उत्तराखंड में वामपंथी आंदोलन के वरिष्ठतम नेताओं में से एक और माकपा की राज्य कमेटी के पूर्व सदस्य कॉमरेड बच्चीराम कौंसवाल का 88 वर्ष की उम्र में देहावसान हो गया.
कॉमरेड बच्चीराम कौंसवाल उस पीढ़ी के वामपंथी नेताओं में से थे, जिन्होंने आजाद हुए मुल्क में युवा अवस्था में लाल परचम थामा और आजीवन उसे मजबूती से थामे रहे.
वे शिक्षक रहे, शिक्षक नेता भी रहे, पत्रकार, लेखक और इन सबसे ऊपर आजीवन एक प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट रहे.
90 के दशक में उत्तरकाशी से आते-जाते दीवारों पर उनके नाम की वाल राइटिंग देखी थी और 2000 के दशक में उनसे प्रत्यक्ष मुलाकात हुई. पहली बार उनसे सामने मिल कर यही रोमांच हुआ कि यह वही व्यक्ति हैं, जिनका नाम बहुत सालों दीवार पर पढ़ा है. जबसे उनसे परिचय हुए तब से उनका बेहद आत्मीय और मित्रवत व्यवहार हमेशा ही आकर्षित करता रहा. हालांकि उनके वामपंथी लाल परचम थामने के डेढ़ दशक के बाद की पैदाइश है मेरी, लेकिन, जीवन के आठ दशक के बाद भी वे दोस्त थे, कॉमरेड तो वे थे ही, जिस शब्द का अर्थ ही होता है- साथी.
दो-एक साल पहले देहरादून में सफदर हाशमी के शहादत दिवस पर एक कार्यक्रम में बोलते हुए मैंने जिक्र किया कि सफदर 1976 में गढ़वाल विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रवक्ता रहे थे. कार्यक्रम के बाद कॉमरेड बच्चीराम कौंसवाल ने कहा- जानते हो पार्टी की तरफ से मैं ही जाता था, सफदर से बात करने.
अक्सर वे खुश हो कर या चिंता प्रकट करने के लिए फोन करते थे. एक बार तिलाड़ी कांड पर केन्द्रित विद्यासागर नौटियाल जी के उपन्यास- यमुना के बागी बेटे- का पाठ करता हुआ, वीडियो मैंने पोस्ट किया. बेहद खुश हो कर उन्होंने मुझे फोन किया, बोले तुमने बहुत बढ़िया पाठ किया. स्वयं उन्होंने तिलाड़ी कांड पर एक पुस्तिका लिखी थी, जो अभी भी संदर्भ पुस्तिका के तौर पर खोजी-तलाशी जाती है.
उनको जानने वाले, मानने वाले और उनके प्रशंसक सभी राजनीतिक धाराओं में थे.
यह सर्व स्वीकार्यता एक प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट होने की हैसियत से ही उन्होंने हासिल की थी. वामपंथी आंदोलन की बेहतरी, हमेशा ही उनकी चिंता के केंद्र में रहती थी. अक्सर कहते थे- कुछ करो यार.
उनके जीवन के अंतिम वर्षों में भी वे देहरादून में होने वाले कार्यक्रमों और धरना-प्रदर्शनों में निरंतर ही शरीक होते थे.
उनसे अंतिम मुलाक़ात देहरादून में दिसंबर में हुए सीपीएम के राज्य सम्मेलन में हुई थी. उस दिन भी खूब हंस-हंस कर बात कर रहे थे. सेहत अपेक्षाकृत कमजोर लग रही थी, लेकिन ज़िंदादिली में कोई कमी न थी. उनकी ज़िंदादिली, दोस्तना व्यवहार और वैचारिक प्रतिबद्धता, उत्तराखंड में वामपंथी आंदोलन की साझी विरासत है. आपने आजीवन जिस लाल परचम को थामे रखा, हम उसे बुलंद करेंगे, कॉमरेड. अलविदा कॉमरेड, आखिरी सलाम, लाल सलाम !
2 Comments
सादर नमन🙏
ReplyDeleteएक यार चला गया गया। हमारी दोस्ती में उम्र कभी आड़े नहीं आयी। इस दोस्ती की शुरुआत बरस 1986 से हुई थी। पुरानी टिहरी में पीपल के पेड़ पर टिके एक खोकेनुमा इमारत जो लॉज, नाई की दुकान और माकपा का कार्यालय हुआ करता था उसकी मचान पर बैठ कर ये मुलाकातें आगे बढ़ी और फिर थम गयी। पिछले कुछ बरसों में थोड़ा मिलना - जुलना बढ़ा भी था। 'कभी घर आओ , बैठते हैं श्याम को' ये न्योता धरा का धरा रह गया। मेरे उकसाने पर उत्तरकाशी के कामरेड चन्दन सिंह राणा ने अपनी संघर्ष यात्रा को लिखने की शुरुआत की थी, आधी ही लिख पाये, उनके संस्मरणों में कामरेड कंसवाल का जिक्र है कि जैसे इतिहास के पन्नों से एक नायक उभर रहा हो ! आपके पैसों से पी हुई चाय, आपकी निश्छल हंसी, आपके सरोकार और ढलती काया के भीतर का विराट मानवीय व्यक्तित्व और सरोकार हमेशां याद रहेंगे, ऊर्जा देते रहेंगे ! लाल सलाम कामरेड बच्ची राम कंसवाल !!
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