मुजफ्फ़रनगर में किसानों का सैलाब उमड़ा है. बहुत बड़ा
मुजफ्फ़रनगर शहर किसानों के इस रेले को समेटने के लिए छोटा पड़ गया.
याद कीजिये साल भर पहले इस देश की महाशक्तिशाली हुकूमत
ने इन किसानों को दिल्ली के अंदर घुसने ने नहीं दिया था. फिर दबाव बढ़ा तो गृह मंत्री
ने इनको एक मैदान में समेटने की कोशिश की थी. कुछ आज्ञाकारी बन कर उस मैदान के अंदर
चले गए और एक दिन चुपचाप घर चले गए. ये जो आज्ञाकारी थे, वो आजकल इस आंदोलन
को तोड़ने के लिए सरकार के साथ कंधा मिलाने की कोशिश कर रहे हैं.
जिन्होंने दिल्ली की सीमाओं पर तंबू गाड़ा, हटे नहीं, डिगे नहीं, वे आज पूरे देश में इस आंदोलन को पहुंचा रहे हैं. सत्ता और उसका जरखरीद मीडिया बहुतेरी बार इस आंदोलन के खत्म होने के जश्न मनाने की तैयारी कर चुका है, एक-आध बार इस आंदोलन की आखिरी रात भी घोषित की गयी !
पर हर नयी सुबह ने इस आंदोलन में नयी जान डाल दी, रात के आँसू, सुबह आंदोलन की फसल को सींचने के काम आए.
मुजफ्फ़रनगर में इस किसान महापंचायत का होना बेहद महत्वपूर्ण
है. 2013 में मुजफ्फरनगर में अफवाह फैला कर भीषण सांप्रदायिक दंगे “आयोजित” करवाए गए.
मुजफ्फरनगर के इन सांप्रदायिक दंगों ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा में नयी जान
फूँक दी और उत्तर प्रदेश की सत्ता में उसके पहुँचने की राह सुगम कर दी. भारतीय किसान
यूनियन के नेतृत्व का एक हिस्सा भी उन दंगों की रौ में बह गया.
अब उसी मुजफ्फ़रनगर में किसान यूनियन, धार्मिक पहचान
को पीछे छोड़ फिर किसान पहचान के साथ न केवल खड़ी हो रही है, बल्कि धार्मिक
विभाजन की राजनीति को खुलेआम ललकार भी रही है. इस किसान आंदोलन का यह बड़ी उपलब्धि है कि इसने फिरकापरस्ती
और धार्मिक विभाजन की राजनीति की जड़ों पर कड़ी चोट की है.
यह इत्तेफाक है कि मुज्जफ़रनगर में किसानों की यह महापंचायत, धार्मिक कट्टरपंथियों
के खिलाफ प्रतिरोध का स्वर बुलंद करने के लिए कत्ल कर दी गयी गौरी लंकेश के शहादत दिवस
पर आयोजित हुई. बीते सात बरस में इस देश में जो छप्पन इंची हुकूमत कायम
की है, उसने इस देश में प्रतिरोध की छोटी से छोटी से आवाज़ को खामोश करने में सत्ता
की पूरी ताकत झोंक दी है. लेकिन प्रतिरोध के बीज को मिट्टी में मिला देने की उनकी कोशिशों
का नतीजा देखिये कि प्रतिरोध की फसल की हरियाली लहलहा उठी है.
-इन्द्रेश मैखुरी
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