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अंब्रेला एक्ट बने या रेनकोट एक्ट पर प्रशासकीय समझ भी तो बने !





उत्तराखंड सरकार ने 29 जुलाई को कैबिनेट में जो निर्णय लिए गए,वैसे तो उन सभी पर टिप्पणी की दरकार है. देखते हैं,ऐसा हो पाता है या नहीं.


फिलहाल उच्च शिक्षा के मामले में मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र रावत के मंत्रिमंडल ने जो फैसले लिए हैं,उन्हें देखते हैं.



प्रतीकात्मक चित्र 



विश्वविद्यालय के कुलपतियों की सेवानिवृत्ति की उम्र 70 साल कर दी गयी है. राज्य में कर्मचारियों को तो 50 वर्ष में रिटायर करने की तैयारी चल रही है. और कुलपति 70 साल तक रहेंगे. कर्मचारियों को 50 साल में रिटायर करने के लिए उनके प्रदर्शन की आड़ ली जा रही है. पर क्या विश्वविद्यालयों के सर्वोच्च पद पर किसी प्रदर्शन की आवश्यकता नहीं होगी ? 70 साल के वृद्ध व्यक्ति से किसी प्रदर्शन की अपेक्षा करना ही अतिशयोक्ति होगी !



कई दिन से अंब्रेला एक्ट” शब्द की जुगाली चल रही है. भाजपा सरकार की यह विशेषता है कि जमीन पर काम तो कम होता है पर जुमलों की जुगाली खूब चलती है. अंब्रेला एक्ट”, जुमलों की जुगाली का एक और उदाहरण है. तर्क यह दिया जा रहा है कि प्रदेश के सभी विश्वविद्यालयों का एक ही एक्ट बनेगा. यह तर्क सुनने में जितना भी आकर्षक लगे,लेकिन यह विश्वविद्यालयों को लेकर आधारभूत नासमझी से उपजा हुआ तर्क है. विश्वविद्यालय कोई सरकारी विभाग नहीं है कि कृषि और बागवानी विभाग को एक करने से जैसी लफ्फाजी, उस पर लागू होगी. विश्वविद्यालय स्वायत्त संस्थान होता है. स्वायत्तता उसकी मूलभूत विशेषताओं में से एक है. किसी विश्वविद्यालय की स्थापना खास समय में होती है. वह अपनी जरूरतों को पूरा कर पाये,इसके लिए ही हर विश्वविद्यालय की स्थितियों के अनुसार उसका एक्ट बनता है,जिससे वह संचालित होता है. एक्ट एक मोटा खाका है. विस्तृत रूप से नियम और दिशा निर्देशों के लिए विश्वविद्यालय परिनियमावली बनाते हैं.



विश्वविद्यालय की समान और भिन्न परिस्थितियों में कैसे समान और अलग-अलग एक्ट बने हैं,इसको कुछ उदाहरणों से समझते हैं. दिल्ली में जितने विश्वविद्यालय हैं,सबका अपना अलग-अलग एक्ट है क्यूंकि सब की अलग-अलग स्थितियाँ और उद्देश्य हैं. 1973 में जब गढ़वाल और कुमाऊँ विश्वविद्यालय की स्थापना हुई तो दोनों का एक ही एक्ट बना. 2009 में जो 15 केन्द्रीय विश्वविद्यालय बने(जिनमें गढ़वाल विश्वविद्यालय भी शामिल है) उनका एक एक्ट है. लेकिन केंद्रीय विश्वविद्यालय होने के बावजूद अन्य केन्द्रीय विश्वविद्यालयों से यह एक्ट अलग है.



उत्तराखंड में अभी जितने राज्य विश्वविद्यालय हैं,उनमें से हर एक विशेष परिस्थिति और उद्देश्य की उपज है,ढांचा भी सबका अलग-अलग है. तो सबको एक एक्ट से हाँकने की व्यर्थ की कवायद क्यूँ ? दून विश्वविद्यालय और कुमाऊँ विश्वविद्यालय में एक ही समानता है कि दोनों की नाम में विश्वविद्यालय है. बाकी तो दोनों की स्थापना,उद्देश्य और कामकाज में कोई मेल नहीं है. गोविंद बल्लभ पंत कृषि विश्वविद्यालय,पंतनगर और श्रीदेव सुमन विश्वविद्यालय, बादशाहीथौल में क्या समानता है कि उनको चलाने के लिए एक ही एक्ट चाहिए ?



 एक अधिनियम या सरकारी जुमले के अनुसार अंब्रेला एक्ट” न होने से विश्वविद्यालयों के संचालन में दिक्कत पेश आ रही है,ऐसा कहना सरकार की प्रशासकीय नाकामी की अभिव्यक्ति है,जिससे वह एक्ट की आड़ ले कर बचना चाहती है.


अखबारों ने एक अधिनियम के संदर्भ में लिखा है कि एक एक्ट आने से सरकार के हाथ मजबूत होंगे. विश्वविद्यालयों को चूंकि बजट तो राज्य सरकार ही देती है तो सरकार के हाथ अब तक कमजोर कैसे थे? अखबारों के अनुसार अभी तक सरकार को अपनी शक्तियाँ राजभवन के साथ साझा करनी पड़ती थी. अगर भाजपा सरकार की यही समझदारी है तो इस समझदारी पर आप सिर ही पीट सकते हैं. संवैधानिक रूप से राज्यपाल स्वतंत्र तौर पर फैसला नहीं ले सकते बल्कि वे मंत्रिमंडल की सलाह पर ही निर्णय लेते हैं. विश्वविद्यालयों के मामले में भी ऐसा होता रहा है.


  चूंकि प्रशासकीय व्यवस्था की समझदारी कमजोर है,इसलिए संविधान प्रदत्त अपरोक्ष शक्तियों में शक्ति नहीं कमजोरी और “शक्तियों का बंटवारा” नजर आता है. इस संदर्भ में दो किस्से बड़े रोचक हैं.


एक समय, चतुर प्रवीण राज्यपाल ने बिना मुख्यमंत्री को बताए अपने चहेते कुलपति की नियुक्ति कर दी. मुख्यमंत्री ने आपत्ति की तो राज्यपाल ने उन्हें एक्ट का हवाला दिया. जबकि कुलपति की नियुक्ति की पूरी प्रक्रिया में सरकार और प्रशासनिक मशीनरी को बाईपास किया ही नहीं जा सकता. बस तब से यह रटंत कि राजभवन के साथ “शक्तियों का बंटवारा” नहीं करना. जबकि उक्त राज्यपाल ने गद्दीनशीन की कमजोर प्रशासकीय समझ का फायदा उठाया था.



दूसरा किस्सा, इससे विपरीत और रोचक है.  प्रदेश में नया विश्वविद्यालय बनाया जा रहा था. नए विश्वविद्यालय के कुलपति पद के लिए दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में प्रेजेंटेशन हुए. उच्च शिक्षा सचिव उस प्रेजेंटेशन के बाद दिल्ली से लौटे. मुख्यमंत्री ने उनसे पूछा-हो गया इंटरव्यू ? सचिव ने कहा-जी. सर ये तीन नाम हैं,आप जिस पर निशान लगा देंगे,उसे नियुक्त कर देंगे. मुख्यमंत्री ने कहा-इस लिस्ट को रखो किनारे. मधुवन में इंटरव्यू अरेंज करो. डॉ. फलाने हैं उनको बुलाओ,उनका होना है. डॉ.फलाने इंटरव्यू में बुलाये गए और कुलपति बनाए गए. किसी राज्यपाल ने उक्त मुख्यमंत्री से नहीं कहा कि कुलपति नियुक्त करना तो मेरा(राज्यपाल का) अधिकार है !




शक्ति सिर्फ एक्ट में नहीं होती,एक्ट की समझ में भी होती है. वह न होगी तो अंब्रेला एक्ट बनाओ या रेनकोट एक्ट बनाओ,नतीजा वही ढाक के तीन पात ही रहना है !


-इन्द्रेश मैखुरी

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