बीते कुछ दिनों से उत्तराखंड में सारी चर्चा सत्ता परिवर्तन
के इर्दगिर्द है. चर्चा होनी भी चाहिए. भारतीय जनता पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व से
यह सवाल तो पूछा ही जाना चाहिए कि चार साल तक उसने एक ऐसा व्यक्ति उत्तराखंड पर क्यूं
थोप कर रखा जो जनता से तो छोड़िए अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगियों और विधायकों से तक सीधे
मुंह बात नहीं करता था ? सवाल यह भी है कि उत्तराखंड की विधानसभा
में प्रचंड बहुमत देने के बावजूद,विधायकों में से कोई मुख्यमंत्री
बनाए जाने लायक क्यूं नहीं पाया जा सका ? विधानसभा के उपचुनाव
के साथ उत्तराखंड की जनता पर जो लोकसभा का उपचुनाव थोपा गया है,उसकी ज़िम्मेदारी किसकी है- भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व की या फिर उन विधायकों
की,जिनकी भारी तादाद में से कोई मुख्यमंत्री की कुर्सी के लायक
नहीं पाया गया ?
लेकिन मुख्यमंत्री अदला-बदली और मंत्रिमंडल गठन के बीच
जो बातें उत्तराखंड में चर्चा का विषय बनी,वे चिंताजनक हैं. उन
चर्चाओं में आम उत्तराखंडी का शामिल होना दर्शता है कि सत्ता की अदला-बदली करने वाली
पार्टियां जो नकली विमर्श गढ़ कर हमारे सामने खड़ा कर देती हैं, हम उसी में फंस जाते हैं और अपने मूल सवालों को हाशिये पर पहुंचा देते हैं.
त्रिवेंद्र रावत के बदले तीरथ सिंह रावत के मुख्यमंत्री
बनने के बाद रावतों के मुख्यमंत्री बनने को लेकर खूब चर्चा हुई. जरा गौर से सोचिए कि
क्या जो भी मुख्यमंत्री बने,क्या वो रावत होने की वजह से मुख्यमंत्री
बने ? जी नहीं,उनके मुख्यमंत्री बनने में
उनका केवल एक ही कौशल काम आया और वो था अपने पार्टी हाईकमान को शीशे में उतारना.
इसी तरह पौड़ी से मुख्यमंत्री बनने पर भी खूब चर्चा हुई.
जरा विचार कीजिये कि इससे पौड़ी की तस्वीर या तकदीर में कोई बदलाव हुआ. राज्य बनने के
बाद यदि टिहरी डूबा और विस्थापित हुआ तो पौड़ी भी उजाड़ हुआ,वीरान हुआ. सर्वाधिक पलायन पौड़ी और अल्मोड़ा से हुआ,जहां
जनसंख्या वृद्धि की दर नकारात्मक हो गयी है. गिनने के लिए पहाड़ का- प- नहीं जानने वाले
विजय बहुगुणा और देहारादून के डोईवाला से विधानसभा पहुँचने वाले त्रिवेंद्र रावत को
पौड़ी के खाते में गिन लीजिये,लेकिन मुख्यमंत्रियों की यह बड़ी
संख्या पौड़ी के किसी काम की नहीं. इन मुख्यमंत्रियों की इतनी कूवत भी न हुई कि देहारादून
के कैंप कार्यालय में स्थायी तौर पर जमे हुए गढ़वाल के कमिश्नर और डीआईजी को पौड़ी में
बैठा सकें !
अखबार और पोर्टल इफ़रात में हो गए हैं. उनमें से अधिकांश
सत्ता की कृपा पाना चाहते हैं और खिलाफत तब ही करते हैं,जब उनका हित नहीं सधता. यानि अधिकांश का विरोध नीतिगत न हो कर अपने हित साधने
के लिए होता है. सत्ता के कृपा आकांक्षी ऐसे समाचार माध्यम भी सत्ता की नजरों में आने
के लिए कई प्रकार की खबरें परोसते हैं. तीरथ सिंह रावत के मुख्यमंत्री बनने के बाद
उन्होंने दो आईएएस अफसरों को अपना सचिव नियुक्त किया. बस भाई लोग उतर पड़े,तारीफ़ों के पुल बांधने के लिए ! शीर्षक घूमने लगा- मुख्यमंत्री ने नियुक्त
किए उत्तराखंडी मूल के अफसर ! भले मानुसो, अफसर किसी मूल का नहीं
होता,अफसर सिर्फ अफसर होता है,उसका यदि
कुछ होता है तो वो होता है-कैडर. अगर इस राज्य के कैडर वाले अफसरों से इस राज्य के
हित में काम नहीं करवाया जा रहा है तो यह सत्ता में बैठने वाले उन नेताओं का निकम्मापन
है,जिनके लिए उनके चेले-चपाटे- लोकप्रिय,यशस्वी-ऐसे प्रयोग करते हैं, गोया ये उनके नाम के अनिवार्य-अविभाज्य
अंग हों. बाकी तथाकथित उत्तराखंडी मूल के अफसरों पर लहालोट होने से पहले उन हीरो टाइप
अफसर को याद करिए,जो कार्यवाही नहीं इवेंट शूट में निकलते हैं.
तथाकथित उत्तराखंडी मूल के बावजूद जब ये हजरत एक बार चमोली के जिलाधिकारी नियुक्त किए
गए तो इन्होंने जाने से इंकार कर दिया. जिन तथाकथित पहाड़ी मूल वालों की अभी चर्चा है,जरा विधायक गणों से ही पूछिएगा कि ये अफसरों के फोन कितना उठाते रहे हैं,लॉकडाउन काल में भी फोन उठाने और जवाब देने की दर ज्ञात कीजिएगा इनकी. अफसरों
का यदि कुछ मूल होता है तो सत्ता के अनुकूल होना ही उनका मूल चरित्र है,बाकी सब खामख्याली है.
नए मुख्यमंत्री के मंत्रिमंडल ने शपथ ग्रहण किया तो फिर
वही विमर्श-अमुक-अमुक जिलों की उपेक्षा हो गयी. कोई बताए तो सही कि मंत्री राज्य का
होता है या किसी जिले विशेष का ? हमारे जिले में उन हजरत के मंत्री
न बनाए जाने पर लोग (जिनमें पत्रकार भी शामिल हैं) हायतौबा मचा रहे हैं,जो कुछ दिनों पहले इसी जिले के महिला-पुरुषों पर लाठी चलाने के लिए तत्कालीन
मुख्यमंत्री का आभार प्रकट कर रहे थे ! अपने जिले के लोगों पर लाठी चलवाने के लिए जो
मुख्यमंत्री का आभार प्रकट करे, क्या ऐसे लोगों के मंत्री बन
जाने से जिले का प्रतिनिधित्व हो जाता और ये न बन सके तो जिले को भारी हानि हो गयी
?
असल में ये सारा विमर्श ही सत्ता का गढ़ा हुआ है,जिसके जरिये वह लोगों में जाति,क्षेत्र,पहाड़-मैदान आदि का विभाजन पैदा करके अपने निष्कंटक राज की गारंटी करती है. आम लोगों के लिए पौड़ी का मुख्यमंत्री, चमोली, उत्तरकाशी, टिहरी के मंत्री या फिर उत्तराखंडी मूल के अफसर महत्वपूर्ण सवाल नहीं हैं. उनके लिए महत्वपूर्ण है कि शिक्षा की स्थिति बदहाल है. राज्य की सरकार,सरकारी स्कूल बंद कराने का अभियान चलाये हुए है. विधानसभा सत्र के ऐन पहले भी 318 स्कूलों का बंद करने का फैसला तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत ने लिया.एकमुश्त तीन हजार स्कूल पहले ही बंद किए जा चुके हैं. रोजगार का सवाल उत्तराखंड के लिए अहम सवाल है. बीते चार सालों में उत्तराखंड में कोई पीसीएस की परीक्षा नहीं हुई है. 56 हजार के करीब अन्य रिक्त पद हैं,जिनपर नियुक्ति नहीं हो रही है. उपनल और अन्य ठेके के रोजगार में ही उत्तराखंड के युवाओं का जीवन खप रहा है और यह सारे राज्य के बेरोजगारों के साथ हो रहा है. स्वास्थ्य सुविधाओं की दुर्दशा भी पूरे राज्य में एक सी है. महीने-दर-महीने गर्भवती महिलाओं की प्रसव के दौरान,इलाज के अभाव में मौत की खबर पौड़ी से पिथौरागढ़ तक और अल्मोड़ा से उत्तरकाशी तक समान रूप से सुनाई देती है. पलायन की मार से वीरान और खंडहर होते गाँव भी पूरे राज्य में समान रूप से मौजूद हैं. आम लोगों के सामने मुंह बाए खड़े ,ज़िंदगी और मौत से जुड़े इन सवालों को हल करनी की दिशा में विधानसभा में बैठे माननीय, यदि तिनका भर भी कदम नहीं हिला रहे हैं तो प्यारे उत्तराखंड वासियो तुम क्यूं उनको मंत्री-मुख्यमंत्री बनाए जाने या न बनाए जाने के गम में अपना खून जलाते हो ?
-इन्द्रेश मैखुरी
3 Comments
शुक्रिया
ReplyDeleteये बेहतरीन लेख है।
ReplyDeleteशुक्रिया
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