राहत इंदौरी का मंच पर शेर पढ़ने का अंदाज़ जितना
नाटकीय था,दुनिया
से उनकी विदाई भी उतनी ही चौंका देने वाली थी.कल 11 अगस्त की सुबह उन्होंने ट्विटर
और फेसबुक पर खुद ही कोरोना पॉज़िटिव होने और अस्पताल में भर्ती होने की सूचना
सार्वजनिक की और शाम होते-न-होते दुनिया से उनके विदा होने की ख़बर आ गयी. इस तरह
शायरी का एक बुलंद स्वर सहसा खामोश हो गया.
हम ऐसे दौर से गुजर रहे हैं,जब
प्रतिरोध की छोटी से छोटी आवाज़ को खामोश करने के लिए सत्ता प्रतिष्ठान पूरा ज़ोर
लगा रहा है. बहुत सारे बोलने वालों,सवाल पूछने वालों ने
इसी में भलाई समझी कि यदि बोलने और सवाल पूछने की आदत नहीं छोड़ सकते तो सवाल पूछने
की जगह में बदलाव कर लिया जाये ; बात वो कही जाये जो हुकूमत
को पसंद हो और सवाल हुकूमत से पूछने के बजाए हुकूमत के खिलाफ लोगों से पूछे जाएँ
! इससे आदत भी बनी रहेगी और जान भी !
जब “अभिव्यक्ति के खतरे” भयानक हो चले हों तो ऐसे
वक्त में कवि सम्मेलनों और मुशायरों के मंच से सत्ता विरोधी बुलंद स्वर का नाम था-
राहत इंदौरी. शायरी और लहजा ऐसा गोया
सत्ता की आँख में आँख डाल कर चुनौती दे रहे हों !
जिस समय सत्ता के शिखर पुरुष, ईश्वरीय अवतार से ऊपर का दर्जा पा रहे हों, जिन्हें
ईश्वरीय अवतार के रूप में समाज जानता है,वे सत्ता के शिखर
पुरुष के सामने बच्चे और शिखर पुरुष की
उंगली थामे चित्रित किए जा रहे हों,ऐसे समय पर हाथ ऊंचा उठाए,आंखें मूंदते,आंखें खोलते,स्वर को नाटकीय अंदाज में ऊपर चढ़ाते राहत
इंदौरी सामने आते हैं और शेर पढ़ते हैं :
"कहते थे सूरज बना के छोड़ेंगे
पसीने छूट गए दिया बनाने में
मैं उस शख्स को आदमी भी नहीं समझता
जिसे ज़माना लगा है खुदा बनाने में !"
राहत साहब कहते हैं :
“झूठों ने झूठों से कहा
सच बोलो
सरकारी फरमान हुआ है
सच बोलो
घर के अंदर झूठ की मंडी है
दरवाजे पर लिखा है
सच बोलो.”
क्या यह समझना मुश्किल है कि वह घर और वह “परिवार”
कौन सा है,जो इस देश में झूठ की मंडी सजाये बैठा है और आए
दिन उस झूठ को देश के कोने-कोने में स्थापित करने के काम में लगा हुआ है ?
इसी दौर में जुमलों की खेती है,जुमलों का कारोबार है,वतन में जो बात है,वो “मन की बात” से ज्यादा मनमानी की बात है ! मन के जुमलों और उनकी बात को
राहत साहब बखूबी पकड़ते हैं :
“झूठ से, सच से, जिससे भी यारी रखें
आप तो
अपनी तक़रीर जारी रखें
बात मन
की कहें या वतन की कहें
झूठ जब
भी बोलें आवाज़ भारी रखें
आपके पास
चोरों की फेहरिस्त है
सब पे
दस्त-ए-करम बारी-बारी रखें
सैर के
वास्ते और भी मुल्क़ हैं
रोज़
तैयार अपनी सवारी रखें
वो
मुकम्मल भी हो ये ज़रूरी नहीं
योजनाएं
मगर ढ़ेर सारी रखें.”
मुल्क और उसकी हुकूमत को ऐसे पेश किया जा
रहा हो कि वह कुछ लोगों की मिल्कियत हो गयी है. मुख़्तलिफ़ राय रखने वालों को तत्काल ही देश द्रोही और पाकिस्तान
जाने के फतवे जब निरंतर जारी किए जा रहे हों तो बीते कुछ वर्षों से इन फतवों के
मुक़ाबले में राहत साहब की यह शायराना ललकार निरंतर गूंज रही है :
“जो आज साहिबे मसनद हैं
कल नहीं होंगे
किराएदार हैं, ज़ाती मकान थोड़े है
सभी का खून है शामिल यहाँ की मिट्टी
में
किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़े है.”
यह शायराना ललकार ही है जिसके चलते दुनिया से रुख़सत होने के बाद भी राहत साहब के खिलाफ जम कर ज़हर उगला जा रहा है.
निश्चित ही किसी व्यक्ति के गुजर जाने के बाद उसके खिलाफ इस तरह का जहर उगलना चरम अमानुषपना
है.हालांकि जो ज़हर उगल रहे हैं,उनके पास और कुछ नहीं है,उगलने के लिए, लेकिन यह शायरी की ताकत को भी तो प्रकट
करता है. अगर कागज़ पर लिखे और मंच से पढे गए शेरों से कोई फर्क नहीं पड़ता तो सत्तर
वर्षीय शायर के गुजर जाने के बाद भी, उसके खिलाफ एक हिस्सा ज़हर उलीचना क्यूँ जारी रखता ? ये अशरार ही हैं, जो दुनिया से रुख़सत होने के बाद ही राहत इंदौरी को इस दुनिया में
क़ायम रखेंगे.
अलविदा राहत साहब !
-इन्द्रेश
मैखुरी
3 Comments
शानदार विवेचना
ReplyDeleteबहुत ही लाजवाब श्रद्धांजलि भाईसाहब
ReplyDeleteअलविदा 😢
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