उत्तराखंड के चंपावत जिले के टनकपुर में राजयकीय
इंटर कॉलेज सूखीढांग में दलित भोजनमाता के हाथ से बना खाना खाने से इंकार
करने का मसला एक बार फिर खबरों में है. पिछली बार दिसंबर 2021 में दलित महिला का भोजनमाता
के तौर पर चयन होने के बाद भी इस तरह की खबरें आई थी. उस समय भोजनमाता के तौर पर चुनी
गयी दलित महिला की नियुक्त भी निरस्त कर दी गयी थी, जिसे बाद में
बढ़ते दबाव के बीच बहाल करना पड़ा था.
अब फिर खबर है कि छठी से आठवीं तक के तकरीबन दस बच्चे दलित भोजनमता के हाथ का बना खाना नहीं खा रहे हैं. हालांकि इस संदर्भ में बच्चों और उनके अभिभावकों द्वारा निजी कारणों का हवाला दिया जा रहा है.
लेकिन पहले भी इस विद्यालय
में चूंकि दलित भोजनमाता की नियुक्ति पर विवाद हो चुका है, इसलिए संदेह होता है कि निजी मामला, जाति से जुड़ा हुआ
ही है. पिछली बार दिसंबर के महीने में दलित भोजनमाता की नियुक्ति के विरोध में बच्चों
द्वारा खाने के बहिष्कार का ही तरीका आजमाया गया था. मुमकिन है कि उस समय भारी दबाव
के चलते, मामले को थोड़ा पीछे सरका दिया गया हो. अब यह समझ कर
कि मामला ठंडा हो चुका है, पुनः वही दांव चला जा रहा हो !
बहरहाल यह सब जांच का ही विषय है कि एकाएक फिर से बच्चों
द्वारा खाना न खाने के पीछे क्या कारण है, लेकिन इससे इंकार नहीं
किया जा सकता कि जातीय भेदभाव हमारे समाज में व्याप्त है. संवैधानिक रूप से भले ही
समानता का अधिकार कायम कर दिया गया हो, जाति-धर्म के आधार पर
भेदभाव पर निषेध हो, लेकिन यथार्थ में तो जाति और उसका भेदभाव
हमारे समाज में बहुत तीखे रूप में मौजूद है, जो समय-समय पर बेहद
विकृत रूप में प्रकट होता है.
बात सिर्फ इतनी नहीं है कि राजयकीय इंटर
कॉलेज सूखीढांग के बच्चे, दलित भोजनमाता के हाथ
से खाना खाएँगे या नहीं, बात यह है कि इस आधुनिक समय में हमारा
समाज इन रूढ़ियों से मुक्त हो पाएगा या नहीं ? इस जाति, उसके नकली श्रेष्ठताबोध और उससे उपजे जहर को कब तक हर पीढ़ी,अपनी अगली पीढ़ी तक, अनिवार्य विरासत के तौर पर हस्तांतरित
करती रहेगी ?
-इन्द्रेश मैखुरी
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