जो सामान्य धार्मिक मनुष्य होता है,वह ईश्वर से क्या चाहता है ? वह चाहता है,उसके जीवन में सुख-शांति हो,बेटे की नौकरी लगे,बेटी का अच्छे घर में ब्याह हो जाये.(जी,हाँ ! बेटे-बेटी
के लिए कामनाओं का बंटवारा ऐसा ही है.)
लोग सरकार चुनते हैं और सरकार से क्या चाहते हैं,थोड़ा जोड़-घटाव के साथ कमोबेश ऐसा ही कुछ. यानि थोड़ा बहुत आगे-पीछे करते हुए
आम आदमी की सरकार से भी ज़िंदगी में बहुत छोटी-छोटी चीजें चाहते हैं. अब सरकार भी मंदिर
में जा बैठे तो सरकार का क्या करें ? तब मंदिर ही ले लें ! शिक्षा,स्वास्थ्य,रोजगार, सड़क,बिजली,पानी के लिए सरकार होती है. उसका दायित्व यही है.
इसी लिए चुनी जाती है-सरकार.
जो धार्मिक लोग हैं, साधारण भाषा
में, वो ऐसे समझें कि मन्नत मांगने के लिए मंदिर है और मांग करने
के लिए सरकार. लेकिन सरकार भी इसी बात पर ज़ोर दे कि आपके लिए वह मन्नत स्थल का बंदोबस्त
कर रही है तो फिर इसके क्या मायने हैं ? इसके मायने ये हैं कि
जिन कामों के लिए सरकार चुनी गयी है,वो काम या तो उसके बूते के
बाहर हैं या वह करना नहीं चाहती !
इसलिए वह लोगों को परोक्ष रूप से कह रही है कि जीवन में
भगवान की कृपा से कुछ मिल जाये,सो मिल जाये,लेकिन हमसे कुछ आस न रखिए,बस राम भजिए ! मंदिर की जगह
पर मंदिर के साथ ही सरकार की जगह पर भी वह मंदिर ही स्थापित कर देना चाहती है. मांग
का मामला हो तो मंदिर,सत्ता का भोग करना हो तो हुक्मरां !
देश की हालत देखिये.
बैंकों का निजीकरण होने जा रहा है. अभी केंद्र सरकार के पास बारह राष्ट्रीयकृत बैंक
हैं. पिछले साल दस बैंको का आपस में विलय किया गया था. अब सरकार चाहती
है कि कुल राष्ट्रीय बैंकों की संख्या घटा कर चार-पाँच कर दी जाये. इसी तरह रेलवे के
भी निजीकरण की प्रक्रिया चल रही है. 109 जोड़ा रूटों पर 151 ट्रेनों के निजीकरण की प्रक्रिया
शुरु कर दी गयी है. जाहिर सी बात है कि निजीकरण की इस प्रक्रिया में बड़े पैमाने पर
नौकरियां खत्म होंगी. नौकरियों के बारे में तो यह आंकड़ा सार्वजनिक हो ही चुका है कि
पैंतालीस साल में सर्वाधिक बेरोजगारी है,इस समय. रही-सही कसर
कोरोना ने पूरी कर दी.
तो होना क्या चाहिए ? बैंक और रेलवे
सरकार को संचालित करना चाहिए. मंदिर-मस्जिद के मामले धर्म वाले देखें. लेकिन हो इसका
ठीक उलट रहा है. अभी जो सरकार है,वो चाहती है कि ट्रेन,बैंक,शिक्षा,रोजगार,अस्पताल जो हो,जैसा
हो,वो निजी क्षेत्र वाले देख लें. किसी को मिले तो मिले,न मिले तो न मिले ! पर मंदिर, बनाने की श्रेय हमको(सरकार
को) मिले ! ट्रेन,बैंक,शिक्षा,रोजगार सब प्राइवेट और मंदिर सरकारी
!
पूरी दुनिया इस समय कोरोना महामारी से जूझ रही है. संक्रमण
के मामले में भारत दुनिया के अव्वल तीन देशों में हैं. दुनिया भर
में एक दिन में किसी देश में सर्वाधिक संक्रमित लोगों के सामने आने का रिकॉर्ड चढ़ रहा
है,भारत के नाम. संक्रमितों की संख्या बीस लाख पहुँचने को है और उनचालीस हजार
से अधिक मौतें हो चुकी हैं.केंद्र सरकार के दो मंत्रियों( जिसमें प्रधानमंत्री के बाद
सर्वाधिक ताकतवर मंत्री भी हैं) समेत राज्यों के राज्यपाल ,मुख्यमंत्री
संक्रमित हैं. उत्तर प्रदेश में एक मंत्री की मौत हुई है,अभी
दो दिन पहले कोरोना से. लेकिन तब भी देश से कहा जा रहा है कि वो दीवाली मनाए. कोरोना
में जीवन के अलावा, एक हिस्सा अपना सब कुछ गंवा कर बैठा हुआ है.
उससे कहा जा रहा है कि वह दीवाली मनाए क्यूंकि मंदिर की बुनियाद रखी जा रही है ? जब वह लुट-पिट रहा था,यही सरकार नदारद थी,जो चाहती है कि सरकार की राजनीतिक धारा की मजबूती के लिए वह भी दिया जलाए
!
शिलान्यास में शामिल प्रधानमंत्री से लेकर अन्य राजनीतिक
आमंत्रितों के चेहरे देखिये. ये देश में धार्मिक राजनीति के प्रतिनिधि चेहरे हैं. यह
मंदिर का शिलान्यास नहीं,शिलान्यास की राजनीति है,जिसके जरिये इस देश में धार्मिक राजनीति को और मजबूत करने की कोशिश है.
एक सवाल आस्थावान लोगों से है. क्या किसी आराध्य देव या
सर्वशक्तिमान ईश्वर को मंदिर और उसकी भव्यता की आवश्यकता या चाह होती है ? बचपन से पढ़ाया जाता रहा कि :
कस्तूरी कुंडल बसे
मृग ढूंढे बन मांही
तैसे घट-घट राम हैं
दुनिया जाने नाहीं
क्या इसे आस्थावान लोग सच नहीं मानते ?यदि नहीं मानते तो फिर किसी देव के सर्वशक्तिमान/सर्वव्यापी
होने के दावे का क्या हुआ ?अगर सच मानते हैं तो फिर एक स्थल विशेष पर ज़ोर क्यूँ ? उसके लिए खून-खराबा,मुकदमे बाजी के बाद इस कोरोना काल
में इतना तामझाम क्यूँ ? राम लला को सिर पर छत चाहिए कि सत्ताधारियों को सत्ता की छत
का बंदोबस्त है ये ? राम लला विराजमान की आड़ में खुद गद्दी पर विराजमान
रहने का रास्ता पक्का कर रहे हैं ?
मंदिरों की न देश में कमी है,न अयोध्या में. धर्मस्थलों से ही देश आगे बढ़ता तो उनकी इतनी प्रचुरता के साथ, हमको आगे बढ़ने से कौन रोक सकता था ? कितने ही भव्य-दिव्य
क्यूँ न हों,कोई देश धर्मस्थलों से देश आगे नहीं बढ़ता. देश को
आगे बढ़ाने के लिए जरूरी है,दूरदर्शी राजनीति,जो धर्म-जाति से ऊपर उठ कर सोच सके. धर्म का राजनीति में घालमेल या धर्म का
राजनीति पर वर्चस्व,किसी भी देश के लिए बहुत घातक मिश्रण है.
धर्म मठ-मंदिर में रहे और राजनीति संसद में. धर्म,संसद में चला आएगा और राजनीति मंदिर में महंतई करने लगे तो इस कॉकटेल की खुमारी
में सिर्फ “स्वाहा” का ही घोष होगा !
-इन्द्रेश मैखुरी
3 Comments
NICE POST
ReplyDeleteशुक्रिया
Deleteभैजी 👍
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