उत्तराखंड में अफसरों के तबादले हुए. पोर्टली
मीडिया लहालोट है, कोई इसे मुख्यमंत्री पुष्कर
सिंह धामी का बिग एक्शन बता रहा है, कोई मास्टर स्ट्रोक, कोई कड़क तेवर, कुछ न मिला तो किसी ने लिखा- मुख्यमंत्री
की सहमति से हुए ट्रांस्फर ! यूं पोर्टली मीडिया का अच्छा-खासा हिस्सा, सरकार-सत्ता की अदाओं पर रीझने को हर वक्त तैयार रहता है. उसके दो ही काज हैं- सरकारी प्रेस विज्ञपतियों को शाश्वत सत्य जान कर चस्पा
करना और सरकार की अदाओं पर फिदा होना ! सुनते हैं, बीते दिनों
इस काम के लिए पोर्टली मीडिया के सरकारी ध्वजवाहकों ने बकायदा सरकार से इस काम के एवज़
में बेहतर पैकेज की मांग कर डाली ! सेवा का मेवा तो मिलना ही चाहिए !
पर यहाँ हमारा विषय पोर्टली मीडिया नहीं, बल्कि तबादले हैं. जिन पचास-एक अफसरों के तबादले हुए हैं, उनमें एक अफसर के बारे में बीते दिनों एक रोचक किस्सा सुनने को मिला. अफसर बाबू, नए-नए अफसर हुए हैं. सो अफ़सरी का नया-नया खुमार भी उन पर कुछ ज्यादा ही है. होता है, नयी-नयी अफ़सरी में कई तरह के खुमार होते हैं, कुछ पर उसूलों का खुमार होता है, कुछ पर ईमानदारी का, लेकिन समय के साथ ऐसे उसूल, उस लालफीते के अंदर बंद हो जाते हैं, जो लाल फीता, अपनी लालफ़ीताशाही के जरिये जनता के नौकरों को उनका शाह यानि नौकरशाह बना देता है !
जिन अफसर बाबू का हम यहां जिक्र कर रहे
हैं, उनको ईमानदारी, उसूल जैसा कोई ऐसा
खुमार होना तो नहीं सुना गया, जिसको बाद में लालफीते के अंदर
बंद करने की नौबत आए ! बल्कि उनमें शुद्ध अफ़सरी खुमार है, जिसके
चलते वे नौकर-शाह में से जनता का नौकर माइनस
कर, स्वयं को सिर्फ शाह समझते हैं !
जैसे पूत के पांव पालने में दिख जाते हैं, अफ़सरी शहंशाही तेवर भी नयी-नयी नौकरी में ही दिखने लग जाते हैं. हुआ यूं कि
नौकर माइनस वाले शाह जी, नयी-नयी नौकरी की ट्रेनिंग के चलते अपने
पद से एक पद नीचे तैनात थे. उनके पास एक प्रतिनिधिमंडल गया. रिवायत यह है कि पीड़ित
जन आपके पास आयें तो उनकी पीड़ा, उनकी समस्या सुनी जाये. पर जब
अफसर होने का खुमार सिर पर सवार हो तो तौर-तरीके को कौन पूछे, जनता की कुछ बिसात भी क्या समझ में आए ! सो अफसर बाबू ने अपने सामने आए प्रतिनिधिमंडल
पर सीधा सवाल दागा- यहां कोई है, अंग्रेजी पढ़ना जानता हो ? गज़ब है भाई अफसर बाबू, अफसर हुए हैं, उनके राज में, जिनका नारा है- हिन्दी, हिंदू, हिंदुस्तान- लेकिन जनता आपको चाहिए,वह जो अंग्रेजी पढ़ना जानती हो ! ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे बेबी को बेस पसंद
है, वैसे ही बाबू साहब को अंग्रेजी पसंद है ! अंग्रेजी पसंद होना
तो अलग बात है, परंतु अपने से मिलने आने वालों से पहले यह दरियाफ्त
करना कि वे अंग्रेजी पढ़ना जानते हैं, यह अलग ही तरह का स्वैग
है !
नौकरी शुरू होते ही यह अंग्रेजी रंग-ढंग है, ऐसी ही मामला बढ़ता रहा तो ऐसा न हो कि अफसर बाबू दफ्तर के बाहर नोटिस चस्पा करवा दें- मिलने आयें तो अंग्रेजी सीख कर आयें !
अब ऐसे अंग्रेजी दां साहब बहादुर को डूब
चुके नगर के नाम वाले जिले में विकास का अफसर बना कर भेज दिया गया है. अफसर होते ही
वे अंग्रेजी रंग-ढंग में थे, अब तो वे विकास के भी
अफसर हो गए हैं. जैसे नौकरशाह में नौकर पहले होने के बाद भी अफसर लोग-शाह- होने को
प्राथमिकता देते हैं, वैसे ही पद के नाम में विकास होने के बावजूद मुख्य और अधिकारी पर अधिक ज़ोर
स्वतः ही हो जाता है. अंग्रेजी प्रिय नए-नवेले अफसर बाबू, विकास
के अफसर होने की समझ तो धारण कर ही लेंगे. विकास का अफसर होने के नाते ये जो सरकारी
“कुमार” हैं, हो सकता है कि “money” के “ईश” हो जायें ! (अफसर बाबू को अंग्रेजी इतनी पसंद है तो थोड़ा अंग्रेजी हमने भी
एप्लाई कर दी !)
भई वे “money” के “ईश” हों या “money” उनकी “ईश” हो जाये पर जनता के उनकी
अंग्रेज़ियत को कैसे वहन करेगी, यह आने वाला वक्त ही बताएगा !
इतिहास तो यही है कि जनता मौका पड़ने पर अंग्रेजों और अंग्रेज़ियत की ऐसी-तैसी करती रही
है जहां अफसर बाबू गए हैं, वहां अंग्रेजी रंग-ढंग वाली राजशाही
को भी लोगों ने ठिकाने लगा दिया था. राजशाही देसी थी, रंग-ढंग
और दमन का तौर-तरीका,उसका अंग्रेजी था. अफसर बाबू भी देसी हैं, रंग-ढंग उनके अंग्रेजी हैं. एक फिल्म थी अंग्रेजी बाबू, देसी मेम. यहां अंग्रेजी बाबू हैं, पहाड़ी जिला है, देखिये मिलता क्या सिला है !
-इन्द्रेश
मैखुरी
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