01 मार्च को गैरसैण में विधानसभा पर प्रदर्शन के दौरान नंदप्रयाग-घाट मोटर मार्ग को मुख्यमंत्री की घोषणा के अनुरूप डेढ़ लेन बनाए जाने की मांग कर रहे प्रदर्शनकारी महिला-पुरुषों पर बर्बर लाठीचार्ज के दृश्य पूरे उत्तराखंड ने देखे. पहाड़ में लाठीचार्ज की संभवतः यह 1994 के उत्तराखंड आंदोलन के बाद पहली घटना है. इस अर्थ में यह त्रिवेंद्र सिंह रावत जी के खाते में दर्ज उपलब्धि समझी जाये कि पहाड़ के सामान्य महिला-पुरुषों को उन्होंने पानी की बौछारों और “मित्र पुलिस” के उस बर्बर रूप का दर्शन करवाया,जिसमें पुलिस महिलाओं को भी दौड़ा-दौड़ा कर पीट रही है.
मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत द्वारा घटना के मजिस्ट्रेटी जांच के आदेश दे दिये गए हैं. चमोली जिले के अपर
जिलाधिकारी को जांच अधिकारी भी बनाया जा चुका है. लेकिन लगता है कि उत्तराखंड पुलिस
को मुख्यमंत्री द्वारा घटना की मजिस्ट्रेटी जांच के आदेश से कोई सरोकार नहीं है. लोगों
को बेरहमी से पीटने के बाद पुलिस सोशल मीडिया में निरंतर आधे-अधूरे वीडियो जारी करके
स्वयं को ही पीड़ित सिद्ध करने का अभियान चलाये हुए है.
पहले कथा गढ़ी गयी कि पथराव हुआ,इसलिए लाठीचार्ज करना पड़ा. हमने चुनौती दी कि घटना का पुलिस के द्वारा रिकॉर्ड
किया गया पूरा असंपादित वीडियो जारी किया जाये और यदि लाठीचार्ज से पहले पथराव हुआ
होगा तो हम हर सजा के लिए तैयार हैं.
इस पर पुलिस द्वारा फिर एक नयी कहानी सुनाई गयी कि अपर
पुलिस अधीक्षक की वर्दी फाड़ने की कोशिश की गयी. जबकि जिन अपर पुलिस अधीक्षक की वर्दी
फाड़ने की कथा सुनाई जा रही है,उनकी वर्दी आखिरी तक साबुत थी. मौके
पर जब हमने गिरफ्तारी दी तो वे ही गिरफ्तार करने आए तो वर्दी उतना ही चमक रही थी,जितना की सुबह उसमें चमक थी.
ऐसे न जाने और कितने किस्से इस मामले में पुलिस गढ़ती रहेगी
और सोशल मीडिया पर ठेलती रहेगी !
पुलिस की सोशल मीडिया उत्तेजना का आलम यह है कि बीते रोज
उत्तराखंड पुलिस के सोशल मीडिया पेज पर जो पोस्ट की गयी,उसमें लिखा गया था कि “गैरसैण,चमोली में हुई घटना की
न्यायिक जांच हो रही है.......” जैसे कि उल्लेख किया जा चुका कि मुख्यमंत्री द्वारा
घटना की मजिस्ट्रेटी जांच के आदेश दिये गए हैं. यह कमाल
है कि उत्तराखंड पुलिस ने फेसबुक पर मजिस्ट्रेटी जांच को न्यायिक जांच बना दिया था.
उत्तराखंड पुलिस के पोस्ट के कमेंट में बहुत सारे
लोगों ने लिखा कि न्यायिक जांच नहीं मजिस्ट्रेटी जांच हो
रही है. लोगों के ऐसा लिखने के बाद पोस्ट एडिट करने से पहले वे सारे कमेंट डीलीट किए
गए जो पुलिस की गलती की ओर इंगित कर रहे थे. सच को पुलिस इसी फॉर्मूले से बाहर ला रही
है !
यह स्थापित बात है कि बिना राजनीतिक नेतृत्व यानि सरकार
के सहमति या इशारे के पुलिस किसी आंदोलन में
कैसी भी विकट परिस्थिति होने पर लाठी नहीं चलाती. लेकिन दिवालीखाल की घटना के बाद पुलिस
की सोशल मीडिया सक्रियता और सच को झूठ व झूठ को सच सिद्ध करने की कोशिश यह सवाल खड़ा
करती है कि क्या पुलिस को सरकार द्वारा घोषित मजिस्ट्रेटी जांच पर भरोसा नहीं है ? क्या पुलिस किसी राजनीतिक पार्टी के ट्रोल के भांति कुछ भी पोस्ट करने को
स्वतंत्र है ? लाठीचार्ज और उसके बाद येनकेन प्रकारेण उसे सही
सिद्ध करने का काम ऐसे समय में हो रहा है, जबकि उत्तराखंड पुलिस
के सर्वोच्च पद पर ऐसे व्यक्ति आसीन हैं, जो अपनी जनपक्षधर छवि
बनाए रखने के प्रति काफी सचेत प्रतीत होते हैं. जनता के खिलाफ राजनीतिक पार्टी के ट्रोल
की तरह अभियान चला कर जनपक्षधर छवि कैसे कायम रहेगी,अशोक कुमार
साहब ?
मुख्यमंत्री जी जो मजिस्ट्रेटी
जांच आपने घोषित की है,उसको लेकर आम जनता के मन में तो संदेह
है ही. आखिर अपने संवर्ग के अफसरों और पद में अपने से बड़े अफसरों के खिलाफ एडीएम कैसे
स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच कर पाएंगे ? जरूरत तो इस पूरे प्रकरण
की न्यायिक जांच किए जाने की है. लेकिन मुख्यमंत्री जी आपकी पुलिस को भी आपके द्वारा
घोषित मजिस्ट्रेटी जांच पर भरोसा नहीं है. इसीलिए अपने पास मौजूद तथ्यों को जांच अधिकारी
के पास ले जाने के बजाय वह सोशल मीडिया में जारी कर रही है ! या कहीं ऐसा तो नहीं है,मुख्यमंत्री जी कि आपकी पुलिस जांच के लिए आपके द्वारा नामित अधिकारी से अधिक
मुफीद सोशल मीडिया को पा रही हो ?
जो भी हो मुख्यमंत्री जी,आपके द्वारा जांच की घोषणा के बावजूद पुलिस का सोशल मीडिया अभियान आपके प्रति
अवज्ञा का भाव ही प्रदर्शित कर रहा है,जो अंततः आपके नेतृत्व
पर प्रश्नचिन्ह और चुनौती दोनों ही है.
- इन्द्रेश मैखुरी
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