दो दिन पहले उत्तराखंड के उधम सिंह नगर जिले से किसान
दिल्ली जाने को निकले. बाजपुर के दोराहा- यूपी बॉर्डर पर उन्हें रोकने के लिए बैरिकेड
लगाए गए और भारी पुलिस फोर्स जमा किया गया. लेकिन किसानों के तेवर के सामने भारी पुलिस
फोर्स और बैरिकेड टिक नहीं सके और बैरिकेडों को ध्वस्त करते हुए किसान दिल्ली की ओर
बढ़ चले. अब खबर आई है कि 1500 किसानों पर उक्त
मामले में मुकदमा दर्ज किया गया है !
कोई सरकार बहादुर से पूछे कि 1500 लोगों के खिलाफ
मुकदमा करने का अर्थ समझते हो ? प्रदेश के किस जिले में, कौन सी अदालत का
कमरा है,जिसमें
इतने लोगों को पुलिस, न्यायाधीश के सामने प्रस्तुत कर सकेगी
? कौन सी जेल है,जिसकी क्षमता इतने लोगों
को एक साथ रखने की है ? जिस कानून व्यवस्था बिगड़ने के नाम पर
इतनी बड़ी संख्या में लोगों के खिलाफ मुकदमा किया गया है,उन्हें
पकड़ कर अदालत में खड़ा करके ही क्या पुलिस अराजकता और अफरा-तफरी का माहौल नहीं पैदा
करेगी ?
लेकिन यह बाद का सवाल है. पहला सवाल उत्तराखंड के मुख्यमंत्री
त्रिवेंद्र रावत जी से यह है कि आपकी पुलिस इन किसानों को रोकने पर क्यूँ उतारू थी
? ये किसान त्रिवेंद्र रावत को घेरने तो जा नहीं रहे थे. घेरने जा भी रहे हों
तो शांतिपूर्ण किसी प्रदर्शन को क्यूँ रोका जाना चाहिए ? कोई
अराजकता भी नहीं फैला रहे थे. राज्य के बाहर, दिल्ली की सीमा
पर किसानों के संघर्ष में शामिल होने जा रहे थे. इन किसानों के साथ ज़ोर आज़मइश करके
और इन्हें रोक कर भी त्रिवेंद्र रावत जी आप एक महीने से ठप दिल्ली की सीमाओं को खुलवा
तो नहीं सकते थे ! प्रशासनिक समझदारी तो यह कहती है कि यदि लोग शांतिपूर्ण तरीके से
राज्य के बाहर किसी आंदोलन में शरीक होने जा रहे हों तो उन्हें जाने देना चाहिए.
इससे राज्य अपने पर आंदोलन के दबाव को कम करेगा. पर यही दीगर सवाल है
कि उस प्रशासनिक समझदारी का इस राज्य में कहीं अस्तित्व है भी ?
सरकार के पास प्रशासनिक बुद्धिमत्ता है कि नहीं,यह तो हमारा विषय नहीं है. लेकिन इस देश में अभी भी एक संविधान है. वह संविधान
देश में शांतिपूर्ण प्रदर्शन और देश के किसी भी हिस्से में आने-जाने की आज़ादी अपने
नागरिकों को देता है. देश का हिस्सा होने के चलते उत्तराखंड और उधमसिंह नगर भी उस संविधान
के दायरे में आता है,यह तो उत्तराखंड सरकार और उधमसिंह नगर जिले
के पुलिस और प्रशासन के आला अफसरों को जानकारी होगी ही ! फिर शांतिपूर्ण तरीके से दिल्ली
जा रहे इन किसानों के रास्ते में अवरोध खड़े करने का अख़्तियार उत्तराखंड सरकार और उधमसिंह
नगर जिले की पुलिस को किसने दिया ?
हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर ने पंजाब से दिल्ली की ओर
बढ़ रहे किसानों को रोकने के लिए राष्ट्रीय राजमार्ग खुदवा डाले. उधमसिंह नगर से दिल्ली
जाते किसानों को रोकने के लिए बैरिकेडिंग लगा कर त्रिवेंद्र रावत ने भी यही खट्टरपना
दोहराने की कोशिश की. पर वे भूल गए खट्टर को ऐसी खटर-पटर काफी भारी पड़ रही है. किसानों
ने उनका और उनके मंत्रियों का बाहर निकलना दूभर कर दिया. खट्टर भी मुकदमें से अधिक
कुछ नहीं कर पा रहे हैं ! भाजपा का “चाल,चरित्र और चेहरा” भी
गज़ब है. उत्तर प्रदेश में वह दंगा करने के आरोपी विधायकों के खिलाफ कायम मुकदमें भी
“जनहित” के नाम पर वापस लेना चाहती है और बाकी देश में शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने वालों
को भी मुकदमों में फंसाना चाहती है.
वैसे यह खट्टरपन अकेले त्रिवेंद्र
रावत जी पर ही हावी नहीं है. लगता यह उधमसिंह नगर का प्रशासन भी इस खट्टरपन की चपेट
में है. 14 दिसंबर को जब रुद्रपुर में प्रदर्शनकारी किसान कलेक्ट्रेट पहुंचे और उन्होंने
जिलाधिकारी को ज्ञापन देना चाहा तो अपने दफ्तर में मौजूद जिलाधिकारी रंजना ने ज्ञापन
लेने के लिए दफ्तर के बाहर आने की जहमत भी नहीं उठाई !
त्रिवेंद्र रावत हों या खट्टर उनकी वफादारी अपनी पार्टी और उसके सर्वोच्च नेता के प्रति होना एक बात है,लेकिन प्रशासन और पुलिस के अफसर भी कानून और संविधान के बजाय सत्तासीन राजनेताओं के फरमाबरदार होने को ही तवज्जो दें,यह विडंबना है !
खट्टर हों या त्रिवेंद्र रावत अथवा उनकी फरमाबरदारी में
कानून व्यवस्था का चूँ-चूँ का मुरब्बा बनाने पर उतारू प्रशासन
और पुलिस के अफसरों को भी समझ लेना चाहिए कि आप लोकतंत्र के मायने समझते हों,न समझते हों परंतु असल शक्ति जनता में ही निहित है और उस जनता के खिलाफ ताकतवर
से ताकतवर हुकूमत को भी मुंह की खानी पड़ती है.
-इन्द्रेश मैखुरी
1 Comments
संविधान की ऐसी तैसी दिल्ली जवाब भी तो देना है
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