उत्तराखंड में विभिन्न नियुक्तियों में घपले-घोटाले के
आरोपों की आग राज्य की विधानसभा तक पहुँच चुकी है. यूं उत्तराखंड की विधानसभा में नियुक्तियों
का मामला राज्य बनने के बाद गठित पहली कामचलाऊ विधानसभा से ही संदेह के घेरे में रहा
है. लेकिन इस वक्त चूंकि राज्य में विभिन्न भर्ती घोटालों को लेकर एसटीएफ़ की जांच चल
रही है, रोज आरोपितों को गिरफ्तार किया जा रहा है, इसलिए विधानसभा
में भर्तियों में अनियमितताओं का सवाल नए सिरे से उठ खड़ा हुआ है.
इस संदर्भ में सबसे ज्यादा सवाल निवर्तमान विधानसभा अध्यक्ष
और वर्तमान भाजपा सरकार में कैबिनेट मंत्री प्रेमचंद्र अग्रवाल पर उठ रहे हैं. आरोप
है कि उनके कार्यकाल में विधानसभा में 129 नियुक्तियाँ कर दी गयी, जिसमें कुछ तो विधानसभा चुनाव की आचार संहिता लगने से ठीक पहले की गयी.
उनके पूर्ववर्ती विधानसभा अध्यक्ष और कॉंग्रेस के नेता
गोविंद सिंह कुंजवाल पर भी इसी तरह के आरोप लगे थे. उनके द्वारा की की गयी नियुक्तियों
के संदर्भ में यह आरोप लगा कि उन्होंने 2017 के विधानसभा चुनावों की आचार संहिता के
एक सप्ताह पूर्व गुपचुप तरीके से 158 लोगों को विधानसभा में तदर्थ नियुक्ति दे दी.
इसके लिए उत्तराखंड पूर्व सैनिक कल्याण निगम (उपनल) के जरिये नियुक्त आउटसोर्सिंग कर्मचारियों
से 16
दिसंबर 2016 को इस्तीफा ले कर, उन्हें तदर्थ नियुक्ति
दे दी गयी. आरोप यह भी है कि इस्तीफा देने वाले उपनल कर्मियों की संख्या थी 131 और
तदर्थ नियुक्ति पाने वालों की संख्या थी- 158 !
जब विधानसभा में नियुक्तियों पर सवाल उठा तो पूर्व विधानसभा
अध्यक्ष और वर्तमान संसदीय कार्य मंत्री प्रेम चंद्र अग्रवाल ने तर्क दिया कि नियुक्तियाँ
करना विधानसभा के अध्यक्ष का विशेषाधिकार है, अध्यक्ष यदि जरूरत महसूस
करें तो वे नियुक्ति कर सकते हैं.
अग्रवाल साहब, कुंजवाल जी और पूर्व
अध्यक्ष, वर्तमान नेता प्रतिपक्ष यशपाल जी को अपने विधायी ज्ञान
के अथाहसागर के आधार पर बताना चाहिए कि विधानसभा अध्यक्ष के विशेषाधिकार का अर्थ क्या
मनमानी है ? क्या विशेषाधिकार किन्हीं नियम कायदों से संचालित
नहीं होता, क्या विशेषाधिकार सब नियम कायदों से परे हैं ?
जिस तरह विधानसभा में भर्तियाँ किए जाने की चर्चा है और
जिस तरह का बचाव उसका प्रेमचंद्र अग्रवाल कर रहे हैं, उससे तो ऐसा प्रतीत होता है कि विधानसभा में नियुक्ति के लिए कोई कायदा-कानून
ही नहीं है और अध्यक्ष का विशेषाधिकार अथवा मर्जी ही वहाँ का कानून है. लेकिन हकीकत
तो यह नहीं है. उत्तराखंड विधानसभा में भर्ती के लिए बाकायदा एक नियमावली है. उस नियमावली
का नाम है – उत्तराखंड विधान सभा सचिवालय सेवा (भर्ती तथा सेवा की शर्तें ) की नियमावली
2011. इस नियमावली में 2015 और 2016 में संशोधन भी हुए. इस नियमावली में कहीं नहीं
लिखा कि अध्यक्ष का विशेषाधिकार है कि वे जितनी और जैसे चाहें वैसी भर्तियाँ करें.
प्रेमचंद्र अग्रवाल कह रहे हैं कि यदि किसी माननीय अध्यक्ष
को लगता है कि मैनपावर की आवश्यकता है तो
वह नियुक्त करता है. लेकिन विधानसभा की भर्ती नियमावली तो ऐसा नहीं कहती. नियमावली
की धारा 5 में पदमाप निर्धारण समिति की व्यवस्था है, इसके सदस्य कौन
होंगे, यह भी उल्लेख है. यह धारा कहती है कि पदमाप निर्धारण समिति
की अनुशंसा और वित्त विभाग से परामर्श करके अध्यक्ष पदों की संख्या में कमी या वृद्धि
कर सकता है. इससे साफ है कि अध्यक्ष को मनमानी करने की छूट नहीं है, पदों की संख्या और नियुक्ति का एक निर्धारित मानदंड है. प्रेमचन्द्र अग्रवाल
के जवाब से यह भी साफ है कि सारी नियुक्तियाँ अध्यक्ष की मनमर्जी से हुई और इससे यह
भी स्पष्ट है कि विधानसभा की भर्ती नियमावली का अनुपालन तो कम से कम नहीं किया गया.
एक और बात प्रेमचंद्र अग्रवाल ने कही कि जो भी नियुक्ति
विधानसभा में की गयी वो अस्थायी व्यवस्था (टेम्पररी अरेंजमेंट)
है. यह टेम्पररी अरेंजमेंट का जुमला भी ऐसा है, जिसके जरिये पूरी नियुक्ति
प्रक्रिया को गुपचुप तरीके से करने को जायज ठहराने की कोशिश निरंतर की जाती रही है.
क्या किसी भी सरकारी नियुक्ति को बिना विज्ञप्ति, बिना साक्षात्कार
या परीक्षा के किया जाना, इस आधार पर जायज अथवा वैध ठहराया जा
सकता है कि वह नियुक्ति अस्थायी है ? निश्चित तौर पर इसका कानूनी
जवाब है- नहीं.
लेकिन यह “अस्थायी व्यवस्था” वो तुरुप का इक्का है, जिसके जरिये अदालत से लेकर मीडिया
तक में बैकडोर से की गयी नियुक्तियों को जायज ठहराया जाता रहा है. 2016 में गोविंद
सिंह कुंजवाल के अध्यक्ष रहते की गयी नियुक्तियों को भी उच्च न्यायालय में इसी आधार
पर जायज ठहराया गया कि ये नियुक्तियाँ तदर्थ (ऍड हॉक)
हैं. 26 जून 2018 को राजेश चंदोला एवं अन्य
बनाम उत्तराखंड विधानसभा सचिवालय एवं अन्य के मामले में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति
केएम जोसफ और न्यायमूर्ति आलोक सिंह के 23 पृष्ठों के फैसले को पढ़ कर ऐसा लगता है कि
अदालत को ऐसा भान करवाया गया कि ये नियुक्तियां अस्थायी प्रकृति की हैं और अदालत ने
उक्त फैसले में 2016 में की गयी नियुक्तियों के नियमितीकरण पर रोक भी लगाई थी. लेकिन
नियुक्तियों को अस्थायी सिद्ध करने के लिए विधानसभा सचिवालय द्वारा जो शब्दावली प्रयोग
की गयी, वो है- ऍड हॉक यानि तदर्थ. सरकारी व्यवस्था में देखेंगे
तो पाएंगे कि ऍड हॉक तो नियमितीकरण से एक कदम पहले की प्रक्रिया है. कामचलाऊ इंतजाम
के लिए तो अब सरकारी व्यवस्थाओं में संविदा
(कांट्रैक्ट), आउटसोर्सिंग, अतिथि (गेस्ट), मित्र,बंधु जैसे पैंतरे अपनाए जाते हैं. आज की तारीख
में प्रदेश का कोई और विभाग बता दीजिये जहां ऍड हॉक नियुक्तियां हो रही हों.
प्रेम चंद्र अग्रवाल
विधानसभा में की गयी भर्तियों को गैरसैंण विधानसभा की जरूरतों के आधार पर सही ठहराने
की कोशिश कर रहे हैं. रोचक यह है कि उच्च न्यायालय में 2016 में गोविंद सिंह कुंजवाल
द्वारा की गयी भर्तियों को वैध ठहराने के लिए भी गैरसैंण का जिक्र किया गया था. गैरसैंण
जाना नहीं है, लेकिन अपनी गड़बड़ियों को ढकने के लिए उसकी आड़ जरूर
ले लेनी है !
उत्तराखंड विधानसभा में नियुक्तियों, अपनों को कैसे रेवड़ियाँ की तरह बांटी जा रही थी, उसका
प्रमाण वे चिट्ठियाँ हैं, जो सोशल मीडिया में पुनः वायरल हो गयी
हैं.
एक चिट्ठी में अभ्यर्थी ने विधानसभा अध्यक्ष को लिखा कि वे दिल्ली विश्वविद्यालय की स्नातक और उत्तराखंड की मूल निवासी हैं. उन्हें उत्तराखंड की विधानसभा में शैक्षिक योग्यता के अनुसार किसी पद पर नियुक्ति दी जाये. चिट्ठी पर ही उन्हें सहायक समीक्षा अधिकारी पद पर नियुक्त करने का आदेश हो गया.
इसी तरह एक अन्य अभ्यर्थी ने विधानसभा को पत्र लिखा कि वो गरीब परिवार के बेरोजगार युवक हैं, उन्होंने कंप्यूटर कोर्स किया है और शैक्षिक योग्यता स्नातक है, उन्हें विश्वस्त सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि विधानसभा सचिवालय में पद रिक्त है और उनकी पारिवारिक स्थिति को देखते हुए उन्हें नियुक्ति दी जाये. इस पत्र पर अभ्यर्थी को विधानसभा में रक्षक पद पर तदर्थ नियुक्ति दे दी गयी !
ऐसे ही अभ्यर्थी पत्र लिखते
रहे और कभी सहायक समीक्षा अधिकारी तो कभी रक्षक नियुक्ति होते रहे. राज्य के अधिकांश
योग्य बेरोजगारों को पता ही नहीं रहा होगा कि वे विधानसभा अध्यक्ष को अपनी गरीबी का
हवाला देते हुए चिट्ठी लिखने मात्र से ही विधानसभा में नियुक्ति पा सकते हैं !
चिट्ठियों पर नियुक्ति का यह अद्भुत कारनामा गोविंद सिंह
कुंजवाल जी के जमाने का है. एक मित्र ने ठीक ही टिप्पणी की- कुंजवाल चिट्ठी पत्री के जमाने के आदमी थे, इसलिए मनमानी नियुक्तियों में भी चिट्ठी लिखवाने की औपचारिकता कराना उन्होंने
जरूरी समझा ! अग्रवाल साहब व्हाट्स ऐप यूनिवर्सिटी का ग्रेजुएट बनाने वाली राष्ट्रवादी
पार्टी के ध्वजवाहक हैं, इसलिए बिना चिट्ठी पत्री के लफड़े में
पड़े हुए, उन्होंने सीधी नियुक्तियां कर डाली और नाम दिया- विशेषाधिकार
!
-इन्द्रेश मैखुरी
1 Comments
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