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नैतिकता के आधार पर इस्तीफा : बहुत देर कर दी हुजूर आते-आते !
























यह वर्ष 2013 की बात है. देश के उच्चतम न्यायालय ने उत्तराखंड कैडर के एक आईएएस अधिकारी के बारे में अपने एक फैसले में बेहद तल्ख टिप्पणियां की.


उत्तराखंड पेयजल निगम के प्रबंध निदेशक के पद पर पदोन्नति के मामले में हुई गड़बड़ी के मद्देनजर, उक्त पद पर हुई नियुक्ति को रद्द करते हुए 27 अगस्त 2013 को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति एच.एल.गोखले और न्यायमूर्ति जे.चेलेमेश्वर की खंडपीठ ने उक्त आईएएस अफसर के आचरण और कानूनी ज्ञान पर काफी कठोर टिप्पणियां, अपने फैसले में दर्ज की. उक्त अफसर द्वारा अपने शपथ पत्र में प्रोन्नत अधिकारी को मिली चार्जशीटों को अनुशासनात्मक प्रक्रिया के तहत दी गयी न मानने पर सर्वोच्च न्यायालय ने लिखा कि “ऐसा कह कर उन्होंने वैधानिक स्थिति के प्रति अपने अज्ञानता की पराकाष्ठा को प्रदर्शित किया है........”


आगे न्यायालय ने लिखा कि “ उत्तराखंड पेयजल निगम के अध्यक्ष की हैसियत से विभाग के प्रमुख सचिव, अनुशासनात्मक प्राधिकारी थे. चार्जशीट को उन्होंने प्रतिहस्ताक्षरित किया था. उनका शपथ पत्र यह समझाने की दयनीय कोशिश है कि विभाग के तत्कालीन सचिव द्वारा  चार्जशीट को चयन समिति के सामने प्रस्तुत क्यूं नहीं किया गया.”


एक अन्य स्थान पर सर्वोच्च न्यायालय ने लिखा कि अपनी स्थिति समझाते हुए, अपने शपथ पत्र के जरिये उन्होंने अपने पूर्ववर्ती सचिव का खंडन करने का रास्ता चुना”


आगे सर्वोच्च न्यायालय ने लिखा “पेयजल निगम के अध्यक्ष पेयजल विभाग के सचिव भी हैं........ निश्चित ही उनसे यह अपेक्षित था कि वे प्रतिवादी संख्या 4 के विरुद्ध आरोपपत्र लंबित होने का मामला, चयन समिति के संज्ञान में लाते. निश्चित तौर पर निगम के अध्यक्ष ने आरोप पत्रों को चयन समिति के सामने न रख कर, पदानुकूल आचरण नहीं किया है.”


और उक्त आईएएस अधिकारी के बारे में निर्णायक टिप्पणी के रूप में सर्वोच्च न्यायालय ने लिखा कि “यह निगम के तत्कालीन अध्यक्ष की  सत्यनिष्ठा पर गंभीर प्रश्न चिन्ह खड़े करता है. इन स्थितियों में हम प्रतिवादी संख्या 1, उत्तराखंड राज्य से अपेक्षा करेंगे वह इस बात की जांच करवाए कि निगम के अध्यक्ष ने चयन समिति के समक्ष प्रसांगिक सामग्री क्यूं नहीं रखी और आवश्यक सुधारात्मक उपाय करे ..................... अध्यक्ष एक आईएएस अधिकारी हैं. इन अधिकारियों को संविधान के तहत सुरक्षा प्राप्त है. अगर ऐसे अधिकारी, इस अदालत द्वारा स्थापित क़ानूनों को तोड़ेंगे तो इसका नतीजा संदेहास्पद निष्ठा वाले लोगों के उच्च पदों पर पहुँचने के रूप में होगा.”


उच्चतम न्यायालय के फैसले में की गयी कठोर एवं गंभीर टिप्पणियों से समझा जा सकता है कि उक्त अफसर का आचरण पदोन्नति/नियुक्ति के मामले में किस कदर संदेहास्पद एवं पद की गरिमा को गिराने वाला था. जानते हैं नियुक्तियों में इस तरह की कठोर टिप्पणी, सर्वोच्च न्यायालय ने किस अफसर पर की थी ?


उन अफसर का नाम है- एस.राजू. जी हाँ वही एस.राजू जिन्होंने भर्ती घोटाले में उत्तराखंड एसटीएफ़ के ताबड़तोड़ छापों और गिरफ्तारियों के बाद उत्तराखंड अधीनस्थ सेवा चयन आयोग के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया है. 














एस.राजू उत्तराखंड शासन में अपर मुख्य सचिव पद से सेवानिवृत्त हुए हैं.  उत्तराखंड अधीनस्थ सेवा चयन आयोग से इस्तीफे के बाद एस.राजू ने दावा किया कि उन्होंने नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दिया है. हालांकि नैतिकता का ही मसला होता तो इस लेख के शुरू में उच्चतम न्यायालय के जिस फैसले का जिक्र है, उसमें जैसी टिप्पणियां राजू साहब के बारे में की गयी हैं, उससे तो कोई भी नैतिक आदमी शर्म से पानी-पानी हो जाये. जब उनके बारे में उच्चतम न्यायालय ने ये टिप्पणियां की थी तब वे नौकरी के अंतिम पड़ाव पर प्रमुख सचिव जैसे पद तक पहुँच चुके थे. ऐसे में देश की सबसे बड़ी अदालत ने उनके तौर-तरीकों से लेकर कानून की जानकारी तक पर सवाल उठाया. इतनी तीखी टिप्पणियों के बाद नैतिकता नहीं जागी और अचानक एसटीएफ़ की ताबड़तोड़ गिरफ्तारियों के बाद नैतिकता हिलोरें मारने लग गयी ?


अंग्रेजी अखबार- हिंदुस्तान टाइम्स ने लिखा है कि एस.राजू ने माफिया और राजनीतिक दबाव की बात स्वीकार की. उनका दावा था कि माफिया यह हजम नहीं कर पा रहा था कि उनकी अध्यक्षता में आयोग पारदर्शी तरीके से परीक्षा करवा रहा था. पारदर्शी तरीके से होने वाली परीक्षाओं की जांच एसटीएफ़ से करवाने की जरूरत नहीं राजू साहब और ना ही उसमें ताबड़तोड़ गिरफ्तारियाँ होती हैं. वाकई कोई नैतिकता हो तो बताएं कौन माफिया और कौन राजनेता हैं, जिन्होंने उनपर दबाव डाला.


वे कह रहे हैं कि उनके कार्यकाल में केवल दो परीक्षाएं हैं, जिनमें गड़बड़ हुई. हकीकत यह है कि कोई एक परीक्षा नहीं है, जिसमें अनियमितता की चर्चा न हुई है. फॉरेस्ट गार्ड से लेकर वीडीओ- वीपीडीओ की परीक्षा तक, हर परीक्षा के बाद  धांधली के आरोप लगते ही रहे. इसके अतिरिक्त अन्य तरह की अनियमितताएं एवं लापरवाहियाँ भी सामने आती रही. जुलाई 2020 में हुई वन दारोगा की परीक्षा में 1800 में से 332 सवाल हटाने पड़े क्यूंकि ये पाठ्यक्रम से बाहर के थे. सितंबर 2021 में 48 विभागों के 600 सहायक लेखाकरों के पदों के लिए राजू साहब की अध्यक्षता वाले आयोग ने परीक्षा आयोजित करवाई. यह परीक्षा भी रद्द करनी पड़ी क्यूंकि इस परीक्षा में पूछे गए 400 प्रश्न गलत थे. उक्त परीक्षा के प्रश्नों के हिन्दी अनुवाद पर भी सवाल उठा था और चर्चा थी कि प्रश्नों का हिन्दी अनुवाद गूगल ट्रांस्लेटर के जरिये कर दिया गया था.


इसलिए महाशय एस.राजू का यह दावा बेहद खोखला है कि उनके कार्यकाल में दो ही परीक्षाओं में गड़बड़ हुई थी. यदि ठीक से जांच हो तो पता चलेगा कि दो परीक्षाएं भी ऐसी नहीं थी, जो साफ-सुथरे तरीके से हुई थी. चलिए थोड़ी देर के लिए राजू साहब की बात मान लेते हैं कि दो ही परीक्षाओं में अनियमितता हुई. इस चरम बेरोजगारी के समय में जब एक प्रतियोगी परीक्षा बरसों में होती है, एक-एक  परीक्षा के लिए हजारों युवा, सालों-साल तैयारी करते हैं, तब दो परीक्षाओं में अनियमितता और भ्रष्टाचार का होना मतलब हजारों-हज़ार योग्य युवाओं के सपनों पर तुषारापात है. यह बेशर्मी की इंतहा है कि एक आयोग का अध्यक्ष कहे कि उसके कार्यकाल में सिर्फ दो प्रतियोगी परीक्षाओं में गड़बड़ हुई थी. सवाल यह है कि दो परीक्षाओं में गड़बड़ी रोक पाने पर राजू साहब की नैतिकता क्यूँ नहीं जागी ?


2013 में भजन सिंह बनाम उत्तराखंड सरकार एवं अन्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने साफ लिखा ही था कि पेयजल निगम के अध्यक्ष और विभाग के प्रमुख सचिव रहते हुए एस.राजू ने किस तरह भ्रष्टाचार के आरोपी अफसर के प्रमोशन के लिए उक्त अफसर के भ्रष्टाचार के आरोप पत्र को ही चयन समिति के सामने नहीं रखा. वे कितने नैतिक हैं, वह तो उच्चतम न्यायालय अपने उक्त फैसले में बता ही चुका है, जिसका उल्लेख इस लेख की शुरुआत में किया जा चुका है. इसलिए नैतिकता का यह प्रदर्शन तो स्पष्टतः ढोंग प्रतीत होता है. यह नैतिकता ऐसे समय में जागी है, जबकि एसटीएफ़, अधीनस्थ सेवा चयन आयोग की भर्तियों के घपलों में ताबड़तोड़ गिरफ्तारियाँ कर रहा है. इसलिए इस नैतिकता के जागने के समय पर भी संदेह प्रकट होता है. कहीं यह इस्तीफा ऊपरी स्तर पर विचार-विमर्श के बाद एसटीएफ़ के जांच की आंच राजू साहब के गिरेबान तक पहुँचने से बचाने के लिए तो नहीं है ? इस्तीफे की आड़ में एस.राजू को सुरक्षित निकालने की छूट नहीं मिलनी चाहिए बल्कि इस आयोग की तमाम गड़बड़ियों में राजू एवं आयोग के सचिव संतोष बडोनी की भूमिका की जांच होनी चाहिए.


सवाल इस प्रदेश के नेतृत्व पर भी है. 2013 में प्रमोशन के मामले में उच्चतम न्यायालय एक अफसर के आचरण पर कठोर टिप्पणी करता है, उसके आचरण की जांच करने का आदेश तक देता है. लेकिन रिटायर होने के बाद 2016 में वही अफसर उत्तराखंड अधीनस्थ सेवा चयन आयोग का अध्यक्ष बना दिया जाता है.   सवाल तो तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत और उनके बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने वाले त्रिवेन्द्र रावत, तीरथ सिंह रावत और पुष्कर सिंह धामी पर है कि   सुप्रीम कोर्ट द्वारा घोषित संदेहास्पद आचरण वाले अफसर को क्यूँ अधीनस्थ सेवा चयन आयोग का अध्यक्ष बनाया गया और तमाम परीक्षाओं में धांधली की शिकायतों के बावजूद ऐसे अफसर को कुर्सी पर बैठाये रखा गया ?


-इन्द्रेश मैखुरी




(उच्चतम न्यायालय का फैसला उपलब्ध करवाने के लिए सामाजिक कार्यकर्ता और एडवोकेट चंद्रशेखर करगेती जी का आभार, वे इस मसले को लगातार उठाते रहे हैं )

 

 

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1 Comments

  1. मतलब राजू बाबू हर सरकार में राजा बनकर रहा।

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