आर्चिस मोहन द्वारा अंग्रेजी अखबार बिज़नेस स्टैंडर्ड में 14 नवंबर को प्रकाशित लेख का हिंदी अनुवाद :
देश के प्रमुख कम्युनिस्ट नेताओं में दीपांकर भट्टाचार्य
को सावधिक ज़मीनी नेता माना जाता है, जो अपने पार्टी दफ्तरों में रहते हैं, द्वंदात्मक भौतिकवाद
के बारे में अबूझ जुमलों में बोलने के बजाय जो अपना राजनीतिक मत सामान्य हिन्दी, अंग्रेजी या बांग्ला
में समझा सकते हैं. दीपांकर भट्टाचार्य भारत की कम्युनिस्ट पार्टी(मार्क्सवादी-लेनिनवादी)
लिब्रेशन, जिसे लोकप्रिय
तौर पर भाकपा(माले) या सिर्फ माले के नाम से जाना जाता है, के महासचिव या
प्रमुख हैं.
माले बिहार
में 19 सीटें पर चुनाव लड़ी,उनमें
से 12 जीती और तीन अन्य सीटें मामूली अंतर से हारी ; चुनाव लड़ने वाली
बड़ी पार्टियों में यह सबसे बेहतर स्ट्राइक रेट है. इस परिणाम के बाद
उनके और उनकी पार्टी के बारे में जानने की उत्सुकता बढ़ी है. जीत से भी अधिक माले ने
बिहार चुनाव का एजेंडा निर्धारित करने में योगदान दिया और राजनीतिक विमर्श को रोजगार
के मुद्दे पर केंद्रित कर दिया. पार्टी के कार्यकर्ताओं ने महागठबंधन के नेता तेजस्वी
यादव की सभाओं और सोशल मीडिया अभियान की सफलता में महत्वपूर्ण योगदान किया.
59 वर्षीय भट्टाचार्य वामपंथी पार्टियों के नेतृत्वकर्ताओं
में सबसे कम उम्र के हैं. बिहार में माले की सफलता ने देशभर में वामपंथियों को उस श्रेष्ठ
दौर की याद दिला दी जब वामपंथी पार्टियां- खास तौर पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी हिन्दी
पट्टी में एक महत्वपूर्ण चुनावी भूमिका में होती थी.
भट्टाचार्य 1998 में विनोद मिश्र ( कॉमरेड वीएम) की
मृत्यु के बाद 38 वर्ष की उम्र में अपनी पार्टी के प्रमुख चुने गए. वे अपनी युवा अवस्था
से ही पार्टी की तमाम जिला कमेटियों की बैठक में बैठा करते थे और उन्होंने युवा कार्यकर्ताओं
की एक पूरी पीढ़ी को ऐसा करने के लिए तैयार किया. इसके कारण माले विश्वविद्यालय परिसर
में ऐसे दौर में भी बढ़ रही है,जब अन्य कम्युनिस्ट पार्टियां युवाओं
और प्रतिभाशाली लोगों को आकर्षित करने के लिए जूझ रही हैं. वर्तमान
में पार्टी की 75 सदस्यीय केन्द्रीय कमेटी में तकरीबन आधा दर्जन सदस्य 30 वर्ष से कम
उम्र के हैं और 15 सदस्य 40 वर्ष से कम उम्र के हैं. 1992 में अंडरग्राउंड पार्टी से
खुली पार्टी में तब्दील होने के बाद कॉमरेड दीपांकर की अगुवाई में ही पार्टी ने जन
आंदोलनों पर अपना ध्यान केंद्रित किया.
शैक्षणिक दस्तावेजों के अनुसार भट्टाचार्य 5 जनवरी 1961
को पैदा हुआ थे. वे दरअसल दिसंबर 1960 में पैदा हुए थे पर उनके परिवार में किसी को
सही तारीख याद ही नहीं रही. उनके पिता भारतीय रेलवे में टिकट क्लर्क थे.
उनके सहयोगी बताते हैं कि उनके परिवार में कोई भी वामपंथी
राजनीति से जुड़ा हुआ नहीं था. युवा दीपांकर के लिए उनके पिता प्रगतिशील साहित्य लेकर
आते थे. बाद में कोलकाता के भारतीय सांख्यकी संस्थान से एम.स्टैट (सांख्यकी में स्नातकोत्तर) करने के बाद जब वे माले में शामिल हो
गए तो एक बार उनके पिता ने उनसे मज़ाक में कहा कि वे उनको ऐसा साहित्य नहीं उपलब्ध कराते
यदि उनको पता होता कि बेटा कम्युनिस्ट पार्टी में चला जाएगा.
अपनी किशोरावस्था में वे कोलकाता के रामकृष्ण मिशन विद्यालय
में भर्ती हुए. उच्चतर माध्यमिक की बोर्ड परीक्षा में वे राज्य के टॉपर थे.
फ़िल्मकार जॉयदीप घोष याद करते हैं, “हम छठी या सातवीं कक्षा में पढ़ते थे,जब एक दिन हमारे
शिक्षक अब्दुल गनी, हमारी कक्षा में भट्टाचार्य को लेकर आए और
कहा कि ये होशियार बच्चा है. अपने अड्डों को पसंद करने वाले हम में से बहुतेरों के विपरीत,वे अंतरमुखी और पढ़ाकू
किस्म के थे. हम समझते थे कि वे एक दिन सर्वश्रेष्ठ सांख्यकीविद बनेंगे. एक दशक बाद
मुझे बड़ी हैरत हुए जब मुझे पता चला कि वे एक राजनीतिक कार्यकर्ता हैं.”
धारणा जो भी गढ़ने की कोशिश हो,लेकिन माले इस बात पर ज़ोर देता है कि जिसे उसका “हिंसक दौर” कहा जाता है,उस दौर में, बिहार में रणवीर सेना,सनलाइट सेना जैसी सामंती सेनाओं के हाथों,उसने ज्यादा
हिंसा झेली.
जिनके दिमाग में पुरानी स्मृतियां हैं,उन्हें राजद के साथ माले का गठबंधन असंगत प्रतीत हुआ. सीवान का पूर्व राजद
संसद मोहम्मद शहाबुद्दीन, जेएनयू के पूर्व छात्र संघ अध्यक्ष
चन्द्रशेखर समेत 15 माले कार्यकर्ताओं की हत्या के लिए आजीवन कारावास की सजा काट रहा
है. पार्टी के आंदोलन से बिहार को क्या हासिल हुआ, इसकी व्याख्या
करते हुए पार्टी की नेता कविता कृष्णन कहती हैं कि न केवल सामाजिक न्याय और आर्थिक
न्याय बल्कि बेहद गहरे पैठे सामंती ढांचे में हाशिये के लोगों को “खांसने की आज़ादी” तक संघर्ष के बूते
हासिल हुई.
भट्टाचार्य की अगुवाई और दूसरी पांत के नेताओं की बड़े जत्थे के साथ,पार्टी बिहार की चुनावी सफलता का उपयोग केंद्र की भारतीय जनता पार्टी की सरकार के खिलाफ जन आंदोलनों को तेज करने के लिए करने का इरादा रखती है. कविता कृष्णन कहती हैं “बिहार का परिणाम ने देश में वामपंथ का मर्सिया पढ़ने वालों को गलत सिद्ध किया है और इसने आंदोलन आधारित राजनीति की लोकप्रियता को भी रेखांकित किया है.”
अंग्रेजी से अनुवाद : इन्द्रेश मैखुरी
मूल अंग्रेजी लेख का लिंक :
3 Comments
प्रेरणादायक
ReplyDeleteशुक्रिया
ReplyDeleteवाह ! जिंदाबाद
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