बीते दिनों एक न्यूज़ चैनल द्वारा उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को देश का सबसे खराब मुख्यमंत्री बताए जाने के बाद मुख्यमंत्री के समर्थक और उनकी सोशल मीडिया वाहिनी के प्रत्यक्ष और परोक्ष सेनानियों ने इस सर्वे की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह खड़े करने के लिए काफी सारे तर्क और तथ्य प्रस्तुत किए. वैसे ऐसे सर्वे हमेशा सनसनी से अधिक कुछ भी पैदा नहीं करते,न उनसे कुछ हासिल होता है. मुख्यमंत्रियों वाले सर्वे को ही देख लें तो आप पाएंगे कि जिन्हें त्रिवेंद्र रावत से ऊपर रखा गया है,अपने राज्यों में उनकी छवि त्रिवेंद्र रावत जैसी ही होगी ! यानि सर्वे उन्हें भले ही त्रिवेंद्र रावत से बेहतर बताए पर इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ कर वे अपने-अपने राज्य के त्रिवेंद्र रावत ही हैं !
इसलिए असल मसला सर्वे में पीछे से या आगे से प्रथम आने
का नहीं है. असल मसला है कि जनता की जीवन स्थितियां कैसी हैं. और उस पैमाने पर देखेंगे
तो पाएंगे कि राज्य के सत्तासीनों का नंबर, बीते बीस वर्षों में
फिसड्डी श्रेणी में ही आएगा.
मुख्यमंत्री के फिसड्डी न होने के लिए तर्क गढ़ने वालों
को कल- 18 जनवरी 2021 के अखबार में छपी एक खबर पर नज़र डालनी चाहिए. खबर है कि अल्मोड़ा
के जिला अस्पताल में एक बच्ची को जन्म देने के बाद इलाज के अभाव में नव प्रसूता की
मृत्यु हो गयी. खबर के अनुसार बच्ची को जन्म देने के बाद नव प्रसूता का रक्तचाप अचानक
गिरने लगा. उसके बाद नव प्रसूता को हायर सेंटर रेफर कर दिया गया. हायर सेंटर रेफर किए
जाने पर परिजन,नव प्रसूता को हल्द्वानी के सुशीला तिवारी मेडिकल कॉलेज
ले गए,जहां पहुँचते-पहुँचते उसने दम तोड़ दिया.
और यह कोई अलग-थलग घटना या अपवाद नहीं है. बल्कि पहाड़
में इलाज के अभाव में और प्रसव के पश्चात होने वाली जटिलताओं के लिए इलाज न मिलने की
एक अनवरत शृंखला है. बीते साल में भी महीने-दर-महीने प्रसव के दौरान या प्रसव के पश्चात
युवतियों के असमय काल-कवलित होने की खबरें आती रही. नए साल में यह सिलसिला फिर शुरू
हो गया है.
पिछले वर्ष की ऐसी ही एक खबर का लिंक -
https://www.nukta-e-najar.com/2020/07/some-samples-of-extraordinary-development-blog-post.html
बीते वर्ष की ऐसी ही एक और खबर का लिंक –
https://www.nukta-e-najar.com/2020/07/some-samples-of-extraordinary-development-blog-post.html
स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले में कोई निजी चैनल नहीं बल्कि
सरकारी संस्थाएं भी उत्तराखंड के फिसड्डी होने पर मोहर लगाते रहे हैं. नीति
आयोग द्वारा जून 2019 में विश्व बैंक और केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण
मंत्रालय के साथ मिल कर एक रिपोर्ट जारी की गयी,जिसका नाम है. “हैल्दी
स्टेट्स,प्रोग्रेसिव
इंडिया”. नीति आयोग के इस हैल्थ इंडेक्स में उत्तराखंड उन
राज्यों में शामिल था जिन्हें “लीस्ट परफार्मिंग स्टेट” यानि न्यूनतम प्रदर्शनकारी राज्य कहा गया.
आयोग की रिपोर्ट में उत्तराखंड उन राज्यों में शामिल है,जिन्होंने स्वास्थ्य सुविधाओं के
क्षेत्र में कोई सुधार नहीं किया है. रिपोर्ट के अनुसार 2015-16 में उत्तराखंड
स्वस्थ्य सूचकांक में 21 राज्यों में 15 वें नंबर पर था और
2017-18 में दो स्थान नीचे 17वें स्थान पर आ गया.
2018 में उत्तराखंड सरकार के योजना विभाग और मानव विकास संस्थान,दिल्ली द्वारा जारी उत्तराखंड मानव
विकास रिपोर्ट कहती है कि उत्तराखंड में शिशु मृत्यु दर में बीते कई वर्षों में कोई
सुधार नहीं हुआ है. 2010 में शिशु मृत्यु दर प्रति 1000 पर 38 था और 2017 में भी इसमें
कोई सुधार नहीं हुआ.
उत्तराखंड सरकार की छवि सुधारने के लिए जितने जतन किए जा रहे हैं, उससे आधे भी स्वास्थ्य सुविधाओं
को बेहतर करने के लिए किए जाते तो शायद ये नव प्रसूताएं,इस तरह
असमय प्राण नहीं गँवाती और तब इनकी ज़िंदगी हुक्मरानों की काबिलियत की विज्ञापनों से
ज्यादा बड़ी गवाही होती. लेकिन जब जमीनी काम के बजाय ज़ोर विज्ञापनी छवि में अधिकाधिक
चमक पैदा करने पर हो तो लोगों की ज़िंदगी के
अंधियारे की परवाह कौन करेगा ?
-इन्द्रेश मैखुरी
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