उत्तराखंड में ज्यूं-ज्यूं चुनावी बेला नजदीक आ रही है, वायदों के झुनझुने बजाने का कॉम्पटिशन बढ़ता ही जा रहा है. चुनाव अवसर ही ऐसा
होता है,जबकि बारी-बारी से सत्ता में आने वाले भी वायदा करते
हैं कि बस इस बार फिर से सत्ता में ला दो और फिर देखो प्यारे वोटर, तुम्हारी खातिर आसमान को जमीन पर ला देंगे. चुनाव बीतता है तो वायदा करने
वाले आसमान पर और जनता जमीन पर रह जाती है. आसमान को जमीन पर उतारना अगले चुनाव तक
मुल्तवी कर दिया जाता है. चुनाव आता है तो वायदा होता है कि तुम्हारे गाँव तक सड़क पहुंचाएंगे, चुनाव के बाद गाँव बेचारा सड़क पर आ जाता है पर गाँव तक सड़क नहीं पहुँचती.
चुनाव में वायदा होता है कि पानी का इंतजाम होगा पर चुनाव के बाद झूठे वायदे करने वालों
को तक चुल्लू भर पानी मयस्सर नहीं होता !
चुनावी वायदों के संदर्भ में अशोक चक्रधर की “जंगल में
चुनाव” नामक कविता में बड़ा रोचक विवरण है :
“जंगल में थे नारे और वादे
वादों में छुपे हुए खूंखार इरादे
चूहों से कहा गया चील नहीं होगी
चीलों से कहा गया चूहा सप्लाई में ढील नहीं होगी
मधुमक्खियों से कहा गया भालुओं से प्रोटेक्शन होगा
भालुओं से कहा गया मधुमक्खी के सभी छत्तों पर तुम्हारा
रिज़र्वेशन होगा
हिरनों से कहा गया जीवन में अहर्निश सवेरा होगा
उल्लुओं से कहा गया दिन में भी अंधेरा होगा.....”
बहरहाल चुनाव में उलटबांसी भरे वायदों की यह खेप तो जनता
के लिए जारी की जाती है. लेकिन लगता है कि उत्तराखंड के आगामी विधानसभा चुनाव के लिए
कॉंग्रेस की कैम्पेन कमेटी के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने नेताओं के
लिए भी चुनावी घोषणा का चुग्गा फेंक दिया है. रावत साहब कह रहे हैं कि उत्तराखंड के
विकास के लिए विधान परिषद बहुत जरूरी है,वही राज्य में स्थिरता
लाएगा ! परोक्ष रूप से अपनी बिरादरी यानि सत्ता की मलाई के लिए जीभ लपलपाने वाली बिरादरी
को यह संदेश है कि विधान सभा की सत्तर सीटों में नंबर न आए तो घबराना नहीं, तुम्हारे लिए विधान परिषद का बंदोबस्त करवाऊँगा मैं !
यानि अब की बार चुनाव में टिकट की दौड़ से वंचित रहने वालों
को भी झुनझुना थमा दिया है,रावत साहब ने ! हालांकि विधान परिषद को
भी रावत साहब ने अपनी इच्छा की तरह ही प्रकट किया है. पर रावत साहब की इच्छाएं कैसी
होती हैं, ये सब जानते ही हैं. पहले उन्होंने इच्छा प्रकट की
कि वे उत्तराखंड में किसी दलित को मुख्यमंत्री देखना चाहते हैं. उसके कुछ दिन बाद वे
केदारनाथ गए और उन्होंने स्वयं खुलासा किया कि वे स्वयं के मुख्यमंत्री बनने की मन्नत
मांग आए हैं !
13 जिलों का छोटा सा राज्य तीन विधानसभा,दो सचिवालय,दो राजधानी के बाद क्या दो सदनों का बोझ झेल
सकने की स्थिति में है ? साठ हजार करोड़ रुपये से अधिक के कर्ज
में डूबा प्रदेश,जिसे कर्मचारियों की तनख्वाह देने के लिए भी
गाहे-बगाहे बाजार से ब्याज पर पैसा उधार लेना पड़ता है, क्या विधानसभा
में सत्तर सफ़ेद हाथी के बाद विधान परिषद के इक्कीस और सफ़ेद हाथी झेल सकने की स्थिति
में है ? बेरोजगारों के लिए स्थायी नियमित नियुक्ति के रास्ते
में तमाम रोड़े हैं पर नेताओं के रोजगार और पेंशन के नए-नए उपाय सोचे जा रहे हैं !
उत्तराखंड ऐसा राज्य है कि जब 2000 में, वो बना तो विधान परिषद वाले भी विधायक माने गए. पहली कामचलाऊ सरकार के मुख्यमंत्री
नित्यानन्द स्वामी, भगत सिंह कोश्यारी,इन्दिरा
हृदयेश, तीरथ सिंह रावत समेत बड़ी तादाद में उत्तर प्रदेश की विधान
परिषद वाले उत्तराखंड में विधायक माने गए. लेकिन राजनीतिक अस्थिरता तो शुरू वहीं से
हो गयी और थोड़े ही समय में नित्यानंद स्वामी को हटा कर भगत सिंह कोश्यारी को मुख्यमंत्री
बनाना पड़ा.
रावत साहब कह रहे हैं कि राज्य में राजनीतिक अस्थिरता
का समाधान विधान परिषद से हो जाएगा !
रावत साहब बता दें कि उत्तराखंड में जब भी राजनीतिक अस्थिरता पैदा हुई क्या वह विधानसभा न पहुँच सके किसी नेता की वजह से हुई ? उत्तराखंड में 2001,2002,2009,2012, 2014,2021 जब-जब राजनीतिक अस्थिरता पैदा हुई,वह सिर्फ और सिर्फ बड़े नेताओं की मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने की लालसा के कारण हुई. उत्तराखंड की समस्या यह है नहीं कि विधायाकों की संख्या सीमित है. उत्तराखंड की समस्या यह है कि मुख्यमंत्री की कुर्सी एक है और सारे बड़े नेता अपनी पार्टियों के भीतर ही उस कुर्सी को पाने के लिए गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा में अनवरत लीन रहते हैं. मुख्यमंत्री की कुर्सी,यहाँ-एक अनार,सौ बीमार-वाले मुहावरे को चरितार्थ करती प्रतीत होती है. फर्ज कीजिये कि विधान परिषद का आइडिया लाने वाले रावत जी से ही कह दिया जाये कि मुख्यमंत्री की कुर्सी तो नहीं मिल सकती पर विधान परिषद में आसन ग्रहण कर लीजिये तो क्या रावत साहब ऐसा करेंगे ? ऐसे में उनकी पार्टी की भी सरकार बन जाये तो कह वह स्थिर रह पाएगी ? रावत साहब तो सत्तर बसंत पार करने के बावजूद भी चाहते हैं कि किसी तरह मुख्यमंत्री की कुर्सी, फिर से उनके हाथ आ जाये और बाकियों को वे विधान परिषद का झुनझुना थमाना चाहते हैं ! ऐसा कैसे होगा रावत साहब !
-इन्द्रेश मैखुरी
2 Comments
स्टीक
ReplyDeleteबिना चुग्गा डाले नेता निष्क्रिय ही रहेंगें।
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