23 जुलाई को क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद का जन्मदिन होता
है. 1906 में इसी दिन उनका जन्म हुआ था. हालांकि यह जन्मतिथि किसी दस्तावेज़ में दर्ज
नहीं है. उनके माता को भी उनकी जन्मतिथि का ठीक से अंदाज नहीं था. आजाद के साथी डॉ.
भगवानदास माहौर ने उनकी माता जी से 1951 में उनके जन्म के समय आदि की दरियाफ्त करने
के बाद कई तरह की गणनाओं आदि के आधार पर इस तिथि का निश्चय किया था. डॉ. भगवान दास
माहौर की पुस्तक “यश की धरोहर” में इसका विस्तार से उल्लेख किया है. अपने एक पूर्व
लेख में भी मैंने इस प्रसंग का जिक्र किया था. आजाद और उनके साथियों के बारे में कभी
और विस्तार से लिखूंगा.
थोड़ी चर्चा चन्द्रशेखर आजाद की वैचारिकी पर भी कर लेनी
चाहिए. आम तौर पर उनके बारे में यह धारणा बनाने की कोशिश की जाती है कि वे कुछ धार्मिक
प्रवृत्ति के आदमी थे. जबकि उनके समकालीन साथियों के लिखे हुए को पढ़ने से स्पष्ट होता
है कि आजाद मनुष्य द्वारा मनुष्य के किसी भी तरह के शोषण के विरुद्ध और समाजवाद की
स्थापना के हिमायती थे.
क्रांतिकारी आन्दोलन के पुरोधाओं में से एक और इस आंदोलन
के नायकों के व्यक्तित्व और वैचारिकी को संस्मरणों के जरिये सामने लाने वाले शिव वर्मा
ने अपनी पुस्तक-संस्मृतियां- में चन्द्रशेखर आजाद के वैचारिक
पक्ष को विस्तार से दर्ज किया है.
शिव वर्मा लिखते हैं कि “आजाद ने 1922 में क्रांतिकारी दल में प्रवेश किया था. उसके बाद काकोरी के संबंध में फरार होने तक उन पर दल के नेता पंडित रामप्रसाद बिस्मिल का काफी प्रभाव था. बिस्मिल आर्य समाजी थे और आजाद पर भी उस समय आर्य समाज की काफी छाप थी. लेकिन बाद में जब दल ने समाजवाद को लक्ष्य के रूप में अपनाया और आजाद ने उसमें मजदूरों-किसानों के उज्ज्वल भविष्य की रूपरेखा पहचानी तो उन्हें नयी विचारधारा अपनाने में देर न लगी.”
दल के जिस नाम के बदलाव के संदर्भ में शिव वर्मा जी ने
लिखा है, उसके बारे में ज्ञातव्य है कि 8-9
1928 को दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में देश भर के क्रांतिकारियों की बैठक हुई.
इसमें भगत सिंह ने दल का नाम, हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से बदलकर हिंदुस्तान सोशलिस्ट
रिपब्लिकन एसोसिएशन करने का प्रस्ताव रखा. इसके पीछे भगत सिंह का तर्क था कि दल के
नाम में ही आजादी को लेकर उसके स्पष्ट उद्देश्य का खुलासा होना चाहिए. चन्द्रशेखर आजाद
के साथी विश्वनाथ वैशम्पायन ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि “श्री आजाद इस परिवर्तन
से चौंके अवश्य परंतु चर्चा के पश्चात उन्होंने यह परिवर्तन स्वीकार कर लिया. वे यही
सोचते थे कि रिपब्लिकन शासन व्यवस्था में समानाधिकार का
अधिकार तो निहित होगा ही. परंतु चर्चा के बाद उन्हें यह समझते देर न लगी कि रिपब्लिकन
शासन व्यवस्था में तो यह भी संभव है कि गोरी नौकरशाही के स्थान पर काली नौकरशाही स्थापित
हो तथा पूंजीपति अपना प्रमुख प्रभुत्व स्थापित कर जनसाधारण का शोषण करता रहे. इसलिए
जिस जनता की शक्ति पर स्वतंत्रता प्राप्त होगी उसे सुस्पष्ट शब्दों में विश्वास दिलाना
अनुचित न होगा और यह विश्वास दल के नाम में
सामाजवादी शब्द जोड़कर दिलाया जा सकता है.”
फिरोज़शाह कोटला
की उक्त बैठक में पार्टी का सैन्य विभाग अलग से बनाने का फैसला भी हुआ और उसका नाम
रखा गया- हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी और आजाद उसके कमांडर-इन-चीफ़ यानि सेनापति
बनाए गए.
उक्त ब्यौरे से चंद्रशेखर आजाद और उनके वैचारिक चिंतन
व उसकी समाजवादी दिशा को स्पष्ट तौर पर समझा जा सकता है.
आजाद के वैचारिक विकास पर शिव वर्मा- संस्मृतियां- में
और प्रकाश डालते हैं. वे लिखते हैं- “लिखने-पढ़ने के मामले में आजाद की सीमाएं थीं.
उनके पास कॉलेज या स्कूल का अंग्रेजी सर्टिफिकेट नहीं था और उनकी शिक्षा हिन्दी तथा
मामूली संस्कृत तक सीमित थी. लेकिन ज्ञान और बुद्धि का ठेका अंग्रेजी जानने वालों को
ही मिला हो ऐसी बात नहीं है. यह सही है कि उस समय तक समाजवाद आदि पर भारत में बहुत
थोड़ी सी पुस्तकें थी और वे भी केवल अंग्रेजी में ही. आजाद स्वयं पढ़कर उन पुस्तकों का
लाभ नहीं उठा सकते थे, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि आजाद उस
ज्ञान की जानकारी के प्रति उदासीन थे. सच तो यह है कि केंद्र पर हम लोगों से पढ़ने-लिखने
के लिए जितना आग्रह आजाद करते, उतना और कोई नहीं करता था. वे
प्रायः किसी न किसी को पकड़कर उससे सिद्धान्त संबंधी अंग्रेजी की पुस्तकें पढ़वाते और
हिन्दी में उसका अर्थ करवाकर समझने की कोशिश करते. कार्ल मार्क्स का ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ दूसरी बारी आदि से अंत तक मैंने
आजाद को सुनाते समय ही पढ़ा था ....................................... शोषण का अंत, मानव मात्र की समानता की बात और श्रेणी रहित समाज की कल्पना आदि समाजवाद की
बातों ने उन्हें मुग्ध सा कर लिया था. और समाजवाद की जिन बातों को जिस हद तक वे समझ
पाये थे उतने को ही आजादी के ध्येय के साथ जीवन के संबल के रूप में उन्होंने पर्याप्त
मान लिया था.”
इस पूरे विवरण में सैद्धांतिक प्रश्नों पर स्वयं को पुष्ट
करने की ललक को समझा जा सकता है और उनके वैचारिक रुझान को भी साफ तौर पर पहचाना जा
सकता है.
समाजवाद के प्रति आकर्षण के कारणों में आजाद के व्यावहारिक
जीवन के अनुभवों की चर्चा करते हुए शिव वर्मा ने लिखा कि “ आजाद का समाजवाद की ओर आकर्षित
होने का एक और भी कारण था. आजाद का जन्म एक बहुत ही निर्धन परिवार में हुआ था और अभाव
की चुभन को व्यक्तिगत जीवन में उन्होंने अनुभव किया था. बचपन में भावरा तथा उसके इर्द-गिर्द
के आदिवासियों और किसानों के जीवन को भी वे काफी नजदीक से देख चुके थे. बनारस जाने
से कुछ दिन पहले बंबई में उन्हें मजदूरों के बीच रहने का अवसर मिला था. इसलिए, जैसा वैशम्पायन ने लिखा है, किसानों तथा मजदूरों के
राज्य की जब वे चर्चा करते तो उसमें उनकी अनुभूति की झलक स्पष्ट दिखाई देती थी.”
भारत में किसानों-मजदूरों का राज कायम करने के लिए शहादत
देने वाले, भारत की पहली सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के सेनापति
चंद्रशेखर आजाद को इंकलाबी सलाम.
-इन्द्रेश मैखुरी
1 Comments
और विस्तार से परिचय उपलब्ध कराए जाने का अनुरोध है ताकि बहरे सुन सके और उन्हें अंधे देख सकते हैं
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