सीएए-एनआरसी विरोधी आंदोलन में सक्रिय रहने के चलते, उसके तत्काल बाद
हुए दिल्ली दंगों के आरोपी बनाए गए जामिया मिलिया इस्लामिया, नयी दिल्ली के
छात्र आसिफ इकबाल तन्हा, जेएनयू
की शोध छात्रा और महिला अधिकार समूह-पिंजरा तोड़ की कार्यकर्ता- नताशा नरवाल
और देवांगना कालिता को दिल्ली उच्च न्यायालय ने जमानत पर रिहा करने का आदेश दे दिया
है.
तीनों मामलों में दिल्ली उच्च न्यायालय के विस्तृत
फैसलों को पढ़ें तो यह स्पष्ट होता है कि भले ही इन तीनों के विरुद्ध अलग-अलग मुकदमों
में यूएपीए जैसे गंभीर कानून के तहत मुकदमें दायर किए गए थे, लेकिन केंद्र सरकार और उसकी दिल्ली
पुलिस के पास इन तीनों को आतंकवाद से निपटने के नाम पर बने कानून- यूएपीए में निरुद्ध
करने का कोई आधार नहीं था.
दिल्ली उच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति सिद्धार्थ मृदुल
और न्यायमूर्ति अनूप जयराम भंभानी के जमानत देने के फैसले के पेज संख्या 79(पीडीएफ़)
में दर्ज है कि आसिफ इकबाल तन्हा के विरुद्ध आतंकवादी गतिविधियों
से संबंध जोड़ने का जो सबसे ठोस सबूत दिल्ली पुलिस पेश कर सकी, वो था कि आसिफ इकबाल तन्हा को किसी और ने एक सिम
कार्ड दिया था, जो उसने
एक व्यक्ति को दिया और जिस व्यक्ति को दिया,उसने उस सिम से व्हाट्स ऐप मैसेज किए ! अदालत ने
अपने फैसले में लिखा कि जिन संगठनों से आसिफ के सम्बद्ध होने की बात कही गयी है,वे कोई प्रतिबंधित संगठन नहीं है.उच्च न्यायालय ने लिखा कि आसिफ के पास न कोई
हथियार थे और न कोई हथियार बरामद हुआ.
एडिशनल सॉलिसीटर जनरल ने जब आसिफ को जमानत देने का विरोध
करते हुए उच्चतम न्यायालय द्वारा यूएपीए के एक मामले में दी गयी जमानत से तुलना न करने
के लिए तर्क दिया कि उस मामले में तो सालों तक मुकदमा पूरा नहीं हुआ. इस पर खंडपीठ
ने कहा कि क्या इस अदालत को भी तब तक इंतजार करना चाहिए, जब तक कि आरोपी काफी लंबे अरसे तक जेल में रह लिया हो ? क्या अदालत को तब जागना चाहिए जबकि संविधान के अनुच्छेद 21 का पूरी तरह निषेध
कर दिया गया हो ? अदालत ने कहा कि हम नहीं समझते कि यह कार्यवाही
का सही तरीका है. अदालत ने कहा कि हम तो देख पा रहे हैं कि इस मामले में ट्रायल आने
वाले सालों-साल में पूरा नहीं होगा.
आसिफ पर यूएपीए
लागू करने के मामले में सरकारी वकील द्वारा तर्क दिया गया कि आतंकवाद निरोधक कानून
यूएपीए की धारा 15 न केवल देश की बुनियाद को नुकसान पहुंचाने की मंशा से की गयी कार्यवाही
पर लागू होती है, बल्कि यदि ऐसा किए जाने की आशंका हो तो
उस पर भी लागू होती है. इस पर न्यायमूर्ति सिद्धार्थ मृदुल और न्यायमूर्ति अनूप जयराम
भंभानी की खंडपीठ ने कहा कि दिल्ली में कुछ छात्रों और अन्य व्यक्तियों द्वारा कितना
ही तीखा प्रदर्शन क्यूँ न किया जाये, देश की बुनियाद निश्चित ही इतनी मजबूत तो है कि वो इससे नहीं हिलेगी.
नताशा नरवाल और देवांगना कालिता के मामले में भी अलग-अलग
फैसलों में दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि ऐसा कोई ठोस सबूत नहीं है कि जो यह सिद्ध
करता हो कि ये दोनों किसी ऐसी गतिविधि में लिप्त थी, जिसे आतंकवादी
गतिविधि कहा जाये. गौरतलब है कि इन मामलों में अदालत में हजारों पन्नों की चार्जशीट
पेश की गयी परंतु जब आतंकवाद निरोधक कानून-यूएपीए लगाए जाने की कसौटी पर उक्त चार्जशीट
को कसा गया तो दिल्ली उच्च न्यायालय ने लिखा कि “….. अदालत अपना
स्वतंत्र दिमाग लगाए और अपनी स्वतंत्र न्यायिक राय कायम करे कि चार्जशीट और उसके साथ
दाखिल की गयी सामग्री से यूएपीए के अंतर्गत किए गए किसी अपराध का खुलासा होता है. ऐसा
नहीं होता.”
अदालत ने लिखा कि चक्काजाम, भड़काऊ भाषण, महिला प्रदर्शनकारियों को भड़काना और ऐसे
अन्य कार्यवाहियों ने भी यदि शांतिपूर्ण प्रदर्शन की संविधान प्रदत्त गारंटी की सीमा
का अतिक्रमण किया, तब भी वे आतंकवादी गतिविधि की श्रेणी में नहीं
आती हैं. अदालत ने लिखा कि ऐसा होने की दशा में सरकार के पास ऐसे प्रदर्शनों के नियमन
और प्रतिबंधित करने का अधिकार है. अदालत के आदेश से साफ है कि उक्त मामलों में ऐसा नहीं किया गया बल्कि इन प्रदर्शनों
का उपयोग, इनके नेतृत्वकर्ताओं को आतंकवाद निरोधक कानून में फँसाने
के लिए किया गया.
नताशा नरवाल और देवांगना कालिता को जमानत देते हुए उच्च
न्यायालय ने लिखा कि प्रतिवाद प्रदर्शन करने का अधिकार एक संवैधानिक अधिकार है. प्रतिवाद
प्रदर्शन विधि विरुद्ध नहीं है और ना ही इसे यूएपीए के तहत आतंकवादी गतिवधि कहा जा
सकता है.
दिल्ली उच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार और पुलिस की कार्यवाही
पर तीखी टिप्पणी करते हुए कहा “ हम यह कहने के लिए विवश हैं कि ऐसा प्रतीत होता है
कि विरोधी मत को कुचलने की उत्तेजना और इस भय में कि चीजें हाथ से न निकल जाएँ, राज्य ने संविधान प्रदत्त “प्रतिरोध प्रदर्शन के अधिकार” और “आतंकवादी गतिविधि”
के बीच के अंतर की रेखा को धुंधला कर दिया. अगर इस तरह इस अंतर को धुंधला किया जाना
चलता रहा तो लोकतन्त्र नष्ट हो जाएगा.”
उक्त तीनों ही
मामलों में अदालत ने पाया कि यूएपीए लगाया जाना ही गलत है और इसलिए अदालत ने जमानत
अर्जी पर सुनवाई सामान्य अपराधों के मामलों की तरह की. तीनों ही मामलों के अलग-अलग
फैसलों को पढ़ें तो ऐसा लगता है कि एक ही तरह की बातों को तीन बार पढ़ रहे हैं. ऐसा इसलिए
है क्यूंकि केंद्र सरकार और उसकी दिल्ली पुलिस ने सब पर एक ही तरह के आरोप चिपका दिए.
ऐसा प्रतीत होता है कि सीएए-एनआरसी विरोधी प्रदर्शनों के प्रति केंद्र सरकार का जो
द्वेषात्मक रवैया था, उसके चलते प्रदर्शनकारियों से बदला लेने
के लिए मुकदमों में फँसाने की सामग्री पहले से तैयार थी और उसमें बस आरोपियों के नाम
भरने की जगह खाली रखी गयी थी !
ठीक से कानूनी परीक्षण हो तो सीएए-एनआरसी विरोधी प्रदर्शनकारियों पर ही नहीं भीमाकोरेगांव सहित तमाम मामले ऐसे
ही खोखले निकलेंगे.
ये मुकदमें कानून की कसौटी पर तो खरे नहीं उतरते, ये सिर्फ राजनीतिक द्वेष के पैमाने पर ही खरे उतरते हैं !
-इन्द्रेश मैखुरी
संदर्भ : live law- https://www.livelaw.in/top-stories/right-to-protest-not-terrorist-act-uapa-delhi-high-court-asif-iqbal-tanha-natasha-narwal-devangana-kalita-175736
1 Comments
Sandar❤❤🙏
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