साढ़े चार साल में उत्तराखंड में भाजपा के डबल इंजन की
सरकार में तीसरे खेवनहार यानि मुख्यमंत्री बनाए गए पुष्कर सिंह धामी ने एक काम जो बेहद
तत्परता से किया है,वो है प्रदेश को अपने होर्डिंग्स और फ़्लेक्स
से पाटना. कई जगह तो इन होर्डिंग्स की इतनी बहुतायत है कि ये दो नगरों को जोड़ दे रहे
हैं. जैसे आप देहरादून से मसूरी की ओर जायें तो पाएंगे कि सारे रास्ते भर होर्डिंग्स
लगे हुए हैं !
हजारों की तादाद में लगे इन होर्डिंग्स में एक प्रमुख
होर्डिंग है, जो बताता है कि नीति आयोग के एसडीजी इंडेक्स में राज्य
कानून व्यवस्था में पहले नंबर पर है. सड़कों पर गुजरते कई-कई बार इस “कानून व्यवस्था
में पहले नंबर पर”- वाले होर्डिंग पर नजर गयी.
04 अक्टूबर को जब उत्तराखंड सरकार ने पूरे राज्य में तीन
महीने यानि 31 दिसंबर 2021 तक रासुका यानि राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लगाने की घोषणा
की तो बरबस ही “कानून व्यवस्था में पहले नंबर पर” पर वाला
होर्डिंग याद आया.
ऐसा कोई उदाहरण याद नहीं पड़ता कि जिन राज्यों में कानून
व्यवस्था की स्थिति खराब हो, उन्होंने भी अपने राज्य में रासुका
लगाने के लिए ऐसी विज्ञप्ति निकाली हो.
रासुका लगाने के लिए जो अधिसूचना निकाली गयी है, वह कहती है कि राज्य में कुछ जगहों पर हिंसा की घटनाएं हुई और अन्य जगहों
पर हिंसा की घटनाएँ होने की “संभावना” है, इसलिए रासुका लगाई जा रही है. जब सारे राज्य के हिंसा की चपेट में जाने की
“संभावना” राज्य सरकार खुद देख रही है तो फिर उसके- “कानून
व्यवस्था में पहले नंबर पर”- वाले विज्ञापनी दावे का क्या हुआ ? जाहिर सी बात है कि या तो पूरे राज्य में हिंसा की “संभावना” जता कर विस्तारित
की जा रही रासुका गलत है या फिर विज्ञापनी दावा झूठा है !
पूरे राज्य में रासुका लगाने के लिए बीते दिनों जिस हिंसा
का जिक्र किया गया है, वो हिंसा कौन कर रहा है ? सांप्रदायिक भावनाएं भड़काने के काम में तो सत्ताधारी पार्टी भाजपा के ही लोग
लगे हुए हैं. जिस दिन रासुका के विस्तार वाला शासनादेश जारी हुआ, उसी दिन रुड़की के एक चर्च में भाजपा के लोगों ने तोड़फोड़, मारपीट और उपद्रव किया. उनके विरुद्ध तो कोई कार्यवाही नहीं हुई, अलबत्ता चर्च के लोगों के खिलाफ ही गंभीर धाराओं में मुकदमा दर्ज कर लिया
गया है. भाजपा के लोगों का चर्च पर जो भी आरोप हो लेकिन पहला सवाल तो यह है कि चर्च
में उपद्रव करने से पहले वहाँ लगा सीसीटीवी कैमरा भाजपा के लोगों ने क्यूं तोड़ डाला
? उन्हें कानून अपने हाथ में लेने का अधिकार किसने दिया ? क्या रुड़की के चर्च में उत्पात करने वालों के खिलाफ रासुका लगाएंगे मुख्यमंत्री
जी ?
यह भी जान लेते हैं कि राष्ट्रीय सुरक्षा कानून 1980 की
जिस धारा 3 की उपधारा 3 में प्रदत्त शक्तियों के उपयोग का शासनादेश हुआ है, वह क्या है.
राष्ट्रीय सुरक्षा कानून(रासुका) 1980 की धारा 3 केंद्र
या राज्य सरकार को अधिकार देती है कि यदि वह किसी व्यक्ति को राज्य की कानून व्यवस्था
या आवश्यक वस्तुओं अथवा सेवाओं की आपूर्ति में बाधक समझती है तो वह उसे निरुद्ध कर
सकती है, बंदी बना सकती है.
इसी अधिनियम की धारा 3 की उपधारा 3 में यह व्यवस्था है
कि यदि राज्य सरकार को लगे कि ऐसे ही हालात किसे जिले की सीमाओं के अंतर्गत बनने वाले
हैं तो राज्य सरकार ऐसे ही अधिकार जिला मजिस्ट्रेट या पुलिस कमिश्नर को दे सकती है.
उत्तराखंड में यही किया गया है, रासुका लगाने का अधिकार समस्त जिला मजिस्ट्रेटों को दे दिया गया है. तीन महीने
तक इसलिए दिया गया है क्यूंकि कानून में यह व्यवस्था है कि पहली बार में ऐसा तीन महीने
के लिए ही किया जा सकता है.
वैसे इसका एक रोचक पहलू यह कि रासुका लगाने का एक आधार-
आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत कालाबाजारी करना भी है. पर आवश्यक वस्तु अधिनियम को तो
कालाबाजारी करने वालों के पक्ष में मोदी सरकार पहले ही बेहद लचीला बना चुकी है तो उन
पर कार्यवाही करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता.
रासुका में निरुद्ध किए जाने और अन्य क़ानूनों में गिरफ्तारी
में क्या फर्क है ? सामान्य तौर पर किसी व्यक्ति को गिरफ्तार
किया जाता है तो उसे तत्काल गिरफ्तारी का कारण बताना अनिवार्य होता है. लेकिन रासुका
में यह व्यवस्था है कि गिरफ्तारी का कारण व्यक्ति को पाँच दिन में और अपवादस्वरूप पंद्रह
दिन में भी बताया जा सकता है.
रासुका 1980 की धारा 5 कहती है कि यदि किसी व्यक्ति को
निरुद्ध किए जाने का आदेश असपष्ट (vague), अस्तित्वविहीन (non-existent) , अप्रासंगिक (not relevant) या किसी अन्य कारण
से अवैध हो तब भी उस व्यक्ति को निरुद्ध करने का आदेश अवैध या अप्रभावी नहीं होगा.
यानि यह कानून सरकार को यह अधिकार देता है कि सरकार यदि किसी व्यक्ति को बंदी बनाना
चाहे तो वह बिना किसी सुसंगत आधार के भी ऐसा कर सकती है.
आम तौर पर अप्रिय घटनाओं को टालने या अपने विरुद्ध
आंदोलनों को रोकने के लिए सरकारें धारा 144 का प्रयोग करती हैं, जिसके तहत यह व्यवस्था
होती है कि पाँच या पाँच से अधिक व्यक्ति एक स्थान पर एकत्र नहीं हो सकते. किसी भी
अप्रिय या आक्रामक घटना अथवा आंदोलन को रोकने के लिए यह निषेधकारी उपाय
पर्याप्त समझा जाता है. लेकिन 144 के बजाय रासुका का आदेश ऐसा ही जैसे चाकू की जगह
तोप का इस्तेमाल करना.
कोई मुख्यमंत्री को धारा 144 और रासुका का फर्क समझाओ
भाई !
लेकिन ऐसा नहीं लगता कि रासुका का प्रयोग किसी अज्ञानता
के चलते या कम जानकारी के चलते हो रहा है. उत्तराखंड सरकार यदि ऐसे उत्पीड़नकारी
कानून का पूरे राज्य में विस्तार कर रही है तो जाहिर सी बात है कि उसकी मंशा जनता के
सवालों पर खड़े होने वाले आंदोलनों और उसके नेताओं का भारी दमन करना है. राज्य भर में
रासुका का विस्तार इस बात का संकेत है कि आने वाले दिनों में राजनीतिक विरोधियों और
आन्दोलनों के नेताओं के भीषण दमन का मंसूबा उत्तराखंड सरकार ने बांध लिया है. डबल इंजन, डबल दमन करने की
तैयारी में है !
-इन्द्रेश मैखुरी
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सड़कों में पटे विज्ञापन... धारा 144 की जगह रासुका - चुनाव से पहले की दस्तक का अंदेशा!
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