उत्तराखंड उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ ने संविदा पर
नौकरी करने वाली महिला कर्मचारियों के पक्ष में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है. मुख्य
न्यायाधीश रमेश रंगनाथन,न्यायमूर्ति
सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति आलोक कुमार वर्मा की पूर्ण पीठ ने अपने फैसले में कहा
कि संविदा पर कार्यरत महिला कर्मचारी भी चाइल्ड केयर लीव(सी.सी.एल) यानि बच्चों के
पालन हेतु अवकाश की हकदार होंगी. संविदा कर्मियों को सी.सी.एल देने की प्रक्रिया भी
उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में स्पष्ट की है. उच्च नयायालय ने 14 जुलाई
को फैसला सुरक्षित रख लिया था,जिसे 24 जुलाई को सुनाया गया.
एक आयुर्वेदिक डॉक्टर श्रीमति तनुजा टोलिया
स्वास्थ्य विभाग में 2009 से आयुर्वेदिक डॉक्टर के तौर पर संविदा पर तैनात
हैं. 2017 में उन्होंने मातृत्व अवकाश हेतु आवेदन किया,तो स्वास्थ्य विभाग ने 08 अप्रैल 2017 से 04 अक्टूबर 2017 तक मातृत्व अवकाश
स्वीकृत किया. इस अवकाश की अवधि के उपरांत उन्होंने सी.सी.एल.
के लिए आवेदन किया. लेकिन स्वास्थ्य विभाग ने उन्हें सी.सी.एल पर जाने की अनुमति
नहीं दी. श्रीमति तनुजा टोलिया ने अधिकारियों के सामने दलील रखी कि उत्तराखंड उच्च
न्यायालय की एक खंडपीठ, डॉ शांति मेहरा बनाम उत्तराखंड सरकार
के मामले में फैसला दे चुकी है कि संविदा कर्मचारी भी 730 दिन के सी.सी.एल. अवकाश की
हकदार है. परंतु उनका तर्क नहीं सुना गया. निदेशक,आयुर्वेदिक
एवं यूनानी सेवाओं ने उनके आवेदन को खारिज करते हुए लिखा कि सी.सी.एल.
के केवल नियमित कर्मचारियों को ही दिया जा सकता है. इस आदेश के विरुद्ध डॉ.तनुजा
टोलिया ने उच्च न्यायालय में याचिका दाखिल की.
जब यह मामला उच्च
न्यायालय की खंडपीठ के सामने आया तो उक्त खंडपीठ ने लिखा कि उच्च न्यायालय की पूर्ववर्ती
खंडपीठ द्वारा दिये फैसले से सहमत होना,उनके लिए मुश्किल है
क्यूंकि जिस संविदा कर्मचारी की नियुक्ति एक वर्ष के लिए है,उसे
730 दिन यानि दो वर्ष के लिए सी.सी.एल. कैसे दिया जा सकता है ? खंडपीठ ने इस मामले के विविध पहलुओं का परीक्षण करने के लिए मुख्य न्यायाधीश
से पूर्ण पीठ के सामने इस मामले को भेजने का आग्रह किया. तत्पश्चात इस मामले की सुनवाई
के लिए मुख्य न्यायाधीश ने ऊपर वर्णित न्यायाधीशों वाली पूर्ण पीठ का गठन किया.
अपने 24 पृष्ठों के फैसले में पूर्ण पीठ ने कहा कि सी.सी.एल
सिर्फ महिला कर्मचारी के अधिकारों का मामला नहीं है बल्कि वह बच्चे के अधिकारों का
मामला भी है. अदालत ने लिखा कि बच्चा ही है,जिसे देखरेख की आवश्यकता
है.
सी.सी.एल महिला के अधिकारों
को मान्यता नहीं बल्कि बच्चे के अधिकारों को मान्यता देना है. इस मामले में बच्चों
के अधिकारों संबंधी संयुक्त राष्ट्र की संधियों का उल्लेख भी पूर्ण पीठ ने किया और
कहा कि भारत इन संधियों के हस्ताक्षरकर्ताओं में शामिल है.
अदालत ने अपने फैसले में लिखा है, सी.सी.एल मूलतः बच्चे के हित के लिए होता है. अदालत ने
यह भी कहा कि जिसकी माँ सरकारी नौकरी में संविदा पर तैनात है,उसकी जरूरतें भी अन्य बच्चों जैसे ही हैं. सरकारी संविदा कर्मी को सी.सी.एल
देने से इंकार करना बच्चे के अधिकारों को नकारना
है. यह संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 के तहत बच्चे को प्राप्त अधिकारों का नकार है.
अदालत ने यह माना कि एक साल के लिए तैनात संविदा कर्मी
को 730 दिन का सी.सी.एल दिया जाना संभव नहीं है. इसलिए
अदालत ने आदेश दिया कि नियमित कर्मचारी को मिलने वाले उपार्जित अवकाश की तर्ज पर संविदा
कर्मियों को सी.सी.एल. दिया जाये. एक वर्ष में नियमित कर्मचारी को मिलने वाले उपार्जित
अवकाश की तरह ही संविदा कर्मचारी को वर्ष भर में वेतन सहित 31 दिन का सी.सी.एल देने
का आदेश पूर्ण पीठ ने दिया.
इस आदेश के जरिये संविदा कर्मचारियों को सीमित स्तर पर
ही सही सी.सी.एल मिलने का रास्ता तो खुलेगा.
हालांकि जिस पैमाने पर पूर्ण पीठ ने सी.सी.एल को बच्चे के अधिकारों से जोड़ते हुए उसकी व्याख्या
की थी,उसकी तुलना में सी.सी.एल के रूप में दिया गया अवकाश काफी कम है. परंतु फिर
भी कुछ नहीं से कुछ भला ! असल सवाल लेकिन यही है कि सरकार के लिए समान काम करने के
बावजूद संविदा,आउटसोर्सिंग,दैनिक वेतन जैसी
श्रेणियाँ क्यूँ हैं,जो कार्मिक को उसके जायज अधिकारों से वंचित
कर रही हैं. स्थायी एवं नियमित नियुक्ति हो तो इस तरह के मुकदमें की जरूरत ही क्यूँ
पड़े ?
-इन्द्रेश मैखुरी
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