कुछ साल पहले तब कॉंग्रेसी रहे और वर्तमान भाजपाई, एक विधायक ने गोविंद सिंह कुंजवाल के किसी कार्यक्रम का जिक्र करते हुए एक व्हाट्स ऐप ग्रुप में , उन्हें-उत्तराखंड का गांधी- नाम से संबोधित किया. मैंने इस पर प्रतिवाद किया कि उत्तराखंड का गांधी तो लोग इंद्रमणि बडोनी जी को कहते हैं. उन्होंने अपने जुमले को सुधारते हुए गोविंद सिंह कुंजवाल जी को उत्तराखंड में गांधी का सर्वश्रेष्ठ शिष्य घोषित कर दिया. टीवी पर अपने बेटे-बहु को विधानसभा में नियुक्त करने की बात को अकड़ और ठसक के साथ स्वीकार करते हुए, गोविंद सिंह कुंजवाल को देख कर मुझे यह बात बरबस ही याद आ गयी. जरा इस उपमा पर गौर कीजिये- उत्तराखंड में गांधी के सर्वश्रेष्ठ शिष्य ! क्या गांधी होते तो वे ऐसा ही करते ?
गांधी के बारे में यह किस्सा मशहूर है कि जब उनके एक मित्र
ने दक्षिण अफ्रीका में उनके बेटे को छात्रवृत्ति पर इंग्लैंड
भेजने का प्रस्ताव रखा तो गांधी ने प्रतिप्रश्न किया कि क्या यह छात्रवृत्ति उनके बेटे के लिए है या दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले सर्वाधिक योग्य भारतीय युवा
के लिए है ? उस व्यक्ति ने हिचकते हुए स्वीकार किया कि छात्रवृत्ति
दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले सर्वाधिक योग्य भारतीय युवाओं को दी जा सकती है. गांधी
ने तत्काल दो अन्य भारतीय युवाओं का नाम सुझाया.
कहां तो वो गांधी हैं, जिनकी अपने बच्चों
को आदर्श बनाने की कोशिशों पर उनकी पत्नी कस्तूरबा शिकायत करती हैं- तुम मेरे बेटों
को संत बनाना चाहते हो, वे सिर्फ बच्चे हैं ! और कहां वो गोविंद
सिंह कुंजवाल हैं, जो अपने बेटे-बहू को बिना किसी प्रतियोगी परीक्षा
के नौकरी देने पर शर्मिंदा नहीं हैं बल्कि अकड़ कर इसे अपना विशेषाधिकार घोषित कर रहे
हैं ! उत्तराखंड में यदि वे गांधी के सर्वश्रेष्ठ शिष्य हैं तो फिर इसी से समझ लीजिये
कि इस राज्य में गांधीवाद का जनाज़ा क्यूँ निकल रहा है !
कुंजवाल अकेले नहीं हैं, जो बिना प्रतियोगी परीक्षा के अपने बेटे-बहू को नौकरी देने के बाद अकड़ रहे
हैं. कुछ वर्ष पहले जब वे विधानसभा अध्यक्ष थे, तब प्रेमचंद्र
अग्रवाल के बेटे को उपनल के जरिये जेई बनाए जाने की खबर सुर्खियों में आई थी. उस समय
अग्रवाल साहब ने बयान दिया था कि उनके बेटे ने इंजीनियरिंग कर ली है, जल संस्थान में जरूरत थी, इसलिए उसे भर्ती कर लिया.
इससे ऐसा लगा जैसे उत्तराखंड राज्य में इंजीनियरिंग किया हुआ एकमात्र अग्रवाल साहब
का ही बेटा हो !
विधानसभा की नौकरियों में पिछले दरवाजे से सत्ता और विपक्ष
के नेताओं के बेटे-बहुओं, भतीजे-भतीजियों को देख कर समझ में आता
है कि राज्य में रोजगार का संकट कितना गहरा है कि नेता लोगों को भी अपने परिजनों को
ऐसे नौकरी लगाना पड़ रहा है. इसके अलावा ठेके और आउटसोर्सिंग की नौकरियों में सत्ता
में बैठने वालों के परिजनों को सिफ़ारिश पर लगाए जाने से भी रोजगार संकट की गंभीरता
को समझा जा सकता है.
इससे एक बात यह भी स्पष्ट होती है कि साल-दर-साल जिनको हमने इसलिए चुना कि वे हमारे नेता हैं,हमारा
नेतृत्व करेंगे, वे कितनी छोटी और संकुचित सोच वाले हैं. हम जिनको
अपना संकट हल करने के लिए उनके हाथ में नेतृत्व दे रहे हैं, वे
तो फकत नाकारा, निकम्मी, नालायक औलादों
के पिता निकले, जो हर वक्त इसी चिंता में घुले जा रहे हैं कि
अपनी संतान को वे यदि सैटल नहीं कर पाए तो वो ऐसे ही दर-दर की ठोकरें खाते हुए रह जाएगा
! जिनके लिए अपनी औलादों को सैटल करने का संकट सबसे बड़ा हो, वे
राज्य का क्या खाक नेतृत्व करेंगे !
-इन्द्रेश मैखुरी
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