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स्थायी भर्ती को चट कर जाएगा अग्निपथ का वाइरस !










अन्य क्षेत्रों में रोजगार के तमाम अवसरों को ठेके पर देने का सरकारी कार्यक्रम देश की रक्षा सेनाओं तक आन पहुंचा है. चार साल के सैनिक भर्ती करने की जिस योजना को “अग्निपथ” नाम दिया गया और इसमें भर्ती होने वालों को “अग्निवीर”, वह और कुछ नहीं फौज की नौकरी को भी, आउटसोर्सिंग एजेंसी के जरिये संचालित अन्य सरकारी नौकरियों की श्रेणी में खड़ा कर देने की कवायद है. चूंकि देश में सेना को लेकर एक अलग तरह की भावना है, जिसे उग्र करके वर्तमान सत्ता भी लाभ उठाती रही है, अतः सत्ता जानती थी कि यकायक इस तरह फौज को आउटसोर्सिंग शैली में संचालित करने की योजना को लोग आसानी से स्वीकार नहीं करेंगे.  इसलिए “अग्निपथ” और “अग्निवीर” जैसे मुल्लमे और शाब्दिक लफ़्फ़ाजी के जरिये लोगों की आँखों में धूल झोंकने की कोशिश है.











बीते दो वर्षों से फौज की भर्ती नहीं हो रही है. कोरोना के नाम पर नियमित भर्ती पर रोक लगा दी गयी. देश में बाकी सब सामान्य तौर पर सुचारु होने के बावजूद फौज की नियमित भर्ती पर रोक जारी रही. और अब चार साल की भर्ती योजना ला कर यह इंतजाम कर दिया गया है कि नियमित भर्ती सदा के लिए बंद कर दी जाये. यानि जो नियमित भर्ती कोरोना वाइरस के नाम पर बंद की गयी थी, उसे अग्निपथ नाम का दीमक सदा के लिए चट कर देगा.


कोविड काल से पहले सेना हर साल औसतन सौ भर्ती रैलियाँ करती थी. अप्रैल में अंग्रेजी अखबार - हिंदुस्तान टाइम्स में छपी एक रिपोर्ट बताती है कि इस समय भारतीय सेना में 120000 सैनिकों की कमी है. यह कमी पाँच हजार सैनिक प्रति माह की दर से बढ़ रही है. अग्निपथ योजना के लागू होने के बाद कहा जा रहा है कि चार साल में तीनों सेनाओं में 58000 सैनिकों की संख्या में बढ़ोतरी होगी. इसका अर्थ यह है कि तब भी सेना में वर्तमान समय में जो सैनिकों की कमी, उस संख्या की पूर्ति इस अग्निपथ से नहीं हो सकेगी.


इस योजना के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क दिया जा रहा है कि यह भारतीय सेना की औसत आयु को कम कर देगा. आंकड़ों के अनुसार अभी सेना की औसत आयु 32 साल है, जो इस योजना के लागू होने की सात साल बाद घट कर 26 साल हो जाएगी. क्या सेना की औसत आयु कम करने का एकमात्र उपाय यह संविदा नुमा भर्ती है ? और यह फैसला कौन कर रहा है ? वह सरकार और संसद, जिनकी औसत आयु, इस युवा देश में अधेड़ और रिटायरमेंट की अवस्था को प्राप्त है ! पिछले बीस सालों से भारत की संसद की औसत आयु 50 वर्ष से अधिक है.2019 में बनी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कैबिनेट की औसत आयु 60 वर्ष से अधिक है. स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उम्र 72 वर्ष है. अवसर मिले तो वे 2024 में भी प्रधानमंत्री होना चाहते हैं, जब उनकी उम्र 74 वर्ष हो चुकी होगी और वे सेना की औसत आयु कम करने के नाम पर युवा को 21 साल में ही घर भेज देना चाहते हैं !  












इस योजना के संदर्भ में जो सबसे बचकाना तर्क है, वो है कि चार साल की नौकरी के बाद इन अग्निवीरों को केंद्रीय पुलिस बलों में प्राथमिकता मिलेगी. ऐसा होने पर यह अग्निपथ, अब तक जो सैन्य भर्ती का पैटर्न था, उससे अच्छा कैसे हो जाएगा ? अब तक व्यक्ति कम से कम पंद्रह साल नौकरी करता था. तब भी पढ़ाई-लिखाई से लेकर नौकरियों में पूर्व सैनिकों का कोटा होता ही था. पुलिस से लेकर अध्यापन तक उत्तराखंड में नौकरी पाये पूर्व सैनिकों को मैं निजी तौर पर जानता हूँ.  उत्तराखंड में तो कम से कम सभी सेवाओं में पूर्व सैनिकों को आरक्षण मिलता ही है. तो जो व्यवस्था कम से कम 15 साल की नौकरी के बाद थी, वह चार साल के बाद वाले रिटायरमेंट के विशेषता कैसे है ? और चार साल के बाद सिर्फ प्राथमिकता की बात हो रही है, किसी गारंटी की बात नहीं है !


इस योजना की वह बात जिसे केंद्र सरकार अपने मुंह से तो नहीं कह रही है, लेकिन तमाम समाचार माध्यम, यहां तक कि संघी झुकाव वाली स्वराज मैगजीन का पोर्टल भी कहा रहा है, वह है पेंशन के खर्च में कटौती.  2005 में नयी पेंशन स्कीम आने के बाद तमाम सरकारी नौकरियाँ, यहां तक कि अर्द्ध सैनिक बल भी पुरानी पेंशन के दायरे से बाहर कर दिये गए. केवल सेना ही बची थी, जहां रिटायरमेंट पर पेंशन मिल रही थी. चार साल के इस अग्निपथ के बाद सेना के पेंशन पट्टे भी अग्नि को समर्पित हो जाएँगे !

  

यह तर्क बड़े ज़ोरशोर से उछाला जा रहा है कि सैनिकों की पेंशन से सरकार पर अत्याधिक बोझ पड़ रहा है. अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्स्प्रेस के आंकड़े के अनुसार इस साल रक्षा क्षेत्र को आवंटित 3.65 लाख करोड़ रुपए में से 1.19 लाख करोड़ र रुपये पेंशन पर खर्च होंगे.


सेनाओं में पेंशन की व्यवस्था तो अंग्रेजों के जमाने से चली आ रही है. इस संदर्भ में मेरे दादा का किस्सा जान लीजिये. मेरे दादा घर से भाग कर  लाहौर में अंग्रेजी फौज में भर्ती हो गए. बमुश्किल छह बरस नौकरी करने के बाद मेडिकली अनफ़िट होने के बाद वे रिटायर हो कर घर आ गए, लेकिन तब भी  उनको पेंशन मिलती थी. अंग्रेजों के बाद भारत सरकार ने उनको पेंशन दी और 1990 के दशक में उनकी मृत्यु तक वे पेंशन पाते रहे. तो वर्तमान भारत सरकार अंग्रेजों से भी गयी-गुजरी है कि वह सैनिकों को पेंशन नहीं दे सकती !


 एक सवाल यह भी है कि किसी क्षेत्र में जब पक्की नौकरी नहीं देनी, सम्मानजनक वेतन नहीं देना, पेंशन नहीं देना, कोई सब्सिडि नहीं देनी तो उस सरकारी खजाने का पैसा सिर्फ बड़े पूंजीपतियों के बैंकों के कर्जे और टैक्स माफ करने के लिए है क्या ?


भाजपा वालों का ही तर्क उधार लेकर कहना है कि नरेंद्र मोदी जी, सैनिकों देश की सीमाओं पर देश के लिए गोली खाएगा और आप उसे पक्की नौकरी और पेंशन तक नहीं देंगे ? उफ़्फ़ ऐसी कृतघ्न सरकार, ऐसी अहसानफरामोश सरकार  !


-इन्द्रेश मैखुरी

   


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