एक तरफ कुछ उजड़े मकान हैं, ऐसे मकान जिन पर रंग-रोगन तो चमकदार है, लेकिन बाकी सब उजाड़ है और दूसरी तरफ पूर्व माध्यमिक विद्यालय के आंगन में सूनी, हताश-निराश आंखों के साथ बैठे महिला-पुरुष हैं.
यह नज़ारा है लोहारी गांव का.
लोहारी गांव, उत्तराखंड जलविद्युत
निगम द्वारा बनाई गयी व्यासी जलविद्युत परियोजना के लिए डुबो दिया गया. यह गांव उत्तराखंड
की अस्थायी राजधानी देहरादून से लगभग अस्सी किलोमीटर की दूरी पर है.
व्यासी जलविद्युत परियोजना 120 मेगावाट क्षमता की
परियोजना है. इसी से लगती हुई दूसरी परियोजना लख्वाड़ जलविद्युत परियोजना अभी बननी है.
ये दोनों ही परियोजनाएं यमुना नदी पर हैं. इसलिए आम तौर पर इन परियोजनाओं
का जिक्र लख्वाड़-व्यासी जलविद्युत परियोजना के रूप में
होता है. परियोजना
का शुरुआती विचार उन्नीस सौ साठ के दशक का है. लोहारी के ग्रामीणों के अनुसार व्यासी
जलविद्युत परियोजना का पहला सर्वे 1967 में हुआ था. इन ग्रामीणों का कहना है कि तब
व्यासी परियोजना में चालीस मेगावाट की तीन टरबाइन प्रस्तावित
थी. यानि 1967 से 2022 आते-आते केवल यही बदला कि चालीस मेगावाट की तीन टरबाइनों के
बजाय साठ मेगावाट की दो टरबाइनें लगाई गयी. हो सकता था कि तीन टरबाइनें होती तो लोहारी
गांव को डुबाने की जरूरत भी नहीं पड़ती.
जितना पुराना परियोजना का इतिहास है, उतना ही परियोजना के साथ संघर्ष का लोहारी गांव के लोगों का इतिहास है. ग्रामीण
बताते हैं कि 1972 में पहली बार मुआवजा सरकार की ओर से दिया गया. तब उनके बुजुर्गों
ने ऐतराज किया, जमीन के बदले जमीन की मांग उठाई. 1972 से अब तक
लोहारी के ग्रामीणों की यही मांग है कि उनको जमीन के बदले जमीन मिले.
व्यासी जलविद्युत परियोजना के निर्माण का वर्तमान दौर
2014 में शुरू हुआ. इस बार भी लोहारी के लोगों की मांग यही थी कि उनकी जितनी जमीन ली
जा रही है, उसके एवज़ में उन्हें उतनी ही जमीन अन्यत्र दे कर उनका
पुनर्वास किया जाये.
ग्रामीणों के अनुसार 2016 में अपने कार्यकाल की अंतिम
कैबिनेट बैठक में कॉंग्रेस की सरकार ने लोहारी गांव के लोगों के लिए विकासनगर के नजदीक
जीवनगढ़ में सरकारी रेशम फार्म की 11 हेक्टेयर जमीन पर लोहारी गांव के लोगों को बसाने
का प्रस्ताव पास किया. गौरतलब है कि लोहारी गांव के लोगों की कुल 17 हेक्टेयर जमीन
में से 08 हेक्टेयर जमीन व्यासी जलविद्युत परियोजना के लिए ले ली गयी है और शेष लख्वाड़
जलविद्युत परियोजना में ले ली जाएगी.
2017 में उत्तराखंड में भाजपा की सरकार सत्तारूढ़ हुई.
पहले ही मंत्रिमंडल की बैठक में मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत के नेतृत्व वाली
भाजपा सरकार ने लोहारी गांव को रेशम फार्म की जमीन पर बसाने के पूर्ववर्ती सरकार के
मंत्रिमंडल के फैसले को स्थगित कर दिया.
ग्रामीण बताते हैं कि परियोजना का काम तेजी से चलने लगा
तो 2018 में उन्होंने अपने गांव के पुनर्वास के लिए धरना-प्रदर्शन की शुरुआत की. ग्रामीणों
के अनुसार तब विकासनगर के भाजपा विधायक मुन्ना सिंह चौहान ने उनसे कहा कि आप धरना मत
दो, आपकी सब मांगें मनवायी जाएंगी. विधायक मुन्ना सिंह चौहान, प्रशासनिक अधिकारियों व जलविद्युत निगम के अधिकारियों के साथ गांव में आए
और उन्होंने ग्रामीणों से कहा कि धरना देने की जरूरत नहीं है, पंद्रह दिन के भीतर मैं आपके काम करूंगा. ग्रामीणों के अनुसार वे निरंतर विधायक
के संपर्क में रहे और विधायक आश्वासन देते रहे कि वे, लोहारी
के ग्रामीणों का काम कर रहे हैं. एक बार तो विधायक ने उन्हें यहां तक आश्वासन दे दिया
कि रेशम फार्म की जमीन उन्हें आवंटन होने का फैसला हो चुका है. आश्वासनों का यह दौर
तकरीबन तीन वर्ष तक चलता रहा.
इस बीच मार्च 2021 में उत्तराखंड में भाजपा ने अपनी ही सरकार में मुख्यमंत्री बदल दिया और त्रिवेंद्र सिंह रावत की जगह पर तीरथ सिंह रावत मुख्यमंत्री बनाए गए. तीरथ सिंह रावत, मुख्यमंत्री बनने के बाद जब विकासनगर आए तो विकासनगर के विधायक मुन्ना सिंह चौहान ने मंच से मुख्यमंत्री से लोहारी के विस्थापन करने की बात उठाई.
मंच, माला, ताली सब हुआ, बस नहीं हुआ तो विस्थापन !
सिर्फ आश्वासनों के झुनझुने से लोहारी वालों के सब्र का प्याला छलक उठा और 05 जून 2021 से उन्होंने फिर धरना देने का ऐलान किया. इसी दौरान 10 जून 2021 को विकासनगर में विधायक मुन्ना सिंह चौहान से वे फिर मिले. विधायक ने उनसे कहा कि वे चालीस साल से उन्हीं का काम तो कर रहे हैं. एक युवक ने विधायक से पूछा कि चालीस साल तो छोड़िए, चार साल का बताइये कि आपने चार साल में क्या किया. ग्रामीणों के अनुसार इतनी बात सुनते ही विधायक हत्थे से उखड़ गए और उन्होंने ग्रामीणों से बात करने से ही इंकार कर दिया.
ग्रामीण महसूस करते हैं कि विधायक काम नहीं करना चाहते थे, इसलिए सवाल को उन्होंने बहाना बना कर बात करने से इंकार कर दिया. ग्रामीणों के अनुसार तीन साल तक उन्होंने, हमारा बेवकूफ बनाया.
ग्रामीणों से यह पूछने पर कि वे राजनीतिक रूप से किसके
साथ हैं तो उनका कहना था कि पार्टी के रूप में नहीं,व्यक्ति के रूप
में वे लोग, मुन्ना सिंह चौहान के साथ ही रहे हैं और जब उनकी
पत्नी मधु चौहान, जिला पंचायत का चुनाव लड़ी तो एकतरफा वोट उन्हीं
को दिया. श्रीमति मधु चौहान, इस वक्त देहरादून जिला पंचायत की
अध्यक्ष हैं. ग्रामीणों के धरना-प्रदर्शन के दौरान उनकी राजनीतिक पक्षधरता के संबंध
में एक रोचक किस्सा ग्रामीण सुनाते हैं. वे कहते हैं कि एक युवा ने भाषण देते हुए कहा
कि चार महासू तो हमारे इष्ट पहले से हैं, लेकिन दो राजनीतिक महासू, हमने सिर पर और बैठा लिए हैं ! महासू जौनसार का प्रसिद्ध देवता है और राजनीतिक
महासू से उस युवा का आशय, इस इलाके के दो कद्दावर नेताओं- मुन्ना
सिंह चौहान (भाजपा) और प्रीतम सिंह(कॉंग्रेस) से है !
बहरहाल 05 जून 2021 से जो धरना शुरू हुआ तो वह अक्टूबर
2021 तक चला. 03 अक्टूबर को अलसुबह भारी पुलिस और पीएसी के ज़ोर से लोगों को धरना स्थल
से खदेड़ दिया गया और 17 लोगों को जेल भेज दिया गया. शांति भंग जैसी मामूली धाराओं में
हुए मुकदमें में शांतिपूर्ण धरना दे रहे ग्रामीणों को देहरादून की सुद्धोवाला जेल भेज
दिया गया. जिन धाराओं में मुकदमा हुआ था, उनमें उपजिलाधिकारी
(एसडीएम) जमानत देने के अधिकारी थे. लेकिन चूंकि भाजपा की सरकार ने ग्रामीणों का उत्पीड़न
करने की ठान ली थी, इसलिए एसडीएम, जमानत
देने की उस विधि सम्मत प्रक्रिया से बचते रहे, जिसके बारे में
उच्चतम न्यायालय कहता रहा है कि बेल (जमानत) नियम है और जेल अपवाद है.
सरकारी दमन का चरम देखिये कि एक मामूली मुकदमें में जमानत
के लिए ग्रामीणों को उच्च न्यायालय, नैनीताल की शरण लेनी
पड़ी. तब 08 अक्टूबर 2021 को उच्च न्यायालय, नैनीताल के न्यायमूर्ति आर.सी.खुल्बे की एकल पीठ ने यह निर्देश देना पड़ा कि
एसडीएम, विकासनगर, ग्रामीणों की जमानत पर
11 अक्टूबर 2021 तक फैसला लें. उच्च न्यायालय के उक्त निर्णय के बाद ही ग्रामीणों की
जमानत हो सकी.
लोहारी के ग्रामीणों के साथ न केवल राजनीतिक रूप से छल
हुआ बल्कि मुआवजे के रूप में भी उनके हाथ छलावा ही अधिक आया. ग्रामीणों ने बताया कि
उनमें से जिन्होंने परियोजना निर्माण में लगी किसी निजी कंपनी में काम किया, उनके मुआवजे का पैसा रोजगार के नाम पर काट लिया गया. इसको ऐसे समझिए कि परियोजना
निर्माण में लगी कंपनी में किसी ने काम किया. उसका मुआवजा बना पांच लाख रुपया तो मुआवजा देते हुए, उसमें में से चार लाख रुपया यह कहते हुए काट लिया कि इतने का उन्हें रोजगार
मिल चुका है !
मुआवजे के रूप में जो पैसा जबरन उनके खातों में डाल दिया
गया, वह किस मद का है, यह भी कोई उन्हें बताने को तैयार नहीं
है. एक महिला का तो यह भी कहना है कि उन्हें बताया गया कि दस लाख रुपया दिया गया, लेकिन बैंक में तीन ही लाख रुपया अकाउंट में आया है.
ऐसा प्रतीत होता
है कि यह मुआवजे से अधिक कानूनी खानापूर्ति आधिक है. इसलिए 05 अप्रैल को साढ़े पांच
बजे, आरटीजीएस करके उनके खातों में धनराशि डाली गयी और छह बजे, अड़तालीस घंटे में गांव खाली करने का नोटिस जारी कर दिया गया. ग्रामीणों के
अनुसार नोटिस 48 घंटे का दिया गया और 24 घंटे पहले ही डराने के लिए जेसीबी खड़ी कर दी
गयी.
हड़बड़ी में उन्होंने अपने घर खाली किए, अपने हाथों से अपने डूबते घरों को तोड़ कर, उनमें से
जो निर्माण सामग्री निकाल सकते थे, वो निकाली. फिर उनके घर परियोजना
में बिजली बनाने के लिए चढ़ते पानी में डूब गए. अब कुछ दिनों से पानी उतर गया है तो
वो खंडहर हुए घर फिर सतह पर आ गए हैं. डूबे हुए घरों के फिर ऊपर आ जाने से ऐसा लगता
है, जैसे लोहारी के लोगों के घावों को फिर खुरच दिया गया है.
आए दिन अखबारों में खबर आ रही है कि व्यासी जलविद्युत
परियोजना की दूसरी टरबाइन, पानी कम होने के चलते शुरू नहीं हो पा
रही है. एक दिन यह भी खबर थी कि एक टरबाइन चलाने में भी भारी मशक्कत करनी पड़ी. इससे
तो ऐसा लगता है कि लोहारी को पानी से भरने की सारी कवायद केवल गांव खाली करवाने के
लिए की गयी, परियोजना शुरू करवाने के लिए नहीं. लोहारी के लोगों
का कहना है कि उनकी खेत में खड़ी गेंहू, राजमा, लहसुन की फसल तक उन्हें नहीं निकालने दी गयी. एक महिला का कहना है कि जब खेती
आबाद थी तो वे कभी प्याज-लहसुन तक बाज़ार से नहीं लाये. अब सब जलमग्न है. एक ग्रामीण
का कहना है कि उनका आधा खेत अधिगृहीत कर लिया गया, आधा छोड़ दिया
गया, अब आधे खेत का वो क्या करें !
इस परियोजना में ग्रामीणों की बहुत सामान्य मांग है कि
उन्हें जमीन के बदले जमीन दी जाये. उत्तराखंड सरकार ने ग्रामीणों को जेल भेजना और डुबोना
चुना पर उनकी यह छोटी से वाजिब मांग न सुनी ! इस परियोजना के संदर्भ में हुई एक बैठक
का कार्यवृत्त (मिनट्स) बताता है कि बैठक में उत्तराखंड जलविद्युत निगम के अधिकारियों
ने जमीन के बदले जमीन की मांग का विरोध करते हुए कहा कि यदि लोहारी के ग्रामीणों की
भूमि के बदले भूमि की मांग को मान लिया गया तो अन्य जगहों पर भी लोग ऐसी ही मांग करने
लगेंगे ! सोचिए तो क्या आपत्ति है ! अरे भाई करने लगेंगे तो कोई गुनाह करेंगे क्या
? लेकिन लोहारी के लोगों के साथ जिस तरह का सलूक उत्तराखंड सरकार ने किया, उससे तो स्पष्ट है कि उत्तराखंड जलविद्युत निगम के अफ़सरान की आपत्ति को सरकार
ने गंभीरता पूर्वक लिया, गांव जबरन डुबो दिया पर जमीन के बदले
जमीन न दी !
ऐसी परियोजनाओं को विकास परियोजना कहा जाता है. पर सवाल
यह है कि लोहारी जैसे गांवों की इस विकास में हिस्सेदारी क्यूं नहीं है ? उनके हिस्से में सिर्फ जबरन पानी में डुबोया जाना क्यूं है ? यह भी प्रश्न है कि उत्तराखंड को अभी और कितने लोहारी देखने होंगे, विकास के नाम पर अभी ऐसे कितने और गांवों- शहरों का विनाश होगा ?
जैसे लोहारी में लोगों ने अपने हाथों से अपने बनाए घर
तोड़े, ऐसा नज़ारा हम टिहरी को डूबते वक्त देख चुके हैं. उस वक्त भी अपनी पार्टी की
राज्य कमेटी के साथी अतुल सती के साथ मैं टिहरी गया था. जिस वक्त
हम वहाँ गए, पानी टिहरी के घंटाघर पर था. मालीदेवल गांव में लोग
अपने घरों को तोड़ रहे थे. चारों तरफ घन, सब्बल की आवाजें बेहद
हृदयविदारक जान पड़ती थी.
26 अप्रैल 2022 को जब साथी अतुल सती, महिला समाख्या की पूर्व राज्य परियोजना निदेशक गीता गैरोला, वरिष्ठ पत्रकार त्रिलोचन भट्ट और सीमा सती जी के साथ लोहारी गए तो वहां भी
वैसा ही नज़ारा था, लोगों ने अपने घर खुद ही तोड़े थे. यह पीड़ा
इतनी जानी-पहचानी, इतनी साझा है कि एक युवा शिक्षक गांव में आए
हुए थे, उनका घर टिहरी में उप्पु में था, जो टिहरी बांध में डूब गया. अपने जैसे डूबने वालों की पीड़ा, इस युवा शिक्षक को लोहारी के लोगों के पास खींच लायी थी ! सरकारी जतन से डुबोए
जाने की कितनी साझा पीड़ाओं के गवाह हम बनेंगे, कौन जाने ! हमारी
तो यह कामना है कि ये साझा पीड़ाएँ, साझा प्रतिरोध बनें !
-इन्द्रेश मैखुरी
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