बीते कुछ वर्षों में एक धारा का बहुत जिक्र हुआ, वह धारा है, भारतीय दंड विधान
(आईपीसी) 1860 की धारा 124 ए. अंग्रेजी में
उसका नाम है- सेडिशन. स्वयं को देश समझने वाली सत्ता और उसके समर्थकों ने इसका हिन्दी
अनुवाद किया- देशद्रोह. हकीकत में इसका अनुवाद है- राजद्रोह. यह कानून भारत
में अंग्रेजी राज के जमाने में 1898 में अस्तित्व में आया था.
यह प्रश्न लंबे अरसे से उठता रहा कि देश में अब “राज” नहीं चलता
बल्कि लोकतंत्र है तो इस ब्रिटिश राज के कानून की एक लोकतांत्रिक देश में क्या जरूरत.
जहां से यह कानून, भारत में आया, स्वयं वह ब्रिटेन
भी इसे रद्दी की टोकरी में फेंक चुका है.
उच्चतम न्यायालय ने आज इस कानून पर अग्रिम आदेशों
पर रोक लगा दी है. अपने दस पृष्ठों के आदेश में मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एनवी रमन्ना, न्यायमूर्ती सूर्यकांत
और न्यायमूर्ति हिमा कोहली ने कहा कि धारा 124 ए के तहत दर्ज सभी मामलों में कार्यवाही
को स्थगित रखा जाये. पीठ ने केंद्र और राज्य सरकारों से कहा कि वे 124 ए के तहत नए
मामले दर्ज न करें और ना ही पहले से दर्ज मामलों में कोई कठोर कार्यवाही करें. अदालत
ने यह भी अपने फैसले में कहा कि जो लोग 124 ए के तहत जेल में बंद हैं, वे जमानत के लिए
अदालत का दरवाजा खटखटा सकते हैं.
फोटो आभार : सुप्रीम कोर्ट वैबसाइट
यह तमाम बातें उच्चतम न्यायालय में राजद्रोह की धारा
के विरुद्ध सेवानिवृत्त मेजर जनरल एसजी वोमबटकेरे, एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया,पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण
शौरी, टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा, पत्रकार
अनिल चमड़िया,अनुराधा भसीन,पैट्रीसिया मुखिम, पीयूसीएल और असम पत्रकार यूनियन द्वारा दाखिल याचिकाओं के संदर्भ में कही.
उच्चतम न्यायालय में सुनवाई के दौरान केंद्र की मोदी सरकार
का रवैया बड़ा रोचक रहा. पहले केंद्र सरकार इस धारा को जारी रखने के पक्ष में थी. उस
वक्त मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना ने केंद्र सरकार के सबसे बड़े वकील यानि एटॉर्नी जनरल
से पूछा था- “आज़ादी के 75 साल के बाद भी क्या यह औपनिवेशिक कानून जारी रखना जरूरी है, जिसका उपयोग तिलक, गांधी आदि के दमन के लिए किया गया
?”
लेकिन फिर केंद्र सरकार ने इस कानून पर पुनर्विचार पर
सहमति प्रकट की. इस संदर्भ में 09 मई को केंद्र सरकार द्वारा दाखिल हलफनामा भी इस मसले
पर केंद्र के रुख की तरह ही रोचक है. उक्त हलफनामे का उच्चतम न्यायालय के फैसले में
उद्धृत अंश, सरकार की रिवायत के अनुसार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
का स्तुतिगान करता है, जो एक कानूनी दस्तावेज़ के लिहाज से अटपटा
है. हलफनामा कहता है कि “.....प्रधानमंत्री, नागरिक स्वतंत्रता
की रक्षा और मानवाधिकारों के सम्मान और लोगों को प्राप्त संविधान प्रदत्त स्वतंत्रताओं
के पक्ष में विभिन्न मंचों से राय प्रकट करते रहे हैं....... ”
उच्चतम न्यायालय में दाखिल हलफनामे में केंद्र सरकार के
वकील प्रधानमंत्री की कितनी ही शलाघा कर लें पर हकीकत यह है कि पिछले एक दशक में राजद्रोह
के सर्वाधिक मुकदमें नरेंद्र मोदी के सत्तासीन होने के बाद हुए हैं. आर्टिक्ल 14 डॉट
कॉम नामक पोर्टल पर उपलब्ध आंकड़े बताते हैं कि पिछले एक दशक में राजनेताओं और सरकारों
की आलोचना करने के लिए दर्ज राजद्रोह के मामलों में से 96 प्रतिशत 2014 के बाद दर्ज
किए गए हैं. 149 राजद्रोह के मामले में नरेंद्र मोदी पर टिप्पणी करने के लिए और 144
राजद्रोह के मामले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर टिप्पणी करने के
लिए दर्ज किए गए हैं.
https://www.article-14.com/post/our-new-database-reveals-rise-in-sedition-cases-in-the-modi-era
उक्त पोर्टल पर मई 2021 तक के अपडेट किए गए आंकड़े बताते
हैं कि 2010 से ग्यारह हजार से अधिक लोगों पर दर्ज किए गए राजद्रोह के 816 मामलों में
से 65 प्रतिशत, 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्तासीन होने के बाद दर्ज
किए गए. ये मामले राजनेताओं,छात्रों, पत्रकारों, लेखकों और अकादमिक लोगों के खिलाफ दर्ज किए गए.
2010 से 2014
के बीच दर्ज राजद्रोह के मामलों के मुक़ाबले 2014 से 2021 के बीच ऐसे मामले दर्ज करने
की दर में 28 प्रतिशत की वृद्धि हुई.
इस तरह देखें तो आंकड़े, केंद्र सरकार
द्वारा उच्चतम न्यायालय में दाखिल हलफनामे में प्रधानमंत्री की तारीफ में कही गयी बातों
का समर्थन नहीं करते.
उच्चतम न्यायालय के फैसले में दर्ज है कि एटॉर्नी जनरल
ने भी माना था कि राजद्रोह के प्रावधान का अत्याधिक दुरुपयोग होता है, लेकिन इसके उदाहरण के बतौर वे केवल हनुमान चालीसा के मामले ही गिनवा पाये
! जबकि ऊपर दिये गए आंकड़े, इस बात की तस्दीक करते हैं कि राजद्रोह
का सर्वाधिक दुरुपयोग केंद्र सरकार द्वारा किया गया है.
बहरहाल केंद्र सरकार के राजद्रोह के कानून पर पुनर्विचार
के इरादे को उच्चतम न्यायालय ने स्वीकार कर लिया और केंद्र द्वारा पुनर्विचार तक इस
कानून के प्रयोग पर रोक लगा दी गयी है. हालांकि यह देखा जाना शेष है कि पुनर्विचार
के बाद उसके स्थानापन्न के तौर पर कोई और अधिक दमनकारी कानूनी तो नहीं बना दिया जाएगा, जैसा अतीत में हुआ कि पोटा खत्म किया गया तो उससे अधिक दमनकारी यूएपीए पारित
कर दिया गया. नागरिक स्वतंत्रता और लोकतंत्र
के हक में यह आवश्यक है कि ऐसे तमाम औपनिवेशिक
और दमनकारी क़ानूनों पर रोक लगे, उन्हें निरस्त किया जाये.
-इन्द्रेश मैखुरी
0 Comments