एक भगत जी हैं, पहले रामलीला में रोल अदा किया करते थे,अब उत्तराखंड में मंत्री हैं. डायलाग बोलने की आदत छूटी नहीं अभी भी उनकी. यदा-कदा खल पात्रों की तरह संवाद बोलते रहते हैं. कल फिर बोले कि हम एक मुख्यमंत्री बनायें या दस मुख्यमंत्री बनायें जनता को इससे क्या मतलब !
भगत जी, उत्तराखंड आपकी व्यक्तिगत संपत्ति नहीं है कि
आप चाहें बेचें, चाहे रखें, किसी को क्या
मतलब ! आप अपनी पार्टी का भी रोज अध्यक्ष बदलइये, तब भी किसी
को कोई मतलब नहीं होगा. लेकिन जनाब आपकी पार्टी में मुख्यमंत्री
की इस उठापटक से राज्य की दिशा भटक जाती है,इसलिए लोगों को फर्क
पड़ता है. जिसको आप कुर्सी से हटाते हैं और जिसको आप कुर्सी पर बैठाते हैं, वो आपका अंदरूनी है. लेकिन यह मुख्यमंत्री की जो कुर्सी है,यह भाजपा की अंदरूनी और निजी मिल्कियत नहीं है.
2017 में उत्तराखंड में भाजपा की प्रचंड बहुमत की सरकार
बनने के बाद इस राज्य के साथ भाजपा ने जिस तरह का खिलवाड़ किया और शासन चलाने में जैसा
अनाड़ीपन दिखाया, वह हैरत में डालने वाला है.
2017 के विधानसभा चुनावों के प्रचार में प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी ने अपने चिरपरिचित अंदाज में कहा कि देहरादून के इंजन को दिल्ली के इंजन
से जोड़िए और डबल इंजन की सरकार बनाइये. डबल इंजन से डबल विकास का वायदा बहुत ज़ोरशोर
से किया गया. लोगों ने नरेंद्र मोदी पर भरोसा किया और भाजपा को प्रचंड बहुमत दे दिया.
लेकिन साढ़े चार साल बाद पलट कर देखिये तो डबल छोड़िए विकास तो सिंगल भी न हुआ, मुख्यमंत्री
अलबत्ता तीन हो गए !
पहला मुख्यमंत्री ऐसा व्यक्ति बनाया गया, जिस पर कृषि मंत्री रहते ढेंचा बीज घोटाले के आरोप थे और तुर्रा यह कि वह
व्यक्ति मुख्यमंत्री होते ही भ्रष्टाचार के विरुद्ध ज़ीरो टोलरेंस का राग अलापता रहा.
मुख्यमंत्री चार साल सिर्फ नौकरशाहों से बतियाते रहे, मंत्रियों-विधायकों
तक को मुंह नहीं लगाते थे. उनके खिलाफ लगातार शिकायतें भी होती रही. पर दिल्ली दरबार
ने उनके ऊपर कृपा बनाए रखी. दिल्ली दरबार की कृपा की आश्वस्ति से उनका गुरूर और बढ़ता
गया. फिर अचानक वे चौथे साल में हटा दिये गए.
हटाये जाने के कारणों पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा
कि वे क्यूं हटाए गए,यह जानने दिल्ली जाना होगा ! उनके मुख्यमंत्रित्व
काल और उसके बाद की यह एकमात्र बात है,जिससे सहमत हुआ जा सकता
है. वे क्यूं हटाए गए और उससे पहले वे क्यूं बनाए गए, चार साल
तक क्यूं बनाए रखे गए,यह सब जानने दिल्ली ही जाना पड़ेगा !
पहले मुख्यमंत्री को उनके तमाम गुरूर और तुनकमिजाजियों के बावजूद चार साल कायम रखा गया और दूसरे को चार महीने में ही चलता कर दिया गया !
तर्क
दे रहे हैं कि संवैधानिक संकट की वजह से ऐसा करना पड़ा ! अव्वल तो देश में ऐसी ही स्थितियों
में उपचुनाव होने के ढेरों उदाहरण हैं. लेकिन चलिये थोड़ी देर के लिए संवैधानिक संकट वाले तर्क को ही मान लेते हैं. तब
प्रश्न है कि दुनिया की नंबर एक पार्टी होने का दावा करने वाली भाजपा, मिस कॉल से सदस्य बनाने वाली पार्टी, ऐसा मिस एडवेंचर
क्यूं कर रही थी उत्तराखंड के साथ ? जब उनको मुख्यमंत्री
बनने का फैसला लिया गया तो क्या भाजपा के दिल्ली में बैठे आका यह नहीं जानते थे कि
वे एक सांसद को मुख्यमंत्री बनाने जा रहे हैं, जिसे छह महीने
में विधानसभा का सदस्य चुन कर आना होगा ? इनको मुख्यमंत्री बनाए
जाने के महीने भर के भीतर सल्ट में उपचुनाव हुआ तो वहां क्यूं नहीं लड़वाया गया ? भाजपा के एक पूर्व प्रदेश अध्यक्ष, सल्ट में तत्कालीन
मुख्यमंत्री को न लड़वाये जाने को लेकर तर्क दे रहे थे कि उस सीट पर तो जीना परिवार
का हक बनता था ! क्यूं विधानसभा सीट भी खानदानी विरासत हो गयी है क्या ?
दूसरे और तीसरे मुख्यमंत्री के संदर्भ में कुछ बातें और.
चार साल बाद दूसरा मुख्यमंत्री जिनको भाजपा ने बनाया,उनको 2017 में विधानसभा चुनाव का टिकट देने के लायक भी नहीं समझा गया. जिस
व्यक्ति का विधायक का टिकट काट दिया गया, उस व्यक्ति को चार साल
बाद विधायक दल का नेता बना दिया गया !
तीसरे मुख्यमंत्री जो बनाए गए हैं,उनके बारे में कहा जा रहा है कि वे युवा हैं. भाई, युवा
होना ही उनका गुण है तो चार साल पहले तो वे अधिक युवा रहे होंगे ! तभी बना देते तो
युवा के साथ ही अब तक परिपक्क्व भी हो गए होते. साढ़े चार साल तक वे मंत्री बनाने के
लायक भी नहीं समझे गए पर अब अचानक वे गुणों की खान सिद्ध हो कर मुख्यमंत्री बना दिये
गए हैं !
मुख्यमंत्री की जिस दौड़ का बीते चार महीने में चलना बताया
गया,उसके एक दावेदार ने आज खुद खुलासा किया है कि वे भी दौड़ में थे ! कमाल का निर्णय
लेने वाले लोग हैं कि आदमी मुख्यमंत्री की दौड़ में है और दूसरी बार भी जब बनाया जाता
है तो राज्य मंत्री बनता है. यानि या तो मुख्यमंत्री बनेगा और न बन सका तो राज्य मंत्री
ही रहेगा ! क्या कमाल का चिंतन है ! दो बार मुख्यमंत्री की दौड़ में रहने के बाद आदमी
राज्य मंत्री से कैबिनेट मंत्री बन सका !
स्कूल के दिनों में एक खेल देखा था, जिसे म्यूज़िकल चेयर रेस कहते हैं. इसमें होता
यह है कि संगीत बजता है और कुछ कुर्सियों के
इर्दगिर्द लोग दौड़ते हैं. संगीत बंद होते ही कुर्सी पर बैठना होता है. उत्तराखंड के
मुख्यमंत्री की कुर्सी भी वैसी ही म्यूज़िकल चेयर रेस बना दी गयी है. इसमें संगीत बजाने
वाले दिल्ली में बैठे हैं और वे संगीत तभी बंद करते हैं, जबकि
उनका मनमाफिक व्यक्ति कुर्सी के सामने हो ! इसके अलावा तो मंत्री-मुख्यमंत्री बनाए
जाने की पद्धति का कोई तर्क नहीं समझ आता. कुर्सी पाने वालों के लिए इसमें संगीत है, खेल है, रोमांच है ! जनता के लिए सिर्फ और सिर्फ छल
है !
-इन्द्रेश मैखुरी
0 Comments