देश जब आज़ादी के 74 साल पूरे करके 75 वें साल में प्रवेश
करने जा रहा है, तब आज़ादी की लड़ाई में, अपना
सर्वस्व न्यौछावर करने वालों को याद करना जरूरी है. खास तौर पर भारत की आज़ादी की लड़ाई
में भगत सिंह और उनके साथियों की जो धारा है, उसे याद करना, जिनके पास आज़ादी के बाद कैसा देश बनाना है,उसकी सबसे
सुसंगत योजना थी,वे एक समाजवादी देश बनाना चाहते थे, मजदूरों-किसानों का राज कायम करने चाहते थे. यह विडंबना है कि इनमें से अधिकांश
1930 और 1931 के बीच शहीद हो गए. लेकिन जो जीवित रहे, वे सदैव
ही अपने शहीद साथियों के सपनों और यादों को अपने दिलों में सँजोये रहे.
चंद्रशेखर आज़ाद उस दल के सेनापति थे, जिसका नाम 08-09 सितंबर 1928 को दिल्ली के फिरोज़शाह कोटला मैदान में हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से बदलकर हिंदुस्तान
सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन रखने का निर्णय भगत सिंह के प्रस्ताव पर हुआ था. चन्द्रशेखर
आज़ाद, रामप्रसाद बिस्मिल के दल के साथ काम कर चुके थे और काकोरी
कांड में बच निकलने वाले संभवतः इकलौते थे. चन्द्रशेखर आज़ाद 27 फरवरी
1931 को इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में अंग्रेजी पुलिस से लड़ते हुए शहीद हो गए.
आज़ाद जब शहीद हुए तो उनके पिताजी का देहावसान हो चुका
था, लेकिन उनकी माता जगरानी देवी जीवित थीं. आज़ाद अपने माता-पिता की इकलौती जीवित
संतान थे, जो आज़ादी की लड़ाई में शहीद हो चुके थे. इस तरह देखा
जाये तो वे पूरी तरह बेसहारा हो चुकी थी. लेकिन आज़ाद के साथियों सदाशिव राव मल्कापुरकर, डॉ. भगवान दास महौर और विश्वनाथ वैशम्पायन ने
चंद्रशेखर आज़ाद की माता जगरानी देवी को बेसहारा नहीं रहने दिया. जगरानी देवी 1951 तक
जीवित रहीं और चन्द्रशेखर के इन साथियों की “अम्मा जी” बन कर रही. डॉ.भगवान दास महौर
ने लिखा है कि उन सब में भी सदाशिव राव मल्कापुरकर पर उनका सर्वाधिक स्नेह था. उनके
आने से सदाशिव को अपनी अम्मा मिल गयी थी और जगरानी देवी को “बचवा”. इन सबका अम्मा जी
पर इतना स्नेह था कि खुद धर्म, कर्मकांड आदि में विश्वास न होने
पर भी इन्होंने अम्मा जी को तीर्थ यात्रा करवाई. जबकि जब चंद्रशेखर आज़ाद जीवित थे तो उन्होंने कुछ
रुपये अपनी माता को तीर्थ यात्रा करवाने के लिए किसी साथी के हाथ भिजवाने चाहे तो इन्हीं
साथियों ने वे रुपये पार्टी के काम में यह कहते हुए खर्च कर दिये कि “मज़हब और तीर्थयात्रा
जैसी फालतू बातों से हम क्रांतिकारियों का क्या वास्ता ?” जब माता
जगरानी देवी का 1951 में देहावसान हुआ तो उनका अंतिम संस्कार भी उनके प्रिय “बचवा”
सदाशिव राव मल्कापुरकर ने ही किया.
आज के समय में जब लोग अपने बूढ़े माँ-बाप से मुक्ति पाना
चाहते थे, तब सोचिए कि उन आज़ादी की लड़ाई के मतवालों में कैसी अटूट एकजुटता थी कि एक
साथी के शहीद होने पर उसकी माँ आजीवन अन्य साथियों की माँ बनकर रही. इसमें निश्चित
ही उस विचार का महत्वपूर्ण योगदान था, जिसकी निमित्त इन युवाओं
ने अपना सब कुछ झोंक दिया.
इस क्रांतिकारी दल के एक प्रमुख सदस्य थे भगवतीचरण वोहरा.
वे सैद्धांतिक समझ, बुद्धिमत्ता और मेधा में भगत सिंह की
बराबरी के व्यक्ति थे. गांधी जी द्वारा लिखे गए लेख- “बम की पूजा” के जवाब में क्रांतिकारियों
की ओर से “बम का दर्शन” लेख का मूल प्रारूप भगवती चरण वोहरा द्वारा लिखा गया था. शिव वर्मा
के अनुसार अप्रैल 1928 में नौजवान भारत सभा के घोषणापत्र का मूल प्रारूप भी भगवती चरण वोहरा द्वारा ही लिखा गया था.
यही भगवती चरण वोहरा, 28 मई 1930 में
बम का परीक्षण करते हुए शहीद हो गए. लाहौर में रावी नदी के तट पर वे परीक्षण के लिए
बम को फेंकने ही वाले थे कि बम उनके हाथ में ही फूट गया. उनके साथी पहले इस दुर्घटना
की सूचना देने गए. फिर लौटे. उनकी पत्नी, जिन्हें लोकप्रिय तौर
पर दुर्गा भाभी के नाम से जाना जाता है, उनके अंतिम दर्शन करने
जंगल में जाना चाहती थीं. लेकिन बाकी साथियों ने रोक दिया,सुबह-सुबह किसी महिला को जंगल में जाता देख पुलिस को संदेह भी हो सकता है. चन्द्रशेखर
आज़ाद और अन्य साथी गए और भगवती चरण वोहरा को वहीं रावी तट पर रेत में दफना कर आ गए.
उनके दिलों में अपने साथी की शहादत का अफसोस था, लेकिन यह खतरा
भी था कि जंगल में चिता से उठता धुआँ पुलिस को आमंत्रित कर सकता है.
ये सभी बमुश्किल 22-25 वर्ष के युवा थे पर देश की मुक्ति
के प्रति उनका जुनून और अपने दुखों और सुखों पर अपने लक्ष्य को तरजीह देने में बेमिसाल
थे.
जब देश आज़ादी के 75 वें साल में प्रवेश कर रहा है तो ऐसे
आज़ादी के मतवालों को और अधिक जानने-समझने की जरूरत है, वे कैसा देश बनाना चाहते थे, इसे भी अधिक गंभीर हो कर
सोचने की जरूरत है.
-इन्द्रेश मैखुरी
संदर्भ :
1. यश की धरोहर - डॉ. भगवान दास माहौर
2. संस्मृतियाँ - शिव वर्मा
1 Comments
शानदार sir🙏🙏
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