सरकारी संस्थानों
में बहुत सारे कामों में अदालत के आदेश का हवाला दे कर वो तत्काल कर लिए जाते हैं.
लेकिन जब आदेश कुर्सी पर बैठे लोगों के मनमाफिक न हों तो अदालत के आदेश की यह दुहाई
जाने कहाँ बिला जाती है !
ऐसा ही एक मामला उत्तराखंड के इकलौते केंद्रीय विश्वविद्यालय- हे.न.ब.गढ़वाल विश्वविद्यालय, श्रीनगर(गढ़वाल) का है. जनवरी 2009 में गढ़वाल विश्ववियालय को केन्द्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा हासिल हुआ.
गढ़वाल विश्वविद्यालय में एक फार्मेसी विभाग है. गढ़वाल विश्वविद्यालय
जिस वक्त राज्य विश्वविद्यालय था, उस वक्त फार्मेसी विभाग स्ववित्त
पोषित विभाग के तौर पर चलता था. 2004 से पहले फार्मेसी विभाग में प्राध्यापकों की भर्ती, वॉक-इन-इंटरव्यू के जरिये पूर्णतः कॉन्ट्रैक्चुअल आधार पर होती थी.
2004 में फार्मेसी
विभाग में उसी तरीके से नियुक्तियाँ हुई, जिस तरह से विश्वविद्यालय
के अन्य विभागों में स्थायी एवं नियमित नियुक्तियाँ, विधिवत रूप
से गठित चयन समिति के जरिये होती हैं.इन नियुक्तियों का विश्वविद्यालय की सर्वोच्च
निर्णयकारी निकाय- कार्यपरिषद द्वारा अनुमोदन किया गया. इसी तरह की प्रक्रिया 2006
में भी अपनाई गयी. लेकिन नियुक्ति की पूरी वैधानिक प्रक्रिया अपनाए जाने के बावजूद, फार्मेसी विभाग में प्राध्यापक के तौर पर नियुक्त अभ्यर्थियों पर मनमानी शर्तें
थोप दी गयी और उनकी नियुक्ति को तीन साल के कांट्रैक्ट पर किया गया, जिसे विस्तारित किया जा सकता था.
15 जनवरी 2009 को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा पाने
के बाद गढ़वाल विश्वविद्यालय का फार्मेसी विभाग, स्व वित्त पोषित से
नियमित विभाग बन गया. इसके साथ विश्वविद्यालय अनुदान आयोग(यूजीसी) ने फार्मेसी विभाग
के शैक्षणिक पदों सहित विभिन्न विभागों में 110 शैक्षणिक पदों को 27 अप्रैल 2011 को
स्वीकृति प्रदान कर दी.
लेकिन विश्वविद्यालय ने 29 अगस्त 2011 को प्राध्यापकों
के रिक्त पदों पर नियुक्ति हेतु विज्ञापन जारी किया, जिसमें फार्मेसी
विभाग के वे पद भी शामिल थे, जिन पर 2004 से प्राध्यापक नियुक्त
थे और जिन्हें यूजीसी द्वारा नियमित पदों के तौर पर स्वीकृत किया जा चुका था. यह रोचक
है कि यूजीसी के साथ पत्राचार में विश्वविद्यालय, फार्मेसी विभाग
के उक्त पदों को भरा हुआ मानने की बात कर रहा था और दूसरी तरफ इन पर नियुक्ति के लिए
विज्ञापन भी जारी कर रहा था.
गढ़वाल विश्वविद्यालय द्वारा उनकी सेवाओं का मोल समझे जाने
के बजाय, उनके पदों को पुनः विज्ञापित किए जाने के खिलाफ फार्मेसी विभाग के प्राध्यापक, उत्तराखंड उच्च न्यायालय गए, जहां उन्हें राहत नहीं
मिल सकी. उच्च न्यायालय से राहत न मिलने पर फार्मेसी विभाग के उक्त प्राध्यापक गण उच्चतम
न्यायालय गए.
03 सितंबर 2021 को उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति उदय
उमेश ललित और न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी की खंडपीठ ने सोमेश थपलियाल एवं अन्य बनाम कुलपति, हे.न.ब.गढ़वाल विश्वविद्यालय एवं अन्य के मामले में फैसला सुनाया कि गढ़वाल
विश्वविद्यालय के फार्मेसी विभाग के प्राध्यापक चूंकि विधिवत नियुक्ति प्रक्रिया द्वारा
नियुक्त हुए हैं, इसलिए जिन पदों पर वे नियुक्त हैं, उन स्वीकृत पदों पर उनकी नियुक्ति को मौलिक नियुक्ति माना जाये और उन्हें
केंद्रीय विश्वविद्यालय अधिनियम 2009 के तहत स्थायी एवं नियमित प्राध्यापक को अनुमन्य
पे स्केल और अन्य सभी सेवा लाभ दिये जाएँ.
लेकिन गढ़वाल विश्वविद्यालय द्वारा 03 सितंबर 2021 के उच्चतम
न्यायालय के इस फैसले का अनुपालन नहीं किया गया. विश्वविद्यालय के लिए ये प्राध्यापक
निरंतर अपना योगदान सुनिश्चित करते रहे, पैटंट हासिल करते रहे, प्रोजेक्ट पुस्तकें, ऑनलाइन कोर्स और ई कंटैंट विकसित
करते रहे पर विश्वविद्यालय उच्चतम न्यायालय के आदेशों के बावजूद इनकी सेवाओं की एवज
में समुचित लाभ देने में आनाकानी करता रहा.
11 अप्रैल 2022 को उच्चतम न्यायालय ने फार्मेसी विभाग
के प्राध्यापकों के संदर्भ में दिये गए फैसले
का अनुपालन न करने के लिए विश्वविद्यालय को कड़ी फटकार लगाई. उक्त फैसले का अनुपालन
न करने के लिए विश्वविद्यालय की कुलपति प्रो.अन्नपूर्ण नौटियाल और कुलसचिव डॉ. अजय
कुमार खंडूड़ी को व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने का आदेश अदालत पहले ही दे चुकी थी और
वे उपस्थित हुए भी.
न्यायालय ने कहा कि विश्वविद्यालय के अधिकारियों का दायित्व
है कि वे न्यायालय के आदेश का अनुपलन करें
और ऐसा ना करना, जानबूझ कर अवज्ञा करना माना जाएगा, जिसका न्यायालय संज्ञान लेगा और अवमानना की कार्यवाही भी शुरू कर सकता है.
न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी और न्यायमूर्ति सीटी रविकुमार ने कहा कि वे विश्वविद्यालय
के अधिकारियों को एक अवसर और देते हैं कि वे फार्मेसी विभाग के प्राध्यापकों के मामले
में उच्चतम न्यायालय के आदेशों का अनुपालन सुनिश्चित करें अन्यथा अवज्ञा के लिए उनके
विरुद्ध कार्यवाही की जाएगी.
यह विडंबना ही कही जाएगी जो विश्वविद्यालय कानून की डिग्री
देता है, उस विश्वविद्यालय के सर्वोच्च अधिकारी गण, उच्चतम न्यायालय
के आदेशों की अवहेलना करने के मामले में न्यायालय की फटकार खा रहे है और विडंबना यह
भी है कि उच्चतम न्यायालय के आदेशों की अवहेलना भी विश्वविद्यालय के अधिकारी गण, अपने ही प्राध्यापकों के वाजिब हक देने के मामले में कर रहे हैं. विश्ववविद्यालय
की कुलपति महोदया को समझना चाहिए कि उच्चतम न्यायालय, देश की
सबसे बड़ी अदालत है, वो छात्र नेता नहीं है, जिनपर वो जब मर्जी तुनक कर दरवाजा बंद कर देती हैं ! फार्मेसी विभाग के प्राध्यापक
भी उनके सहकर्मी हैं, योग्य हैं, अर्ह हैं
और अपना वाजिब हक मांग रहे हैं तो तमाम रूखेपन के बावजूद थोड़ी संवेदनशीलता होनी ही
चाहिए !
-इन्द्रेश मैखुरी
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