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मैं भी बड़ा आदमी समझा जा रहा हूं आजकल !

 







अचानक मुझे यह भान हुआ कि मुझे भी आजकल बड़ा आदमी समझा जा रहा है. यह बड़ा आदमी समझने या सिद्ध करने का काम वे कर रहे हैं, जो मुझे जानते हैं, ना पहचानते हैं ! और यह सिलसिला ट्विटर से शुरू हुआ, जो फेसबुक पर भी पहुँच गया है.


हो यह रहा है कि 2012 की इंडिया टुडे की एक कटिंग प्रसारित की जा रही है और उसके जरिये मेरी लानत-मलामत करने की कोशिश की जा रही है. जिसका नौ साल पुराना बयान खोज कर लाया जा रहा है, वह छोटा आदमी तो नहीं होगा ना !


इस बीच मेरे भू-कानून पर बोलने और उस पर तथ्यात्मक रूप से बोलने व इस मामले में भाजपा की मंशा का खुलासा करने के बाद काफी लोग बड़े बिलबिलाए हुए हैं. उसी बिलबिलाहट और खिसियाहट में वे मेरा बयान का यह टुकड़ा जहां-तहां चिपका रहे हैं.


जो लोग बीते बीस-पच्चीस सालों से राजनीतिक सक्रियता के कारण मुझे जानते हैं, उन्हें मालूम है कि मेरा बयान इतना भर हो ही नहीं सकता. और यह भरोसा किसी पार्टी के दायरे में सीमित नहीं है. इसका उदाहरण यह है कि मेरे खिलाफ ऐसा अभियान चलाया जा रहा है, इसकी जानकारी मुझे ऋषिकेश में रहने वाले उत्तराखंड क्रांति दल के युवा साथी मोहित डोभाल जी से प्राप्त हुई. उन्होंने मुझे फेसबुक मैसेंजर पर मैसेज भेज कर कहा कि मैं इस बात का विश्वास ही नहीं कर सकता कि आप ऐसा बयान दे सकते हैं.


यह विश्वास ही मेरी पूंजी है, इसके लिए मोहित डोभाल जैसे तमाम साथियों का आभारी हूं, ऋणी हूं.


जिस बयान के प्रकाशित टुकड़े की बात हो रही है, वह 2012 का है. उत्तराखंड सरकार के मूल निवास के संदर्भ में लिए गए फैसले के बाद इंडिया टूडे के लिए तब यहाँ से खबर भेजने वाले पत्रकार ने मुझसे इस पर लिखित प्रतिक्रिया मांगी. मैंने डेढ़ पन्ने का टाइप किया हुआ बयान भेजा, पत्रिका में डेढ़ लाइन छपा. यह पत्रकार ने स्टोरी में अपने हिसाब से बयान एडजस्ट करने के लिए किया या इसके पीछे कुछ और वजह थी, मुझे नहीं मालूम. डेढ़ पन्ने के बयान को दो लाइन में छापे जाने से मुझे भी उस समय निराशा हुई पर यह नहीं मालूम था कि बरसों बाद वह टुकड़ा मेरे खिलाफ प्रोपेगेंडा करने के लिए इस्तेमाल किया जाएगा.


यह बड़ा रोचक है कि पहाड़ की सब ज़मीनें बेचने का कानून पास करवाने वाले त्रिवेंद्र रावत और भाजपा के खिलाफ लोगों का ध्यान न जाये, इसलिए मेरे खिलाफ  प्रोपेगेंडा किया जा रहा है. लेकिन यह झूठ चलेगा नहीं, उत्तराखंड की जनता हकीकत पहचान लेगी, यह मेरा भरोसा है. और हाँ ट्विटर को उन्माद-उत्पात की राजनीति करने वालों के जरख़रीदों की हवाले मत छोड़िए, वहाँ भी खम ठोकिए, उत्तराखंड के आंदोलनकारी-जनपक्षधर साथियों से अपील

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मेरा ट्विटर अकाउंट है- https://twitter.com/indreshmaikhuri


बहरहाल 2012 में दिये गए उक्त बयान का टेक्स्ट और स्क्रीनशॉट दोनों है.






 टेक्स्ट इसलिए कि बयान ठीक से पढ़ा जा सके और स्क्रीनशॉट इसलिए ताकि बयान के भेजने की तारीख की तस्दीक की जा सके.





दिसंबर 2012 का वह बयान पढ़िये और खुद आकलन कीजिये :


" उत्तराखंड सरकार ने ऐलान कर दिया है कि राज्य बनने के दिन पर यहाँ निवास करने वाला व्यक्ति यहाँ का मूलनिवासी माना जाएगा.पूरे देश में जो व्यवस्था संविधान सम्मत तरीके से लागू है,उसके अनुसार 1950 तक किसी राज्य में निवास करने वाले व्यक्ति वहाँ के मूल निवासी माने जाते हैं.इस तरह देखा जाए तो उत्तराखंड में मूल निवासी की एकदम नयी परिभाषा गढ़ी जा रही है.ये ऐसी परिभाषा है जो मूल निवासी होने और नहीं होने के अंतर को धुंधला करने वाली है.


राज्य में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को मूलभूत सुविधाएँ मिलनी चाहिए.भारत के संविधान का अनुच्छेद 19(1) (e)और (g) व्यक्ति को देश में कहीं भी निवास करने और व्यवसाय करने की स्वतंत्रता देता है.ये किसी भी व्यक्ति का मौलिक अधिकार है.इसलिए राज्य में बाहरी लोगों के आने के खिलाफ हो-हल्ला मचाना न केवल संविधान विरोधी और गैरकानूनी है बल्कि ये एक तरह से अंध क्षेत्रियातावादी उन्माद फ़ैलाने का उपक्रम है.लेकिन राज्य में पीढ़ियों से बसे हुए लोगों के जल,जंगल,जमीन जैसे संसाधनों पर पुश्तैनी हक-हकूक होते हैं,जो केवल मूल निवासियों को ही हासिल होते हैं.अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की श्रेणियाँ भी हर राज्य अलग-अलग तय करता है.सब को मूल निवासी मान लेने से अन्य राज्य में सामान्य श्रेणी कि कोई जाति,उत्तराखंड में आरक्षित श्रेणी में हो तो इसके दुरूपयोग की संभावना रहेगी.खास भौगौलिक स्थितियों में पीढ़ी दर पीढ़ी रहना व्यक्ति के रूप रंग से लेकर सारे व्यक्तित्व पर प्रभाव डालता है.जैसे कद का छोटा या लंबा होना.इसी भौगालिक विशिष्ठता के चलते ही उत्तराखंड के लोगों को सेना में भर्ती होने में कद और सीने की चौड़ाई में छूट मिलती रही है,जो कि उत्तर प्रदेश या दक्षिण के व्यक्ति को नहीं मिलती.जब सब को मूल निवासी मान लिया जाएगा तो बाहरी प्रदेशों से यहाँ बसे लोग भी जल,जंगल,जमीन जैसे पुश्तैनी हक-हकूकों और सेना में छूट पर भी दावा जता सकेंगे,ये अलग उत्तराखंड राज्य के औचित्य पर ही सवाल खड़ा कर देगा.


उत्तराखंड राज्य की मांग अलग राज्य की मांग नहीं थी,ये पर्वतीय राज्य की मांग थी.जरुर  बाल ठाकरे-राज ठाकरे मार्का पर्वतीय राज्य नहीं माँगा जा रहा था,जिसमें बाहरी होने के नाम पर किसी भी गरीब,मजदूर या बेरोजगार को धून दिया जाया.ये विषम भौगौलिक परिस्थितियों के अनुरूप विकास व उसमें हिस्सेदारी और विशिष्ठ सांस्कृतिक पहचान का आन्दोलन था.आज जो दिक्कत पैदा हो रही हैं,उसकी पृष्ठभूमि यहीं से तैयार हुई.जब राज्य बना तो वो भाजपा-कांग्रेस के कुचक्र के चलते, पर्वतीय राज्य नहीं था.बल्कि हरिद्वार की जनता के विरोध के बावजूद जबरन उन्हें उत्तराखंड में शामिल किया गया.पहाड़ में जनसँख्या कम होने के चलते विधान सभा सीटों का घटना हो या फिर स्थायी राजधानी पहाड़ में बनाने का सवाल हो,दिक्कतें तो उत्तराखंड के पर्वतीय राज्य ना होने के चलते ही हुई हैं.


इस पूरे प्रकरण में एक और सवाल जो विचारणीय है वो, यह कि मूल निवासी होने और नहीं होने का अंतर तो पुश्तैनी हक-हकूकों पर अधिकार से पैदा होता है.पूरे देश की तरह ही उत्तराखंड भी संसाधनों के लुटेरों की ऐशगाह बना हुआ है.जल,जंगल,जमीन जैसे संसाधनों को  कौडियों के मोल नीलाम किया जा रहे हैं.जिनके मूल निवासी होने के हक खत्म होने की चर्चा जोर-शोर से हो रही है,वे मूल निवासी का अधिकार छिनने से पहले ही संसाधनों से बेदखल हो कर अपनी ही जमीन पर शरणार्थी वाली स्थिति में धकेले जा रहे हैं.मूल निवास के मुद्दे  को अपनी अंध-क्षेत्रीयतावादी राजनीती के लिए खाद-पानी के रूप में देखने वालों का ध्यान इस तरफ तो नहीं जाता.


                                                -इन्द्रेश मैखुरी

                                         गढ़वाल सचिव,भाकपा(माले)"



       

इस बयान से आप उस अखबारी कतरन के प्रसारित किए जाने की हकीकत समझ सकते हैं.



-इन्द्रेश मैखुरी

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