हम तो समझे थे कि वो अपराधी है. समझदारी यह कहती है कि फर्जी एनकाउंटर या न्यायेत्तर हत्या (extra judicial killing) का विरोधी होते हुए भी उसका समर्थक नहीं हुआ जा सकता. लेकिन अब पता चल रहा है कि नहीं भय्या,न्याय-अन्याय बाद में देखो,पहले तो जाति देखो उसकी. अरे अपनी जाति वाले ऐसे ही मारे जा रहे हैं. जाति रक्षा के लिए मैदान में उतर पड़ो खम ठोक कर. और यह जाति के लिए खम ठोक कर उतरे हैं,शाहजहाँपुर वाले जितिन बाबू. प्रसाद जी के भीतर लगता है आजकल परशुराम कुछ ज्यादा ही उमड़-घुमड़ रहा है. फेसबुक पेज देखिये तो भरा पड़ा है,इस उमड़-घुमड़ से. कुछ दिन पहले सुन रहे थे कि बाबू साहब दूसरी नय्या पर सवार होने वाले हैं.
बेचारे प्रसाद बाबू सांसदी हारे हुए हैं. सोचते होंगे फरसे का प्रसाद बाँट कर कम से कम सांसदी का प्रसाद तो पा ही जाएँगे. इसलिए वे अपराधी के अपराध पर नहीं उसकी जाति पर ध्यान लगाना चाहते हैं. यह अजब-गजब करतब है,इस देश की राजनीति में कि आदमी एक ही समय में सेकुलर भी है और साथ ही वह घनघोर जातीय श्रेष्ठता बोध से पगा हुआ भी है. यह जो धर्मनिरपेक्षता के चोले के भीतर गहरे पैठा हुआ जातीय उच्चता का बोध है,यही है जो जीवन भर के काँग्रेसी को तत्काल ही भाजपा में फिट भी करा देता है और कम्फर्टेबल भी बना देता है. कॉंग्रेसियों या कहिए कि किसी भी सेकुलर होने का दावा करने वाली पार्टी की भीतर पलती यह संघी प्रवृत्ति ही है,जो इस देश में भाजपाई राजनीति को उर्वर जमीन उपलब्ध कराती है.
यह प्रवृत्ति है जो न केवल मांग करती है,वरन इस बात पर ज़ोर देती है कि अपराधी का अपराध मत देखो,पहले उसकी जाति देखो,धर्म देखो. फिर तय करो कि हुए अपराध के प्रति हमलावर होना है या अपराध करने वाले को ही पीड़ित सिद्ध करने के लिए पूरा ज़ोर लगा देना है. इसी प्रवृत्ति का कमाल है कि कतिपय लोग सरकार से बकायदा मांग करने लगे कि छोटा राजन के माफिया होने को नहीं बल्कि उसके धर्म को देखते हुए,उसके साथ नरमी से पेश आया जाये !
बचपन से स्कूली किताबों में पढ़ी मैथिलीशरण गुप्त की ये पंक्तियाँ दिमाग में अटकी रही कि “ अन्याय सह कर बैठे रहना यह महा दुष्कर्म है
न्यायार्थ अपने बंधु को भी दंड देना धर्म है”
पर प्रसाद बाबू तो कह रहे हैं कि बंधु यदि सजातीय हो तो उसके अपराध को भी उसका निर्दोषपना सिद्ध करना ही सच्चा धर्म है !
वैसे प्रसाद बाबू के इस कारनामे से एक किस्सा याद आया. बहुत साल पहले उत्तराखंड पुलिस के एक अधिकारी ने यह किस्सा सुनाया था. जिन पुलिस अधिकारी ने यह किस्सा सुनाया वे बेहद काबिल पुलिस अधिकारी हैं बल्कि पुलिस वाला काफी हद तक वैसा ही होना चाहिए,यह कहना भी अतिशयोक्ति न होगा. उन पुलिस अधिकारी ने बताया कि पुलिस में सब इंस्पेक्टर भर्ती हो कर,पहली पोस्टिंग में वे प्रसाद बाबू के कुनबे के वर्चस्व वाले इलाके शाहजहाँपुर भेजे गए. वो जमाना था जब प्रसाद बाबू के पिता की तूती बोलती थी. उन पुलिस अधिकारी ने बताया क्यूँकि प्रसाद बाबू के पिता की तूती बोलती थी तो उनके चचा की भी तूती खुद-ब-खुद बोलती थी. पुलिस के उन अधिकारी के अनुसार यह अलिखित नियम था कि हर नए दारोगा को चचा साहब को सलाम करने जाना होगा. हमारे किस्से के तब के युवा सब इंस्पेक्टर थोड़ा अक्खड़ मिजाज थे. अपने उच्च अफसरों द्वारा अलिखित नियम के पालन का दबाव डालने पर वे अड़ गए कि नियम लिखित में होगा तभी सलाम करने जाएँगे. ऐसे बात बनती न देख,दूसरा पैंतरा आजमाया गया. हर हफ्ते उसी इलाके में वे एक थाने से दूसरे थाने ट्रांस्फर किए जाने लगे. ये जनाब तब भी चचा साहब के हुज़ूर में पेश न हुए तो तंग आकर उनको उत्तरकाशी भेज दिया गया. पहाड़ उस जमाने में उत्तर प्रदेश में पनिशमेंट पोस्टिंग की जगह समझा जाता था. अतः यह एक तरह से उस युवा सब इंस्पेक्टर को सलाम न करने की सजा थी कि नहीं करता सलाम तो ले भुगत !
जिनके कुनबे में पुलिस वालों को अपने दरबार में सलामी ठुकवाने की रिवायत रही हो,आज उनका रौब-दाब और भौकाल पराभव की ओर है. शायद इसी लिए वे व्यग्र हैं कि जाति का यह कार्ड (जिसमें अपराधी के अपराध से पहले उसकी जाति पर ज़ोर है) खेल कर ही सही, क्या पता सलामी का पुराना दौर लौट आए ! इंका पुराना-सुहाना जमाना लौटे-न-लौटे पर अपराध की गंभीरता के बजाय अपराधी की जाति को तरजीह देने का नजरिया,समाज को अपराधियों के चंगुल में ही फंसाएगा.
-इन्द्रेश मैखुरी
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