प्यारी पुलिस जी,
मैं आजकल अपने
गांव मैखुरा में हूं. जब नींद खुलती है तो पता चलता है कि गांव में लोग सुबह-सवेरे
ही उन बंदरों को अपने खेतों से भगाने की कोशिश कर रहे हैं, जो उनकी फसल चट करने के लिए अलसुबह ही उनके खेतों पर धावा बोल चुके हैं.
यूं तो यह मसला जंगलात के महकमें का है. जंगलात का इसलिए
है क्यूंकि पहाड़ में तो खेत की मेंड़ में खड़ा पेड़ भी जंगलात का है. जब जंगल उनके हैं
तो जानवर भी उन्ही के हुए. और जब जानवर जंगलात के हैं तो खेती से उनको बचाने का जिम्मा
भी उन्हीं का होना चाहिए. पर जंगलात वाले तो जंगल में मंगल वाली अवस्था में हैं.
इस बीच सोशल मीडिया में वह पत्र देखा,जिसमें गढ़वाल मंडल के पुलिस उपमहानिरीक्षक के आवास में तैनात गार्द से इस आवास में लगे सेब के फलदार पेड़ को बंदरों से बचाने की अपेक्षा की गयी है.
इस पत्र से ही
यह ज्ञात हुआ कि पौड़ी में पुलिस उपमहानिरीक्षक के नाम का बंगला अभी अस्तित्वमान है.
उपमहानिरीक्षक का पौड़ी बैठना तो अतीत के सुनहरे दिनों की बात हो चुकी है. राज्य बनने
के बाद शायद ही उस बंगले को किसी उपमहानिरीक्षक की सोहबत हासिल हुई है. गढ़वाल मंडल
के कमिश्नर हों या पुलिस उपमहानिरीक्षक, कार्यालय उनके पौड़ी में
हैं और देहारादून में कैंप कार्यालय हैं. यह गज़ब है कि राज्य बनने के दो दशक में अफसर
स्थायी तौर पर कैंप कार्यालय में डेरा जमाए बैठे हैं और किसी ने उनसे पूछा तक नहीं
कि स्थायी कार्यालय के बावजूद दो दशक कैंप में कौन रहता है, भाई
?
लेकिन उपमहानिरीक्षक के न रहने के बावजूद बंगला है बंगले में लगे सेब के पेड़ को बंदरों को बचाने की चिंता बड़ी आशाजनक है. यह कोई साधारण चिंता नहीं है वरना तो सेब का पेड़ बंदरों से बचाने का मौखिक आदेश भी दिया जा सकता था. लेकिन उक्त आदेश में सेब,बंदरों से न बचा सकने की दशा में कार्यवाही की बात कही गयी है.
बंदर ही नहीं सूअर,बाघ, भालू के
मारे हम पहाड़ी लोगों के लिए यह आदेश बड़ी उम्मीदें लेकर आया है. आखिर जब पुलिस उपमहानिरीक्षक
के बंगले में लगे एक पेड़ के सेब बचाने के लिए आदेश निकाल सकता है तो पहाड़ के सैकड़ों
गांवों में बंदर, सूअर,बाघ,भालू के आतंक के साये में जीते लोगों के जीवन और फसल को बचाने के लिए भी तो
इस किस्म का आदेश निकल सकता है. माना है कि हजारों पहाड़ में रहने वालों का मोल उपमहानिरक्षक
के बराबर नहीं है पर फिर भी आस लगाने में क्या जाता है ! मोल बराबर होता तो बीस साल
एक भी उपमहानिरीक्षक के न रहने के बावजूद बंगले में गार्द न होती और रोजी-रोटी के जुगाड़
में मैदानों की तरफ गए लोगों के मकान, उजाड़ और खंडहर न हुए होते
!
लेकिन फिर भी चूंकि हमारी मित्र पुलिस है तो उससे हम इतनी
विनती तो कर ही सकते हैं कि प्यारी पुलिस जी, तुम्हारे साहब के तो
एक सेब के पेड़ का सवाल है पर हमारे तो फलदार पेड़ ही नहीं फसल का भी सवाल है, जिस दिन में बंदर और रात को सूअर चौपट कर रहे हैं ! पहाड़ के लोगों के पालतू
पशुओं और खुद उनकी अपनी जान का भी सवाल है जो बाघ-भालू के रहमोकरम पर है. इसलिए साहब
के बंगले का सेब का पेड़ बंदरों से बचाओ पर साथ ही हमारे फल,फसल,खेत, पालतू पशु और खुद की जिंदगी बचाने के लिए भी कोई
गार्द लगा दो.
इन पंक्तियों के लिखे जाने तक ज्ञात हुआ कि उपमहानिरीक्षक के बंगले में सेब के पेड़ बचाने के आदेश संबंधी पत्र की हकीकत के मसले पर स्वयं उपमहानिरीक्षक महोदया ने जांच के आदेश कर दिये हैं.
जांच तो होनी चाहिए. जांच इस बात की होनी चाहिए
कि दो दशक में पुलिस उपमहानिरीक्षक और कामिश्नर भी स्थायी कार्यालय और मुख्यालय में
न बैठ कर, कैंप कार्यालय में ही कैसे बैठे रहे ? जांच इस बात की
भी होनी चाहिए कि जब दो दशक में उपमहानिरीक्षक, रेंज मुख्यालय
पर रह ही नहीं रहे हैं तो उनके लिए बंगला क्यूँ है ,उसका रखरखाव
पर व्यय क्यूं हो रहा है और गार्द किसकी सुरक्षा में व क्यूं तैनात है ?
बहरहाल पत्र असली हो या ना हो पर पहाड़ में बंदरों और अन्य
जंगली जानवरों का संकट असली है. उससे निपटने के असली उपाय खोजे जाने की नितांत आवश्यकता
है.
-इन्द्रेश मैखुरी
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