाओं में बेरोजगारी की दर 2004-05 में 9.8 प्रतिशत
थी और 2017 में यह दर बढ़ कर 17.4 प्रतिशत हो गयी.
आंकड़े कुछ भी कहें पर चूंकि मुख्यमंत्री जी घोषणा कर चुके हैं कि राज्य में बेरोजगारी की दर
माइनस में है तो कुछ तो मान ही लेंगे कि माइनस में है. इसलिए अब मुख्यमंत्री जी खुद
मुख्यमंत्री आवास में डेंगू का लार्वा ढूंढ रहे हैं. वैसे यह गज़ब है कि इतने बड़े फौज-फाटे
के बावजूद मुख्यमंत्री को अपने सरकारी आवास में जल जमाव और डेंगू का लार्वा देखने खुद
ही निकलना पड़ रहा है.
जहां छोटे से छोटा अफसर को भी अपनी गाड़ी का दरवाजा खोलने के लिए अर्दली चाहिए
और सिर पर छाते खोले रखने के लिए भी एक अदद सेवक चाहिए,वहाँ मुख्यमंत्री का डेंगू का लार्वा तलाशने के लिए टैंक में झांकता फोटो, काफी मनोरंजक लगता है !
मंत्रिमंडल के रिक्त पद भरने की सुगबुगाहट,बंपर भर्तियाँ,मुख्यमंत्री का सरकारी आवास में डेंगू
का लार्वा ढूँढना सिर्फ खबरों के आकर्षक शीर्षक हैं. काम हो न हो,लेकिन खबरों में बना रहना चाहिए. यह इस दौर में कार्यकुशलता की कसौटी है. इस
पर खरा उतरने के लिए देश की सरकार और उत्तराखंड
की हर सरकार की तरह ये सरकार भी बेतरह प्रयास कर रही है !
-इन्द्रेश मैखुरी
1 Comments
ना पुराने वालों ने 'फरकाया' ना नए 'फरकाएँगे ' 🤣😂
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