अखबारों में खबर है कि उत्तराखंड के चंपावत जिले के
टनकपुर में राजयकीय इंटर कॉलेज सूखीढांग में दलित भोजनमाता के हाथ का खाना
अधिकतर बच्चों ने नहीं खाया.
खबर को पढ़ते हुए सबसे पहला ख्याल मन में यह आता है
कि इन बच्चों को यह किसने सिखाया कि खाना यदि किसी दलित जाति की भोजनमाता ने बनाया
तो उसे नहीं खाना है ? सिखाने
वाले ने ऐसे खाने के क्या दुष्परिणाम बताए होंगे कि बच्चे भी खाना छोड़ने पर उतारू हो
गए ? दरअसल
जाति और जातीय भेदभाव की घुट्टी बचपन से बच्चों को पिला दी जाती है. किसी जाति विशेष के खाना पकाने से जिन्हें खाने के
प्रदूषित होने का खतरा है, प्रदूषण
तो उनके अपने दिमाग में भरा है, उपचार की जरूरत तो उनके अपने दिमागों को है.
सरकारी स्कूलों में मध्यान्न भोजन की व्यवस्था इसलिए
शुरू की गयी थी कि वहां कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि के बच्चे पढ़ते
हैं. लेकिन कई परतों वाले इस समाज को देखिये, वहां एक समान या एक
समान कमजोर पृष्ठभूमि वालों में श्रेष्ठता और कमतरी को नापने वाला जाति का मीटर है, जो सिर्फ मनुष्य की जाति के आधार पर उसकी श्रेष्ठता या कमतरी तय कर देता है
! बिना कुछ किए धरे सिर्फ पैदा होने के आधार पर श्रेष्ठ होने का यह फॉर्मूला समाज को
सिर्फ और सिर्फ पीछे की ओर ले जा सकता है, आगे बढ़ने में उसके
पांव में यह बेड़ी की तरह जकड़ा रहेगा.
आम तौर पर तो शिक्षा के ये आलय यानि घर इसलिए हैं
कि ये मनुष्य के दिमाग के खिड़की दरवाजे खोल सकें. लेकिन अगर यहां भी जाति-धर्म
के भेदभाव का कचरा इस कदर व्याप्त है तो जाहिर सी बात है कि इस जहर से उबर पाना हमारे
समाज के लिए अभी भी दूर की कौड़ी है. हमारा समाज कहना भी थोड़ा अजीब लगता है, जाति-धर्म के भेदभाव के खांचों में बंटा मनुष्यों का हुजूम, समाज है ही कहां, सभ्य समाज होने में उसे जाने कितने
बरस और लगेंगे !
बीते कुछ वर्षों में भारत के विश्वगुरु होने का जुमला
बार-बार उछलता रहा है. पर यह तो सोचो गुरु कि दिमागों में जाति का यह विष भर कर कैसे
विश्वगुरु होओगे ? जाति और
धर्म को लेकर जितना विष चहुं ओर फैलाये हुए हो, ऐसे में तो सिर्फ विषगुरु बनना संभव है !
-इन्द्रेश मैखुरी
1 Comments
शिक्ष विभाग के अंदर व्याप्त मानसिक विकृति को दर्शाता है यह वाक़्या।
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