त्रिवेंद्र भाई, सुनते हैं कि कल आप केदारनाथ की यात्रा
पर गए और वहां तीर्थ पुरोहितों ने आपको मंदिर में नहीं घुसने दिया. आपके समर्थक और
कुछ इंसाफ पसंद लोग भी इस बात को लेकर तीर्थ पुरोहितों की काफी लानत-मलामत कर रहे हैं.
पर आपके फेसबुक पोस्ट से तो लग नहीं रहा कि
आप रोके गए !
आप तो फेसबुक में मुस्कुराता फोटो ऐसे चिपकाए हुए हैं, जैसे दंगल में पिटा हुआ पहलवान फोटो सेशन कराने आया हो !
जिस देवस्थानम बोर्ड को लेकर यह रार मची है, उसके बारे में समझने के लिए इस लिंक पर जाएँ : https://www.nukta-e-najar.com/2021/06/genie-of-devsthanam-board-out-of-bottle.html
बहरहाल मुझे भी इस बात का बेहद अफसोस है त्रिवेंद्र भाई
कि आपको केदारनाथ में मंदिर में नहीं घुसने दिये गया, आपके विरुद्ध नारे लगाए गए, आपको काले झंडे दिखाये गए
!
मुझे यह अफसोस इसलिए है कि क्यूंकि आपके साथ यह सलूक अब
किया जा रहा है, जबकि आप चूँ-चूँ का मुरब्बा हो चुके हैं, अब आप न पिद्दी रह गए हैं, न पिद्दी का शोरबा, या ठेठ पहाड़ी शैली में कहें तो अब न आप तीन में हैं और न तेरह में ! सत्ता
की रस्सी आपकी पूरी जल चुकी, कस-बल आपके जो भी बचे हों, वे ढीले किए जा रहे हैं !
होना तो यह चाहिए था कि आपको इस सब का सामना तब करना पड़ता
जब उत्तराखंड के मुख्यमंत्री की कुर्सी,बिल्ली के भागों फूटे
छींके की तरह आपकी गोद में आ गिरी थी. तब आपने भी सोचा कि जिसका मामा कंस है,उसका कोई क्या उखाड़ सकता है ! आपने किसी से भी सीधे मुंह बात करना छोड़ दिया
! उस समय चार जगह आपके साथ ऐसा सलूक हो जाता तो शायद आपकी अक्ल कुछ ठिकाने पर रहती.
लेकिन उस समय सत्ता के मद में आप इस कदर उन्मत्त थे कि
किसी हस्ती को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे ! बंदर के हाथ उस्तरा आना कितना खतरनाक
हो सकता है, यह कल्पना ही की जा सकती है, बंदर के हाथ हल्दी आने पर भी उसकी बर्बादी ही होनी है. सत्ता, उस्तरा और हल्दी दोनों हो सकती, शर्त यह है कि वह किसी
अनाड़ी बंदर वाली प्रवृत्ति के व्यक्ति के हाथ न पड़ी हो ! अफसोस आपके राज में ऐसा ही
हुआ !
एक शिक्षिका आपके राज में ट्रांस्फर जैसी साधारण मांग
करने आई और आपने सरेआम उससे दुर्व्यवहार किया, गिरफ्तार करवाया और
जेल भिजवा दिया. छोटे-छोटे बच्चों ने आपके खिलाफ फेसबुक पर टिप्पणी लिख दी और वे जेल
भिजवा दिये गए, उनके विरुद्ध मुकदमें कायम कर दिये गए ! अभी इसी
1 मार्च को दिवालिखाल में सत्ता के मद में क्या तांडव मचवाया आपने पुलिस से, महिलाओं को तक दौड़ा-दौड़ा कर पीटा गया. पहाड़ में ऐसा लाठीचार्ज अभूतपूर्व था.
तुर्रा ये कि आपके जिन प्रिय पात्रों को आपको मंदिर जाने से रोके जाने पर भारी कष्ट
है, वे उस दिन ताबड़तोड़ पुलिस की लाठी का शिकार होने वालों को
आतंकी सिद्ध करने पर तुले थे !
कल भी अगर आप
मुख्यमंत्री होते तो ये सारे तीर्थ पुरोहित जेल भेज दिये गए होते,आपकी शान में गुस्ताखी करने के लिए ! परंतु भाग की भताग से जो कुर्सी आपको
मिली थी, उस कुर्सी से आप चूंकि नीचे लमडा दिये गए हैं,इसलिए आज तीर्थ पुरोहितों की भताग लगने के बाद आपके पास कसमसाने के सिवाय कोई
रास्ता नहीं है.
याद रखिए कि जिन्होंने
त्रिवेंद्र रावत का विरोध किया, वे कोई भाजपा विरोधी लोग नहीं हैं, बल्कि उन में से कई भाजपा के पदाधिकारी भी हैं. पर सत्ता के मद में चूर त्रिवेंद्र
रावत ने इनसे सीधे मुंह बात करना तक गवारा नहीं किया. जो खेल कल केदारनाथ में देखा
गया, वह खेल तीर्थ पुरोहितों का नहीं त्रिवेंद्र रावत का शुरू
किया हुआ है. सत्ता मद में त्रिवेंद्र रावत उन्हें फूटी आँख देखने को तैयार नहीं थे
तो सत्ता से पैदल त्रिवेंद्र रावत को वे भी भूले नहीं हैं, नतीजा
कल केदारनाथ में सबने देख लिया !
कुर्सी पर बैठे हर शख्स को याद रखना चाहिए कि यदि वह त्रिवेंद्र
रावत होने की कोशिश करेगा, कुर्सी के गुमान में, सत्ता के आसमान से जमीन पर रहने वालों को कुचलने की कोशिश करेगा तो जमीन पर
उतरते ही लोग उसका त्रिवेंद्र रावत कर देंगे ! वह धर्म की झंडाबरदार पार्टी का झण्डा
थामे हुए भी मंदिर में नहीं घुस पाएगा !
इसलिए कुर्सी पर बैठे हुए लोगो सचेत रहो, मुख्यमंत्री रहते हुए आपके सम्बोधन में प्रयोग होने वाले जुमले-यशस्वी,लोकप्रिय मुख्यमंत्री- के बहाव में बह कर त्रिवेंद्र रावत न हो जाना. याद रखना
ये जुमले हकीकत नहीं महज़ चापलूसी है. त्रिवेंद्र रावत को भी चाटुकार-यशस्वी,लोकप्रिय मुख्यमंत्री संबोधित करते थे, यदि ये जुमले
हकीकत होते तो त्रिवेंद्र भाई की केदारनाथ में जो गत हुई,वो कतई
न होती !
सबक यह है कि मुख्यमंत्री रहो पर त्रिवेंद्र रावत वाली
अकड़ के साथ मुख्यमंत्री न रहो. मुख्यमंत्री रहते हुए त्रिवेंद्र रावत वाली ठसक रखोगे
तो फिर कुर्सी से उतरते ही वैसी ही दुर्गत भुगतोगे !
-इन्द्रेश मैखुरी
2 Comments
अभिमान तो रावण का नहीं रहा फिर ये क्या चीज हैं। केदारनाथ में क्रान्ति का बिगुल बजा है। मैं इसे शुभ संकेत मानता हूं।
ReplyDeleteअकड़, ठसक और गरूर ही ले डूबता है आख़िर मुखिया को भी। तब कला दर्पण की वरिष्ठ कलाकार व शिक्षिका उत्तरा पंत थपलियाल की गुहार से मुखिया के कानों में जूं तक नहीं रेंगी थी। उसे अपने फ़रियादी दरबार से खदेड़ने व सलाखों के पीछे ठूँसने का फ़रमान निकाला था।
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