1994 में उत्तराखंड आंदोलन के दौरान प्रख्यात रंगकर्मी
सुभाष रावत ने एक नाटक लिखा-2020(बीस सौ बीस). उत्तरकाशी की नाट्य संस्था-कला दर्पण
ने इस नाटक का विभिन्न जगहों पर मंचन किया. नाटक उत्तराखंड राज्य आंदोलन के इतिहास
से होता हुआ उसके भविष्य तक पहुंचता है. 1994 में 2020 दूर की
कौड़ी जान पड़ता था. आज हम 2020 के पार निकल चुके हैं. 2020 में उत्तराखंड के जैसे विद्रूप
की कल्पना 1994 में लिखे नाटक में की गयी थी, आज स्थितियाँ लगभग वैसी
हैं. पूरे नाटक पर तो फिर कभी चर्चा करेंगे, अभी केवल एक प्रसंग
पर आते हैं. नाटक में जब नए मुख्यमंत्री का चुनाव हो रहा होता है तो एक प्रमुख दावेदार
दावा करता है कि मैं गढ़वाली भी हूं और कुमाउनी भी हूं क्यूंकि मेरे दादा का आधा गाँव
गढ़वाल में है, आधा कुमाऊँ में है !
बीते दिनों उत्तराखंड के नए-नवेले मुख्यमंत्री पुष्कर
सिंह धामी की बात सुनते हुए बरबस ही बीस सौ बीस नाटक का वह पात्र याद आया. नव नियुक्त
मुख्यमंत्री सूत्र की तरह बार-बार इस बात को दोहरा रहे हैं कि उनकी जन्मभूमि पिथौरागढ़
है और कर्मभूमि खटीमा है. इस तरह पहाड़ और तराई से अपना संबंध स्थापित करने की वे अनवरत
कोशिश कर रहे हैं. यहां तक कि दिल्ली में प्रेस कॉन्फ्रेंस में भी उन्होंने जन्मभूमि-कर्मभूमि
का रटा-रटाया सूत्र सुनाया. भाई साहब दिल्ली वालों को क्या पता कि कहाँ पिथौरागढ़ है
और कहां खटीमा !
अखबारों ने भी जब पुष्कर सिंह धामी की ताजपोशी का विश्लेषण
किया तो इसे भाजपा की हरीश रावत को घेरने की कोशिश बताया. तर्क यह कि भाजपा पुष्कर
सिंह धामी को कॉंग्रेसी दिग्गज हरीश रावत के मुक़ाबले कुमाऊँ के ठाकुर नेता के तौर पर
स्थापित करना चाहती है. हम तो समझे थे कि केंद्र में मंत्री और राज्य के मुख्यमंत्री
रहे हरीश रावत पूरे प्रदेश के नेता हैं और मुख्यमंत्री बन कर पुष्कर सिंह धामी पूरे
प्रदेश के मुखिया बनाए गए हैं. लेकिन यहां तो राजनीति के मूर्धन्य विश्लेषक बता रहे
हैं कि ये दोनों एक क्षेत्र विशेष और जाति विशेष के क्षत्रप हैं !
स्वयं हरीश रावत भी इस जाति और क्षेत्र की सोच से कहां
ऊपर उठ पाये. बीते दिनों रमेश पोखरियाल निशंक को केंद्रीय मंत्रिमंडल से हटाये जाने
पर उन्होंने एक पोस्ट लिखी. उक्त पोस्ट की
अंतिम पंक्तियों में उन्होंने लिखा – वो(निशंक) जन्म से ब्राह्मण हैं, इसलिए मैं आशीर्वाद तो नहीं दे सकता…………- राजनीति जिस जाति और उसके तथाकथित ऊंचे-नीचे विमर्श
के इर्दगिर्द घूमती है, यह वाक्यांश जातीय श्रेष्ठता के उसी अहम
को तुष्ट करने की कोशिश है. यह इस बात की भी अभिव्यक्ति है कि हमारे बड़े कहे जाने वाले
राजनेता, जाति और जाति के नकली श्रेष्ठताबोध के खांचे के बाहर
न खुद सोचना चाहते हैं और ना ही लोगों को सोचने देना चाहते हैं.
जाहिर सी बात है कि जब जातीय आधार पर 70 पार का राजनेता
अपने से कम उम्र के राजनेता को आशीर्वाद नहीं दे सकता तो फिर वह अपनी जाति से तथाकथित
तौर पर कमतर समझी जाने वाली जातियों के बारे में भी, इसी नजरिए से, जातिवादी खांचे में स्वयं को उच्च समझ कर ही सोचेगा !
जाति और क्षेत्र का यह ऐसा कीड़ा है जो लोगों की जिंदगी
के तमाम प्रमुख सवालों को हाशिये पर डाल देता है. पढे-लिखे और आधुनिक दिखने वाले लोग
भी जाति, क्षेत्र और धर्म की इस गंदगी में स्वयं को लपेट कर धन्य समझते हैं. बीते दिनों
चुनाव मैनेजमेंट करने वाली एक प्रसिद्ध कंपनी से जुड़े एक मित्र ने उत्तराखंड के बारे
में जानकारी के लिए मुझे फोन किया. दूसरी बार जब उन्होंने मुझे फोन किया तो बोले कि
आपके यहां गढ़वाल-कुमाऊँ और जाति, चुनाव में प्रमुख फैक्टर है.
किसी को मंत्री बनाया जाना,मंत्री न बनाया जाना,मंत्रिमंडल से हटाया जाना, किसी जाति या क्षेत्र की उपेक्षा
या महत्व दिया जाना, कैसे हो सकता है,यह
समझ से परे है. इतने छोटे से राज्य में जब
क्षेत्र और जाति की जकड़न से मजबूती से बंधे रहेंगे,उसके पार नहीं
सोच पाएंगे तो जाहिर है कि बदले में ठगे और छले ही जाएँगे ! कुएं भर के राज्य में भी
जब सोच चुल्लू भर की होगी तो राज्य क्या खाक आगे बढ़ेगा !
जाति क्षेत्र की इस राजनीति से लोग कैसे छले जानते हैं,उसका एक किस्सा सुनिए. 2002 में उत्तराखंड विधानसभा के पहले चुनाव में कॉंग्रेस
की जीत के बाद एनडी तिवारी उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बनाए गए. तिवारी अलग उत्तराखंड
के घनघोर विरोधी थे, लेकिन मुख्यमंत्री बनना उन्होंने कबूल कर
लिया. तिवारी के मुख्यमंत्री बनते ही गढ़वाल में लोग जगह-जगह गढ़वाल की दुर्दशा का रोना
रोते और चर्चा करते कि कुमाऊँ को तो तिवारी ने चमका दिया है,
वहां विकास की गंगा बहा दी है. असलियत यह थी कि तिवारी देहारादून से बोर होते थे तो
पंतनगर विश्वविद्यालय के गेस्ट हाउस में जा कर सो जाते थे. पर गढ़वाल में लोग कुमाऊँ
को तिवारी द्वारा चमका देने के दावे करते रहते थे. 2004 में नैनीताल जिले के एक दूरस्थ
इलाके में मेरी ऐसे बुजुर्ग से मुलाक़ात हुई जो एनडी तिवारी के राजनीतिक जीवन को भली-भांति
जानते थे,कुछ बातों में वे तिवारी के प्रशंसक थे,कुछ बातों में आलोचक.
मैंने उनसे कहा कि गढ़वाल में तो लोग कहते हैं कि तिवारी
ने कुमाऊँ को चमका दिया है पर यहां तो कुछ नहीं दिख रहा है. वे छूटते ही बोले- तिवारी
जी करना तो चाहते हैं, कुमाऊँ का विकास पर ज्यादा मंत्री तो
गढ़वाल के हैं,वे तिवारी जी को करने ही नहीं दे रहे ! इस तरह गढ़वाल
में कहते थे कि तिवारी जी ने कुमाऊँ में विकास का चमत्कार कर डाला और कुमाऊँ में बताते
थे कि गढ़वाल के मंत्री, तिवारी जी को विकास करने ही नहीं दे रहे
हैं ! जाति-क्षेत्र की राजनीति की यही हकीकत है. इसमें जाति-क्षेत्र की राजनीति के
दम पर कुर्सी पाने वाले कुछ न करके भी मौज में रहते हैं और जाति-क्षेत्र के लिए सब
कुछ कुर्बान करने वाले हमेशा ही छले जाने को अभिशप्त हैं, समाज
में द्वेष और टूटन बढ़ेगी, एक नकली अहंकार के सिवा उनके हाथ कुछ
नहीं आना है,.
-इन्द्रेश मैखुरी
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