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किसान आंदोलन का पड़ाव : सड़क पर संघर्ष की नगरी !

 

दिल्ली की अथाह शक्तिमान केंद्रीय हुकूमत इस समय किसान आंदोलन से हलकान है. तीन काले कृषि क़ानूनों के खिलाफ दिल्ली की सीमाओं पर किसानों ने डेरा जमाया हुआ है और छप्पन इंची मुखिया वाली बलशाली केंद्रीय हुकूमत,विष वमन, मिथ्या प्रचार से लेकर वार्ता और कोर्ट-कचहरी तक सब कर चुकी और कहीं उसे राहत नहीं मिल रही है. कड़कड़ाती शीत लहर,कोहरे और बारिश में खुले आसमान के नीचे किसान आंदोलनकारी हैं और कंपकंपी केंद्र सरकार की छूट रही है.






किसान आंदोलन के पड़ाव-सिंघू,टिकरी,गाजीपुर, न केवल किसान आंदोलनकारियों के प्रमुख स्थल हैं बल्कि देश भर में जनपक्षधर और जनांदोलनों से जुड़े लोग भी इन पड़ावों पर उपस्थिति को अपना जरूरी कर्तव्य समझ रहे हैं. बीते दिनों दिल्ली जाना हुआ. एक ही दिन का समय था. परंतु अन्य किसी काम से अधिक किसान आंदोलन के पड़ाव पर जाना जरूरी लगा. अखिल भारतीय किसान महासभा के राष्ट्रीय सचिव कॉमरेड पुरुषोत्तम शर्मा से चलने की बात हुई.भाकपा(माले) की केंद्रीय कमेटी के सदस्य कॉमरेड राजेंद्र प्रथोली से भी इस संदर्भ में चर्चा हुई. कॉमरेड पुरुषोत्तम शर्मा उसी दिन कोरोना के कारण अनिवार्य क्वारंटीन अवधि से मुक्त हुए थे और आंदोलन के पड़ाव पर चलने को तैयार थे.


भाकपा(माले) के केंद्रीय कार्यालय पहुँच कर वहाँ से पार्टी के पोलित ब्यूरो सदस्य कॉमरेड प्रभात कुमार और केंद्रीय कार्यालय सचिव कॉमरेड गिरिजा पाठक के साथ एक अन्य साथ,संयोगवश जिनका नाम भी गिरिजा पाठक है,उनकी गाड़ी में हम सिंघू बार्डर की तरफ चले. दिल्ली में चलते रहिए और जब आप को कूड़े के पहाड़ दिखने लगें तो समझिए कि आप सीमाओं के करीब हैं. “स्वच्छ भारत” के नारे के दौर में भी यही हकीकत है कि आप देश की राजधानी में प्रवेश करते हैं तो सबसे पहले कूड़े के पहाड़ स्वागत करते हैं. उन्हीं से अंदाज लगाना होता है कि राजधानी और देश में किस कदर कचरा व्यापा हुआ है !


बहरहाल, सीमेंट के ढांचे जो सामान्य समयों में सड़क किनारे की पैराफिट का काम करते, वे जब सैकड़ों की तादाद में कंटीले तारों के साथ दिखाई दें तो समझिए कि किसान आंदोलन का पड़ाव आ गया है.





 उसके अंदर प्रवेश कीजिये तो नजर आता है कि आंदोलनों का जो लोकप्रिय रूप और नारा है “घेरा डालो-डेरा डालो”,उसको वास्तविक अर्थों में इस किसान आंदोलन ने चरितार्थ कर दिया है. वे तीन काले कृषि क़ानूनों के विरुद्ध देश की राजधानी को घेरे हुए हैं और उसके लिए डेरा डालते हुए,उन्होंने तंबुओं से ही छोटा-मोटा नगर बसा लिया है. यह किसान आंदोलन के तेवर और ताकत का नगर है. सरकार द्वारा खोदी गयी सड़कों को पार करके,पुलिसिया लाठी-डंडों और पानी की बौछार को सीने पर झेल कर बसाया संघर्ष का नगर है.


और संघर्ष की इस नगरी में क्या नहीं है ! खाने-पीने के इंतजाम से लेकर कपड़े धुलाई और इलाज के बंदोबस्त तक सब है यहां.


विविध तरह के पकवानों के लंगर हैं,जहां मक्के की रोटी,सरसों का साग और उसके ऊपर घी का स्वाद लिया जा सकता है तो गाजर का हलवा,खीर से लेकर जलेबी तक के स्टाल हैं.लाल जलेबी से लेकर हरी जलेबी तक का स्वाद लिया जा सकता है. किसान आंदोलन का तेवर और सृजनात्मकता देखिये- मल्टीनेशनल ब्रांड- केएफ़सी के बोर्ड वाली बड़ी इमारत पर केएफ़सी का नया मतलब उन्होंने अंकित कर दिया है- किसान फूड कॉर्नर !




वे खाना बांट रहे हैं पर साफ-सफाई का ध्यान रखे हुए हैं. हाथ धोने के लिए अलग से इंतजाम हैं. जहां हाथ धोने के पानी का ड्रम है,उसके पीछे दिल्ली में पहले से मौजूद कचरे का ढेर है. ऐसे कचरे के ढेर यहाँ और भी देखे जा सकते हैं.




धर्म की सीमाओं को लांघते हुए मुस्लिमों द्वारा संचालित लंगर भी यहाँ देखा जा सकता है.  





लस्सी और दूध भी खूब है. हमारे सामने एक टैंकर चल रहा है,जिसमें से लंगर की जरूरत के लिए दूध ऐसे भरा जा रहा है,गोया पानी हो.





लेकिन सिर्फ खाने पीने पर ही ज़ोर नहीं है. संघर्ष का मोर्चा है तो किताबें भी खूब हैं. कई सारे अस्थायी पुस्तकालय यहां टेंटों में ही संचालित किए जा रहे हैं. इनमें आइसा के साथियों द्वारा संचालित भगत सिंह लाइब्रेरी भी है.




 

इस आंदोलन को खालिस्तानी,देशद्रोही,चीन-पाकिस्तान प्रायोजित और न जाने क्या-क्या कह कर लांछित करने का प्रयास भाजपा और उसके आईटी सेल ने किया. लेकिन इतने के बावजूद यह आंदोलन अब तक बेहद शांतिपूर्ण है. आप यहां घूमते हुए एक किताबों के स्टाल में बड़े से आकार का भारत का संविधान देख सकते हैं.




वहाँ घूम रही गाड़ियों में किसान संगठनों के झंडे के अलावा भारत के राष्ट्रीय ध्वज भी लहराते हुए देख सकते हैं.




 भगत सिंह के पोस्टर तो हर जगह ही नजर आते हैं.





 फिर भी इस आंदोलन से हलकान सत्ताधारी पार्टी को यह आंदोलन देश के विरुद्ध नजर आता है तो यह उनका दृष्टि दोष है.


 सत्ताधारी पार्टी की समझ और उसके द्वारा अपने अलावा सबको नासमझ करार देने पर तीखा तंज़ करने वाले पोस्टर वहाँ लगे हैं.




देश के सार्वजनिक संसाधनों को पूँजीपतियों को बेचने पर भी तीखा तंज़ करने वाले पोस्टर वहाँ हैं.





भारतीय मीडिया और खास तौर पर जिसे गोदी मीडिया कहा जा रहा है,उस पर भी पोस्टर प्रहार देखा जा सकता है.





उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बयान दिया कि किसान खेत में ही अच्छे लगते हैं. इस बयान का जवाब देता पोस्टर यहां चस्पा है कि किसान अगर सड़क पर आ जाएँ तो यह सरकार की सबसे बड़ी नाकामी है.




“नो फार्मर-नो फूड”(किसान नहीं तो भोजन नहीं) का नारा तो यहाँ हर तरफ देखा जा सकता है. 





कपड़े धोने के लिए लगी वॉशिंग मशीनों पर भी यह स्टिकर चस्पा है. यह स्टिकर वहाँ आंदोलन से पहले से मौजूद खोमचों पर भी चस्पा हो गया है.  यह दर्शाता है कि वे कुछ भी कर रहे हों,लेकिन आंदोलन के लक्ष्य यानि खेती और किसान बचाने पर उनका ध्यान हर वक्त है.





 निरंतर सभाओं और जुलूसों का सिलसिला भी चल रहा है.




स्थानीय मदद के चिन्ह भी वहाँ देखे जा सकते हैं. एक पोस्टर लगा है जो नहाने के पानी की उचित व्यवस्था का भरोसा दिला रहा है.

कई सारे दवाइयों के स्टॉल और मेडिकल कैंप यहां हैं. 


इनमें एक्टू द्वारा संचालित मेडिकल कैंप भी है.




जहां दवाइयों के अतिरिक्त ब्लड प्रैशर,शुगर आदि नापने की व्यवस्था भी है.

एक आपातकालीन अस्पताल है. देश के दूर-दराज के इलाकों में लोग बरसों इलाज की सुविधा से वंचित रहते हैं और सरकार से अस्पतालदवाइयों और डाक्टरों  की मांग करते रहते हैं. लेकिन कोई नहीं सुनता. 





और यहाँ किसान आंदोलन के समर्थकों को देखिये कि उन्होंने तंबू में आपातकालीन अस्पताल तक चालू कर दिया है !




किसान परेड के लिए घोड़ों और घुड़सवारों की परेड भी यहाँ चल रही है.

इस बार्डर पर पहुँचते हुए दिखता है कि बैरिकेड पर सिर्फ दिल्ली पुलिस की तैनाती नहीं है. सीमा सुरक्षा बल( बीएसएफ़) और भारत तिब्बत सीमा पुलिस(आईटीबीपी) भी यहाँ तैनात है.





 ये दोनों ही देश की सीमाओं पर तैनात किए जाने वाले बल हैं. ऐसा लगता है कि मोदी सरकार ने किसानों के पड़ाव को ही असली बार्डर समझ लिया है ! इसलिए बार्डर पर नियुक्त किए जाने वाले अर्द्धसैनिक बलों को वहाँ तैनात कर दिया है ! अपने देश के किसानों से लड़ने के लिए दुश्मन मुल्कों से लड़ने वाली फोर्स तैनात करने वाली सरकार और जो कुछ भी हो, जन हितैषी तो नहीं हो सकती.





पर किसानों के हौसले और जज्बे पर इसका लेश मात्र भी प्रभाव नहीं है. किसानों को रोकने के लिए खड़े किए गए बैरिकेडों को इकट्ठा कर, उनका,किसानों ने अपने घोड़ों के लिए अस्तबल बना दिया है.

बहुमत के मद में चूर,जनविरोधी सत्ता से टकराने के लिए यही ऊर्जा,यही जज्बा और यही हौसला चाहिए.  



-इन्द्रेश मैखुरी

 

 

 

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