आज 01
मार्च से गैरसैंण में उत्तराखंड की विधानसभा का बजट सत्र
होने जा रहा है. पिछले साल मार्च के महीने
में उत्तराखंड सरकार द्वारा गैरसैंण को उत्तराखंड की ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित किया
गया था.
उत्तराखंड आंदोलन के समय से ही गैरसैंण को उत्तराखंड की स्थायी राजधानी बनाए जाने की मांग आंदोलनकारी करते रहे हैं.
तमाम आयोगों की रिपोर्टों ने भी सिद्ध किया है कि उत्तराखंड की जनता
गैरसैंण को उत्तराखंड की स्थायी राजधानी देखना चाहती है. 1995 में उत्तर प्रदेश सरकार
द्वारा,उस समय के शहरी विकास मंत्री रमाशंकर कौशिक की अध्यक्षता
में कमेटी बनाई गयी. कौशिक कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि 60 प्रतिशत से अधिक लोग
गैरसैंण को उत्तराखंड की राजधानी के रूप
में देखना चाहते हैं और 05 प्रतिशत लोग केंद्रीय स्थल को राजधानी के रूप में चाहते
हैं. चूंकि गैरसैंण ही उत्तराखंड का केंद्रीय स्थल है,इस
तरह गैरसैंण को राजधानी
बनाने के पक्ष में 65 प्रतिशत लोगों ने राय
प्रकट की. सन 2000 में उत्तराखंड राज्य बनने के बाद बनी कामचलाऊ
सरकार के मुख्यमंत्री नित्यानन्द स्वामी ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश
वीरेंद्र दीक्षित की अध्यक्षता में राजधानी चयन के लिए एकल सदस्य आयोग बनाया. स्वामी
के कार्यकाल और उनके पद से हटने के बाद आयोग भी निष्क्रिय हो गया. 2002 में पहले निर्वाचित
मुख्यमंत्री एनडी तिवारी ने इस दीक्षित आयोग को पुनर्जीवित किया. ग्यारह विस्तार और
60 लाख से अधिक रुपया खर्च करने के बाद अगस्त 2008 में दीक्षित आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को
सौंप दी. चूंकि यह आयोग गैरसैंण
राजधानी की मांग को खारिज करने के लिए ही बना था,इसलिए इसकी
रिपोर्ट में गैरसैंण
के विरुद्ध अनेकों कुतर्क गढ़े गए. लेकिन इस आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में दर्ज किया
कि जनता के बहुमत की राय गैरसैंण को उत्तराखंड की राजधानी बनाए जाने के पक्ष में है.
इस तरह जन भावना निरंतर ही गैरसैंण को उत्तराखंड
की स्थायी राजधानी के पक्ष में अभिव्यक्त होती रही है. लेकिन सत्ताधीश देहारादून के
मोहपाश में जकड़े रहे हैं. जनभावना का ही दबाव है कि त्रिवेन्द्र रावत ने गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित
किया. हालांकि 13 जिलों के छोटे से राज्य में दो राजधानियाँ गैरज़रूरी और सार्वजनिक
धन का अपव्यय है. जब राज्य 60 हजार करोड़ रुपये के कर्ज में हो तो यह अपव्यय और भी अधिक
खलता है.
ग्रीष्मकालीन
और शीतकालीन यानि दो राजधानियां,औपनिविशिक अवधारणा है. अंग्रेज़ गर्मियों
में देश की राजधानी को दिल्ली से शिमला ले जाते थे और संयुक्त प्रांत यानि वर्तमान
उत्तर प्रदेश की राजधानी को लखनऊ से नैनीताल ले आते थे. अंग्रेज़ तो इस देश को लूटने
और ऐश करने आए थे,उन्हें इसलिए गर्मियों में अलग राजधानी
चाहिए थी. लेकिन आजाद देश में स्वयं को जनता का चुना हुआ प्रतिनिधि कहने वालों को दो
राजधानियों वाली इस औपनिवेशिक खुमारी को क्यूं जारी रखना चाहिए ?
सरकारी
तर्क के हिसाब से देखें तो वह पिछले साल मार्च में गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी
घोषित कर चुकी है. लेकिन पिछला ग्रीष्मकाल तो कोरोना की आड़ में त्रिवेन्द्र रावत जी
की सरकार ने देहारादून में ही बिताया. अब चूंकि बजट सत्र करने त्रिवेन्द्र रावत और
उनकी सरकार गैरसैंण
आ रहे है और ग्रीष्मकाल भी दस्तक दे ही रहा है तो सरकार को वापस देहारादून जाने पर
सार्वजनिक धन की बरबादी करने के बजाय गैरसैंण में ही ठहर जाना चाहिए.
-इन्द्रेश मैखुरी
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