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नरेंद्र सिंह नेगी जन्मदिन विशेष : उत्तराखंड के सपने के ध्वंस की गाथा- नौछ्म्मी नारेण






 

(लेख से पहले नोट : यह लेख हे.न.ब.गढ़वाल विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित पुस्तक- नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों में जनसरोकार- के लिए लिखा गया था. विश्वविद्यालय के प्रौढ़,सतत एवं प्रसार शिक्षा विभाग के प्रो.एस.एस.रावत जी का यह आइडिया था, जिसमें उन्होंने नेगी जी के अलग-अलग गीतों पर अलग-अलग लोगों से लिखवाया, मेरे हिस्से में नेगी जी का वह गीत आया, जिसने उत्तराखंड की राजनीति में हलचल मचा दी,वह गीत था- नौछ्म्मी नारेण. इस पुस्तक का सम्पादन- प्रो.एस.एस. रावत, डॉ.नंदकिशोर हटवाल और गणेश खुगसाल “गणि” ने किया और विनसर प्रकाशन, देहरादून ने इसे प्रकाशित किया. 23 सितंबर 2017 को देहरादून में इस पुस्तक का विमोचन हुआ. इस भूमिका के साथ 12 अगस्त को नरेंद्र सिंह नेगी जी के जन्मदिन के अवसर पर यह  लेख प्रस्तुत है)

 





 

वर्ष 2006 में आये एक गीत ने उत्तराखंड की राजनीति में तहलका मचा दिया.यह था उत्तराखंड के प्रख्यात लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी द्वारा लिखा,संगीतबद्ध और गाया गया गीत - “नौछ्म्मी नारेण”.इस गीत की लोकप्रियता और इसके द्वारा पैदा किया गया प्रभाव, अपने आप में एक मील का पत्थर है. उत्तराखंड की पहली निर्वाचित कांग्रेसी सरकार और उसके मुखिया एन.डी.तिवारी की सत्ता के अवसान में इस गीत ने फैसलाकुन भूमिका अदा की.


लेकिन क्या “नौछ्म्मी नारेंण” को सिर्फ इसी रूप में याद किया जाना चाहिए कि वह राज्य की पहली निर्वाचित सरकार और उसके मुखिया के उन कृत्यों का, जो भ्रष्टाचार और पतनशीलता के चरम को,छू रहे थे,काव्यात्मक,संगीतबद्ध विवरण पेश करता है ?वह ब्यौरा जो एक तरह से आम जनता के लिए कोई रहस्योद्घाटन भी नहीं था.बल्कि इसके ठीक उलट उन कृत्यों की जनता में पहले से चर्चा थी.नेगी जी ने उसे गीतबद्ध करके,जनता की बीच सरकार के कारनामों पर चलने वाली चर्चा की एक तरह से पुष्टि कर दी.सवाल यह कि तब यह गीत इस कदर लोकप्रिय क्यूँ हुआ?क्या सिर्फ जनता की बीच सरकार और एन.डी.तिवारी के कृत्यों पर चलने वाली खुसर-फुसर को, गीत के रूप में सुन कर ?


यह गीत आम लोगों की नब्ज को जहाँ छू रहा था,उसके सूत्र उत्तराखंड राज्य आन्दोलन के दौरान देखे गए सपनों के पहली निर्वाचित सरकार के ही काल में धराशायी होने में, देखे जा सकते हैं.गीत में नेगी जी कहते हैं कि -


“द्वी हज़ार द्वी मा पैला चुनौ कु

शंख बजे,रणसिंघा गरजे,

प्रजा ने स्वामी साह अर भगत साह तैं सियूँ रैण दे

अर भारा का चन्द्र बन्स्युं तैं राजगद्दी सौंप दिनी

जनता सुपिन्या दिखणी छै,

होणी-हुणक्याली का सुपिन्या,भली-भल्यार का सुपिन्या

आस-बिकास का सुपिन्या,रोजगार का सुपिन्या,

रंगीला सुपिन्या,पिंगला सुपिन्या,सुपिन्या ही सुपिन्या”


यानि की जब पहला चुनाव हुआ तो जनता की आँखों में ढेर सारे सपने थे,विकास के सपने,आगे बढ़ने के सपने,रोजगार के सपने और ऐसे ही बहुरंगी सपने,कई-कई तरह के सपने.नेगी जी, जब इन सपनों का गीत में जिक्र करते ,हैं तो एक तरह से उनको रंगिले-पिंगले सपने कह कर, उनका मखौल उड़ाते हैं.यह मखौल इसलिए भी कि जब वह उन सपनों को याद करते हुए गीत रच रहे हैं तो उन सपनों का हश्र उनके सामने हैं.


लेकिन ये सपने जो रंगिले-पिंगले होने के अलावा आस-विकास के सपने थे,भली-भल्यार के सपने थे,रोजगार के सपने थे,ये सपने आये कहाँ से थे ? ये सपने आये थे उत्तराखंड राज्य के आन्दोलन से.1994 में जब उत्तराखंड राज्य की मांग ने एक विराट जन आन्दोलन का आकार लिया तो अपनी तमाम वैचारिक अस्पष्टता के बावजूद,उसने जनता की राज्य के साथ जुड़ी आकांक्षाओं को जैसे पंख लगा दिए. सडक, बिजली, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार,पलायन जैसे तमाम मसलों के हल की कुंजी के रूप में अलग उत्तराखंड राज्य को देखा गया.चूँकि प्रचंड जनज्वार, राज्य के लिए सड़कों पर था,इसलिए जनता ऐसे राज्य की आकांक्षा संजोये हुए थी,जो पूरी तरह जनता के नियंत्रण में चलने वाला आदर्श लोकतंत्र होगा.जनता द्वारा राज्य को लेकर रचे गए यूटोपिया के साथ नेगी जी का गीतकार भी खड़ा नजर आता है.इसलिए राज्य आन्दोलन के बीच में वे अपने गीत में पूछ रहे हैं कि – “बोला भै बंधू,तुम तैं कनु उत्तराखंड चयणु चा”(बोलो भाई-बंधुओ तुम्हें कैसा उत्तराखंड चाहिए).और फिर उनका गीतकार मन उत्तराखंड के विभिन्न तबकों की तरफ से कुछ आदर्श किस्म की संकल्पना वाले जवाब दे रहा है.नेगी जी का गीतकार मन, इस गीत में ऐसा उत्तराखंड चाह रहा था जिसमे जात-पात का भेद भाव न हो,किसी तरह का द्वेष न हो,भूख और प्यास न हो और मनुष्यों में मनुष्यता हो.पहाड़ की श्रमशील महिलाओं की ओर से वे कहते हैं कि-घास लकड़ी हो,जंगलों पर अधिकार हो,पलायन करके किसी को परदेस न जाना पड़े.इसी तरह नेगी जी के इस गीत में बड़े बुजुर्ग चाहते हैं कि-गूलों में पानी हो,खेतों में हरियाली हो,खेती-बागवानी फूले-फले और सभी लोग मेहनती हों.युवाओं के लिए नेगी जी के गीतकार के सपनों का उत्तराखंड ऐसा है जिसमे-शिक्षा हो,रोजगार हो कोई बेकार(बेरोजगार) न हो.यहाँ तक कि नेगी जी के गीत में तो प्रधान और प्रमुख भी कह रहे हैं कि घर-घर में छोटे-छोटे उद्योग हों,दफ्तर में घूस-रिश्वत न हो और गाँव-गाँव का विकास हो.


उत्तराखंड आन्दोलन के दौरान कवि,कलाकार,गायक-गीतकार नरेंद्र सिंह नेगी ही ऐसा सपना नहीं देख रहे थे बल्कि आम जनता भी उत्तराखंड के आदर्श रूप का चित्र अपने मन-मस्तिष्क में बैठाये हुए थी.लेकिन 1994 के इस आदर्श कल्पना वाले राज्य और वर्ष 2000 में बनने वाले राज्य के बीच 6 साल का फासला था.जनता और उसके गायक की कल्पना वाले राज्य तथा सत्ता द्वारा गढ़े जाने वाले राज्य की बीच तो फासला कहीं अधिक था.इसे वर्षों में मापने लगें तो पता चलेगा कि जनता और सत्ता की सोच के बीच वर्षों का नहीं बल्कि कई प्रकाश वर्षों का फासला है.


यह राज्य में बनने वाली पहली कामचलाऊ सरकार के पदारूढ़ होने के साथ ही स्पष्ट हो जाता है कि उत्तराखंड जनता के सपनों और कवि कल्पना का आदर्श राज्य नहीं होने जा रहा है.यह “नौछम्मी नारेंण” की एकदम शुरूआती पंक्तियों में ही ध्वनित होता है,जिसमे नेगी जी कहते हैं कि-


”उत्तराखंड राज मा पैलो रज्जा थरपे गे भाजपा साह बंसी स्वामी साह,

स्वामी साह अर यूँ का दरबार्युन द्वी साल तक राज करे

राज क्या करे ठाट करे,पूजा-पाठ करे,चार को आठ करे

उत्तराखंड थैं उतणदंड करे,उत्तराँचल नाम धरे

अपणा गौलों पर फूल माळा पैरिनी अर निचंत ह्वे के स्ये गेनी”


(उत्तराखंड राज में पहला राजा पदास्थापित किया गया भाजपा शाह वंशी स्वामी शाह,

स्वामी शाह और उनके दरबारियों ने दो साल तक राज किया

राज क्या किया ठाठ किया,पूजा-पाठ किया,चार को आठ किया,

उत्तराखंड को सिर के बल खड़ा किया,उसका उत्तराँचल नामकरण किया

अपने-अपने गलों में फूल माला पहन,निश्चिन्त हो कर सो गए)


यह उत्तराखंड राज्य बनने के बाद का घटनाचक्र है.आम तौर पर “नौछम्मी नारेंण” गीत को सिर्फ उत्तराखंड की पहली निर्वाचित सरकार के मुखिया पर किये गए तीखे व्यंग्य के रूप में ही समझा गया.लेकिन गीत की इन शुरूआती पंक्तियों से स्पष्ट है कि वे नौछम्मी नारेंण” से पहले सत्तारूढ़ होने वालों को भी नहीं बख्शते.“नौछ्म्मी नारेंण” का किरदार उभारने के लिए तो आठ मिनट छब्बीस सेकंड के गीत में लगभग सात मिनट खर्च किये गए हैं.लेकिन भाजपा की पहली कामचलाऊ सरकार की क्षुद्रता का सारा चित्र तो वे चार पंक्तियों में ही खींच देते हैं.


इस गीत में नेगी जी ने भाजपा और कांग्रेस को उत्तराखंड में राज कर चुके दो राजवंशों के रूप में दर्शाया है.भाजपा को वे गढ़वाल में राज कर चुके टिहरी राजवंश के नाम पर शाह वंशी संबोधित करते हैं और कांग्रेस को कुमाऊँ में राज कर चुके चन्द्र वंश के तमगे से नवाजते हैं.यहाँ तक कि स्वामी को वे पहला मुख्यमंत्री नहीं,”पहला रज्जा” कहते हैं और जिस ‘नारेन’ (नारायण) के “नौछ्म्मी” चरित्र पर यह गीत केन्द्रित है,उन्हें “भारका”(भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस) चन्द्र बंस को पैलो रज्जा” कह कर ही संबोधित करते हैं. यह रूपक हुक्मरानों के राजसी तौर-तरीके की ओर इंगित करता है.यह हमारे लोकतंत्र की विडंबना है कि आज भी जो चुना जाता है,वह जनता का प्रतिनिधि नहीं शासक या फिर एक तरह से राजा ही बनता  है.उत्तराखंड के सन्दर्भ में तो यह विडम्बना और बड़ी हो जाती है कि एक प्रचंड जन आन्दोलन के परिणाम के तौर पर हम राजसी ठाठ-बाट वाले राजा किरदारों को चुनने के लिए अभिशप्त हैं.


लोकतंत्र में राजा चुने जाने का ही यह विद्रूप है कि हमें पहली निर्वाचित सरकार के मुखिया के रूप में वह व्यक्ति प्राप्त होता है जिसके बारे में स्थापित तथ्य को नेगी जी गीत में पुनः लोगों के स्मृति पटल पर ले आते हैं कि - “राज विरोधी रै सदनी पर राजगद्दी प्यारी रे”(राज्य विरोधी रहा सदा ही पर राजगद्दी प्यारी रे).एन.डी.तिवारी उत्तराखंड राज्य के गठन के विरोधी थे.यहाँ तक कि “राज्य मेरी लाश पर बनेगा”जैसे बयान और उत्तराखंड आन्दोलन के बीच में लखनऊ में पृथक राज्य के खिलाफ उन्होंने धरना भी दिया.लेकिन राज्य बनने के बाद जब कांग्रेस के अन्दर की खींचातान ने उन्हें मुख्यमंत्री का मौका दिया, तो जिस राज्य को वे अपनी लाश पर ही बनने देना चाहते थे,वे तपाक से उसकी गद्दी पर जा बैठे.इसीलिए नेगी जी उनके राज्य विरोधी रूप और राजगद्दी प्रेम पर तंज कसते हैं.


चूँकि “नौछ्म्मी नारेंण” के राज्य विरोधी होने की बात शुरू में हो गयी तो आगे का गीत तो “नौछम्मी नारेण” के सारे कारनामों का पर्दाफाश ही है,जो एक तरह से उनपर लगे राज्य विरोधी होने के तमगे की तस्दीक ही करता है.इस गीत में देखा जा सकता है कि किस तरह एन.डी.तिवारी राज्य को बना नहीं रहे थे,बल्कि वे राज्य की जनता को बना रहे थे,ठगा रहे थे,छल रहे थे,सब नियम-कानूनों को धता बता रहे थे.इसीलिए जब 91वें संविधान संशोधन के बाद 11 से ज्यादा मंत्री बनाना संभव नहीं रहा तो उन्होंने इस कानून की आंख में ही धूल झोंक दी और 250 से ज्यादा लाल बत्तियां बाँट दी.गीत में नेगी जी कहते हैं कि “खाजा बुखणा सि बांटीनी तिन लाल बत्युं का डोला”(चने-चबेने की तराह बाँट दिए लाल बत्तियों के डोले).जिस राजसी प्रवृत्ति की ओर गीत के शुरू में इंगित किया गया है,उसका तो भरपूर प्रदर्शन “नौछ्म्मी नारेंण” के दरबार में है.वे दरबारी पालते हैं,चारण-भाटों पर रीझते हैं और उन पर सब कुछ वारने को तैयार हैं,पूरा खजाना उनपर न्यौछावर करने को उद्यत हैं. इन दरबारियों,चारण-भाटों के लिए, बकौल नेगी जी, -”द्वी हाथोंन लुटौन्दी नारेणा खजानु सरकारी”(दोनों हाथों से सरकारी खजाना लुटाता है नारायण), “बायोग्राफी लेख्वारों नारेंणा तू बैतरणी तरोंदी”(बायोग्राफी लिखने वालों को तो वैतरणी पार कराने की हद तक जाने को तैयार है नारायण).


अपने गीत के इस पात्र “नारेंण” को नेगी जी “छली-बली” कहते हैं,जो बलशाली है और छलिया भी है,नित कई तरह के छल करता है.इस नौछ्म्मी नारेंण का बहरूपिये पन गीत में दर्ज है-


“विरोध्युं नाचौन्दी,परजा बेल्मौन्दी,

अफसरों पुल्योंदी,राजनीति की बांसुरी नारेणा पोड़ी-पोड़ी बजौंदी”


उसके बहरूपिये पन का ही कमाल है कि वह विरोधियों को अपनी ताल पर नचाता है,प्रजा को फुसलाता है और अफसरों को पुचकारता है और इस तरह सबको साधे रखता है.


उसके राज में जनता के साथ हुए छल और चाटुकारों की मौज,गीत इन अंतिम पंक्तियों में प्रकट होती है-


“दैणी देरादुण दरबार लग्यूं च

नकली राजधानी,दरबार्युं की मौज

दरबार्युं की मौज नारेणा,चकड़ैतूं की फ़ौज”


देहरादून में यह अवतारी पुरुष प्रकट हुआ.देहरादून को नेगी जी “नकली राजधानी” कहते हैं. नकली इसलिए क्यूंकि उत्तराखंड की असली राजधानी का फैसला अभी हुआ नहीं है और जनता की आकांक्षाओं की राजधानी गैरसैण है .राजधानी नकली तो राजा भी कोई वास्तविक नहीं है,लेकिन दरबारी और चाटुकार असली हैं और उसके राज में इन्हीं की मौज भी है.


इस गीत के धारदार व्यंग्य में “नौछ्म्मी नारेंण” की उपाधि से विभूषित उत्तराखंड के पहले चुने हुए मुख्यमंत्री के चरित्र के स्याह-श्वेत पहलुओं को बखूबी उभारा गया है.अश्लीलता और सस्तेपन से पूर्णरूपेण परहेज करते हुए, पूरी स्तरीयता के साथ कलयुग के “अवतारी पुरुष” के अन्तःपुर की गाथा को प्रकट किया गया है. गीत में “द्वारिका धीस किस्न की अन्वार वे फरें”, “चार बीसी बसंत की बहार वे फरें” “रूप को रसिया,फूलों को हौसिया” जैसी उपमाओं  को नौछ्म्मी नारेंण का किरदार प्रस्तुत करने के लिए प्रयोग किया गया है.श्रोता बखूबी समझता है कि द्वारिका धीश कृष्ण का कैसा अक्स नौछ्म्मी नारेण में दिखता है.या “चार बीसी” यानि अस्सी बसंत की बहार का आशय क्या है.और रूप का रसिया,फूलों का हौसिया तो अपने आप ही सब कुछ प्रकट कर देता है.एक ऐसे समय में जब अपने विरोधियों पर टिप्पणी करने के लिए लोग बेहद निचले स्तर पर उतर आ रहे हैं, “नौछ्म्मी नारेंण” शब्दों की ताकत का अहसास भी कराता है कि शालीन भाषा में भी, काव्यात्मक तरीके से, किसी के चारित्रिक दोहरेपन को उघाडा जा सकता है.


 “नौछ्म्मी नारेंण” कोई एक व्यक्ति नहीं है,यह हमारी व्यवस्था का प्रतिनिधि पात्र है.व्यवस्था कैसे जनता के साथ और उसके संघर्ष के साथ छल करती है,उसका प्रतीक “नौछ्म्मी नारेंण” है.हमारे “मनख्यूं मा हो मनख्यात”(मनुष्यों में हो मनुष्यता) के सपने पर सत्ता प्रतिष्ठान कैसे पलीता लगाता है,इसका आख्यान है, “नौछ्म्मी नारेंण”.लेकिन “नौछ्म्मी नारेंणों” की इस व्यवस्था से पार पाने का उपाय क्या है?क्या इसे ही नियति मान लिया जाए या इस पर कटाक्ष करके, अपने दिल की भड़ास निकाल ली जाए?इस व्यवस्था से तो पार पाना ही होगा,उस मनुष्यता के ख़्वाब के लिए,बेहतर मनुष्य होने के लिए,व्यवस्था में भी मनुष्यता हो, इसके लिए. इसका रास्ता नेगी जी भी एक दूसरे गीत में दिखाते हैं-


“द्वी दिनें की हौर छिन ई खैरी, मुट्ठ बोटी की रख

 तेरी हिकमत आजमाणु बैरी, मुट्ठ बोटी की रख “

(दो दिनों का और है कष्ट,मुट्ठी ताने रख/ तेरी हिम्मत आजमा रहा है बैरी,मुट्ठी ताने रख)


संकट बेशक दो दिनों का न हो पर रास्ता तो तनी हुई मुट्ठियों से ही निकलेगा.


-इन्द्रेश मैखुरी

    

       

 

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1 Comments

  1. भैजी इस गीत पर टिप्पणी आप ही लिख सकते थे
    👏👏👏👏

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