डियर कंगना, बचपन से पढ़ते आए थे, थोथा चना बाजे घना, पर हकीकत में यह कभी देखा नहीं सिर्फ सुना ही सुना,तुम्हें देखा तो समझ आया कि ये मुहावरा क्यूं बना !
पर इतना बताओ मोहतरमा कि तुमने जो काठ के घोड़े पर सवार हो कर फिल्म बनाई,तुम्हें क्या यही लगा कि वो कोई कहानी थी,फ़तांसी थी ?
प्यारी कंगना, मुगालते में न रहना, वो गुड्डे-गुड़ियों की,राजा-रानी की दास्तान न थी, तुम काठ के घोड़े पर
कैमरे के आगे भले ही गत्ते की तलवार लहरा आई हो पर वह असली तलवार थी,जो लक्ष्मीबाई ने लहराई थी,वह हकीकत में बलिदान हुई
थी !
और अकेली लक्ष्मी बाई नहीं बल्कि दो सौ बरस के
अंग्रेजी राज के खात्मे के लिए हिंदुस्तानियों की कई पीढ़ियों ने अपनी कुर्बानियाँ
दी, तोप से उड़ाए गए, फांसी पर लटकाए गए पर उनके कदम
नहीं डगमगाए ! और तुम कहती हो कंगना रानी कि आजादी भीख में मिली ? भीख
मांगने के लिए जान की बाजी नहीं लगानी पड़ती,कुर्बानी नहीं
देनी पड़ती, केवल दीन-हीन होना पड़ता है,याचक
मुद्रा अपनानी पड़ती है ! जो तोप से उड़ाए गए जो फांसी चढ़े,वो
याचक नहीं थे,जिन्होंने बरसों-बरस जेलें काटी,अंग्रेजों की यातनाएं सही वे तो याचक न थे,वे
भिखमंगे न थे ! अलबत्ता जिन्होंने दया
याचिका लगाई, वे दया के भिखारी थे,अंग्रेजों
ने उन्हें दया की भीख ही नहीं दी बल्कि पेंशन की भिक्षा और दी !
कुछ दंगाई तब भी थे, जो हिंदू-मुस्लिम
फसाद करवा रहे थे, जो कह रहे थे कि यह अंग्रेजों से लड़ने का नहीं
चरित्र निर्माण का वक्त है ! अंग्रेजों से न लड़ कर उनका चरित्र कैसा बना, वह तो दिख ही रहा है !
पर बाकी तो
सब लड़ाके थे,सब का रास्ता भले अलग था पर थे सब लड़ाके, किसी के आगे न झुकने वाले. उनका दम था कि दुनिया में जिस ब्रिटिश
साम्राज्य का सूर्य कभी अस्त न होता था, उन्होंने इस मुल्क
में उसकी बत्ती गुल कर दी.
कंगना बेबी जिनके राज में आज़ादी मिलने का तुम दावा कर रही हो,वे तो उस आजादी की 75वीं वर्षगांठ पर
अमृत महोत्सव मना रहे हैं, जिसे तुम भीख में
मिला बता रही हो ! तुम लोग पहले घर के अंदर
फैसला क्यों कर लेते कि-पप्पा नो सलेब्रेशन्स फ़ॉर दिस भीख वाली आज़ादी, वी विल सेलिब्रेट ओनली यूअर वाली
आज़ादी ! अपनी दूसरी बहन के साथ भी तुम्हें फैसला कर लेना चाहिए कि लीज में मिली कि
भीख में मिली ! कम से कम उससे लेकर लीज डीड ही देख लेती ! लीज की डीड तो कोई है
नहीं पर तुम लिजलिजों की डीड्स यानि हरकतें बहुत खराब हैं !
वैसे आजादी की लीज,आजादी की भीख जैसा यह कचरा उसी 2014 के बाद की उपज है, जिसे तुम असल आज़ादी बता रही हो. खुद को सर्वाधिक राष्ट्रवादी कह कर
भगत सिंह की फांसी की तारीख
14 फरवरी बताने वाला कचरा भी तभी से सतह
पर तैरने लगा.
ऐसी कूढ़मगजी से तो निश्चित ही आज़ादी चाहिए.
तुम्हारे जैसों का दिमाग तो अब भी कैद में है और जहर से भरा है. ऐसे कैद और विष बुझे दिमागों की आज़ादी तो सचमुच आना बाकी है, पर फिक्र न करो,हम-आज़ादी के मतवालों के वारिस,जहर भरे दिमागों को भी आज़ाद करा कर ही
मानेंगे.
-इन्द्रेश मैखुरी
1 Comments
We can't ignore the sacrifice of extremists.
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