न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया ने उच्चतम न्यायालय
के न्यायाधीश के रूप में 09 मई 2022 को शपथ ली.
वरिष्ठ पत्रकार महिपाल नेगी जी के अनुसार वे
उत्तराखंड के दूसरे वाशिंदे हैं, जो उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीश बने हैं. उनसे
पहले उत्तराखंड के निवासी पीसी पंत भी उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीश रहे थे.
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश का पदभार ग्रहण
करने से पहले सुधांशु धूलिया, गोहाटी उच्च
न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश थे, उससे पहले वे उत्तराखंड उच्च न्यायालय, नैनीताल में न्यायाधीश
रहे. इलाहाबाद से उन्होंने वकालत शुरू की और उत्तराखंड राज्य बनने के बाद वे नैनीताल
उच्च न्यायालय आ गए. नैनीताल में ही वे उच्च न्यायालय के न्यायाधीश नियुक्त हुए.
1994 में जिस समय उत्तराखंड आंदोलन हुआ, उस समय सुधांशु धूलिया इलाहाबाद में वकालत करते थे. 02 अक्टूबर 1994 को जघन्य
मुजफ्फरनगर कांड हुआ, जिसमें दिल्ली जा रहे प्रदर्शनकारियों को
मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहे के पास तत्कालीन मुलायम सिंह यादव की सरकार के इशारे पर
पुलिस-प्रशासन ने रोका और जुल्म और वहशीपने की सारी हदें लांघ दी. न केवल युवाओं को
गोलियों से भून दिया गया, बल्कि महिलाओं से दुराचार भी किया गया.
अलबत्ता मुजफ्फरनगर के स्थानीय वाशिंदों ने जुल्म के मारे उत्तराखंडियों की बड़ी मदद
की.
इस मुजफ्फरनगर कांड का मामला उच्च न्यायालय, इलाहाबाद भी पहुंचा. वहाँ उत्तराखंड संघर्ष समिति की तरफ से इस मामले की पैरवी
करने वाले अधिवक्ताओं के दल में सुधांशु धूलिया भी शामिल थे. पहली बार सुधांशु धूलिया
का नाम, इसी केस के सिलसिले में मैंने सुना था. इस मामले में
वकीलों की टीम के नेतृत्वकर्ता एलपी नैथानी थे, जो बाद में नैनीताल
उच्च न्यायालय में उत्तराखंड सरकार के महाधिवक्ता भी रहे.
मुजफ्फरनगर कांड के इस मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय
के न्यायमूर्ति रवि एस. धवन के अगुवाई वाली खंडपीठ ने मुजफ्फरनगर कांड की तीव्र भर्त्सना
करते हुए लिखा कि आजाद भारत की सरकारों ने उत्तराखंड के लोगों के साथ ऐसा सलूक किया, जैसा जर्मनी में नाजियों ने यहूदियों के साथ किया. 273 पन्ने के फैसले में
उच्च न्यायालय ने मृतकों के आश्रितों को दस लाख रुपया, बलात्कार
पीड़ित महिलाओं को भी दस लाख रुपया, अवैध हिरासत में रखे गए और
घायलों को भी पचास हजार रुपया मुआवजा देने का आदेश दिया. साथ ही इस कांड के दोषी अधिकारियों
के खिलाफ सीबीआई को मुकदमा चलाने का आदेश दिया.
हालांकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ मुजफ्फरनगर
के तत्कालीन जिलाधिकारी अनंत कुमार सिंह उच्चतम न्यायालय में इस फैसले के अधिकांश हिस्से
को 1999 में पलटवाने में कामयाब हो गए.
प्रसंगवश, इलाहबाद उच्च न्यायालय
में उक्त मामले की उत्तराखंड संघर्ष समिति की ओर से पैरवीकार अधिवक्ताओं में एमएम घिल्डियाल
भी शामिल थे, जो बाद में उत्तराखंड उच्च न्यायालय नैनीताल में
न्यायाधीश नियुक्त हुए. 2003 में न्यायमूर्ति एमएम घिल्डियाल और न्यायमूर्ति पीसी वर्मा
की खंडपीठ ने भी एक मामले में मुजफ्फरनगर कांड के आरोपियों को बरी कर दिया. इस निर्णय
के खिलाफ उत्तराखंड के आंदोलनकारियों ने हाईकोर्ट के घेराव का आह्वान किया और नैनीताल
में बड़ा प्रदर्शन हुआ. बाद में उक्त फैसला यह कहते हुए वापस ले लिया गया कि खंडपीठ
को यह ज्ञात नहीं था कि 1996 में न्यायमूर्ति एमएम घिल्डियाल उत्तराखंड संघर्ष समिति
के वकील रहे थे.
मुजफ्फरनगर कांड के कुछ मामले अब भी सीबीआई की अदालतों
में चल रहे हैं. यह अफसोसजनक है कि उत्तराखंड राज्य बने 22 वर्ष हो गए हैं, लेकिन राज्य में बनने वाली किसी सरकार ने इन मामलों में प्रभावी पैरवी करने
की कोशिश नहीं की. इसके चलते यह हुआ कि आरोपी मुकदमों को उत्तराखंड से बाहर ट्रान्सफर
कराने में सफल रहे. एक पुलिसवाला- सुभाष गिरि, जो इस मामले में
गवाह था, रहस्यमय रूप से ट्रेन में मरा हुआ पाया गया. आंदोलनकारी
गवाहों को अपने खर्चे पर बिना किसी सुरक्षा के गवाही पर जाना पड़ता है.
न्याय का इंतजार
मुजफ्फरनगर कांड के मामले में भी अंतहीन जान पड़ता है. बहरहाल इस मामले में उत्तराखंड
को एक समय न्याय दिलाने की कोशिश में शरीक रहे सुधांशु धूलिया उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश
नियुक्त हुए हैं, वे सबके साथ न्याय कर सकें, इसके लिए उन्हें शुभकामनाएं.
-इन्द्रेश मैखुरी
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बधाई हो, पर चारण गान वालों में शुमार न हों
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