मॉनसून सत्र के पहले दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
जब अपने नवनियुक्त मंत्रियों का परिचय करवाने को खड़े हुए तो विपक्षी बेंचों से निरंतर
विरोध के स्वर गूंज रहे थे. इस विरोध के पीछे पेगासस जासूसी कांड से लेकर कोरोना में
सरकारी लापरवाही और मंहगाई तक, सब मुद्दे शरीक थे.
प्रधानमंत्री ने इमोश्नल कार्ड खेलते हुए इस विरोध
को दलित, महिला, आदिवासी और किसानों
का विरोध सिद्ध करने की कोशिश की. हालांकि उन्हीं के राज में उत्तर प्रदेश में ब्लॉक
प्रमुख के चुनाव लड़ने की कोशिश में महिलाओं को निर्वस्त्र करने की कोशिश हुई, महिला की छाती
पर सवार पुलिस कर्मी तो सब ने देखा. दलित-आदिवासियों के साथ इस देश में क्या हो रहा है,वह भी किसी से छुपा नहीं है. किसानों को दिल्ली की चौखट पर बैठे हुए छह महीने
से अधिक हो चुके हैं. ऐसे में प्रधानमंत्री इन समुदायों के नाम पर भावनात्मक दोहन करना
चाहते हैं तो वह निरा पाखंड ही प्रतीत होता है.
मंत्रियों के
परिचय में हंगामे पर प्रधानमंत्री ऐसे भावुक होने का अभिनय कर रहे थे, जैसे कि यह पहली बार हो रहा हो. वास्तविकता यह है कि जैसे मंत्रियों के परिचय
की परंपरा है, वैसे ही विरोध के भी उदाहरण संसदीय इतिहास में
मिलते हैं.
मनमोहन सिंह जब 2004 में प्रधानमंत्री बने तो वे प्रधानमंत्री
के तौर पर अपनी पहली ही कैबिनेट का परिचय, संसद में विपक्ष के
हंगामे की वजह से नहीं करवा सके. विपक्ष कौन था, भाजपा, जिस पार्टी के प्रधानमंत्री आज अपने सातवें साल में बिना किसी व्याख्या और
स्पष्टीकरण के हटाये गए मंत्रियों के स्थान पर, बनाए गए नए मंत्रियों
के परिचय के दौरान हुए हंगामें से बड़ा आहत दिखने की कोशिश कर रहे हैं !
संजय बारू ने अपनी कम पठित, लेकिन बहुचर्चित किताब- द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर में इस प्रसंग का उल्लेख
किया है. किताब पर भारी शोर-शराबे और चर्चे के बावजूद मैं इसे कम पठित इसलिए कह रहा
हूँ क्यूंकि यदि यह किताब अच्छे से पढ़ी गयी होती तो मनमोहन सिंह की वैसी लुंज-पुंज
छवि बनाना नामुमकिन होता, जैसी कि इस किताब का हवाला दे कर बीते
सात-आठ वर्षों में गढ़ी गयी है. ऐसा लगता है कि काँग्रेसियों ने भी यह किताब पढ़ने की
जहमत नहीं उठाई वरना इस किताब के नाम पर भाजपा के मनमोहन सिंह के बारे में किए गए (कु) प्रचार का वे जवाब देने की स्थिति में होते.
बहरहाल इस किताब में संजय बारू लिखते हैं कि मनमोहन सिंह
इस बात से खासे नाराज थे कि उन्हें प्रधानमंत्री के तौर पर पहले सत्र में ना तो संसद
में बोलने दिया गया और ना ही मंत्रियों का परिचय करवाने दिया गया. इस मौके के लिए मनमोहन
सिंह ने खास भाषण तैयार करवाया था. लेकिन उसे बोलने का अवसर विपक्ष के हंगामें की वजह
से आया ही नहीं. बक़ौल बारू फिर उस भाषण को प्रधानमंत्री द्वारा राष्ट्र के नाम संदेश
के रूप में मनमोहन सिंह ने दूरदर्शन पर पढ़ा.
लेकिन मनमोहन सिंह के मन में यह टीस रह गयी कि प्रधानमंत्री
के तौर पर उन्हें पहली बार ही संसद में बोलने नहीं दिया गया. उक्त किताब में यह किस्सा
दर्ज है कि इसका हिसाब-किताब कैसे उन्होंने तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष लालकृष्ण आडवाणी
के साथ चुकता किया. संजय बारू लिखते हैं कि संसद के उसी सत्र के दूसरे हिस्से में एक
दिन विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी और जॉर्ज फर्नांडिस संसद
भवन स्थित प्रधानमंत्री कार्यालय में मनमोहन सिंह से वित्त विधेयक पर सुझाव लेकर मिलने
आए. मनमोहन सिंह के मन से प्रधानमंत्री के तौर पर पहली बार संसद में बोलने नहीं दिये
जाने की खिन्नता कायम थी. लिहाज़ा मनमोहन सिंह ने आडवाणी और जॉर्ज फर्नांडिस को अपने
कक्ष में चाय पूछना तो दूर बैठाया तक नहीं. बल्कि इन दोनों से बात करने के दौरान वे
खुद खड़े रहे तो वे दोनों कैसे बैठते ! फिर जो कागजात उन्होंने दिये, मनमोहन सिंह ने उन्हे खड़े-खड़े ही मेज पर फेंक दिया. इस मीटिंग से बाहर आकर
आडवाणी और जॉर्ज फर्नांडिस ने मीडिया के सामने प्रधानमंत्री द्वारा अपमानित किए जाने
को लेकर काफी हल्ला मचाया.
मंत्रिमंडल का परिचय न करवाने देने पर नरेंद्र मोदी
ऐसा अपमान तो विपक्ष के नेताओं का कर नहीं सकते क्यूंकि जिन विपक्ष के नेताओं की जासूसी
पेगासस से करवाई जा रही है, उनका कुर्सी पर ना बैठाए जाने जैसे अपमान
तो छोटा-मोटा ही समझा जाएगा ना !
-इन्द्रेश मैखुरी
1 Comments
अब क्या करें भैजी आदत से मजबूर हैं मैं भी यही सोच रहा था कल की कैसे प्रधानमंत्री जी ने इसको दलित ,आदिवासी ,महिला से जोड़ दिया
ReplyDelete