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“यह हमने कैसा समाज रच डाला है”

 








शीर्षक वीरेन डंगवाल की कविता पंक्ति है. लेकिन आज कल बरबस ही यह प्रश्न दिमाग में कौंधता है, जुबान पर आता है. बीते दिनों घटित कुछ घटनाओं से यह प्रश्न और भी मौजूं हो गया है.


एक व्यक्ति, एक सोसाइटी में महिला के साथ गाली-गलौच करता है. उसका वीडियो वायरल होता है. उसके खिलाफ पुलिसिया कार्यवाही होती है, उसकी गिरफ्तारी होती है. इसी बीच उसके सजातीय लोग, उक्त व्यक्ति के समर्थन में उतर आते हैं. वे जातीय गोलबंदी कर रहे हैं, उत्तर प्रदेश की सत्ताधारी भाजपा को आंखे तरेर रहे हैं कि हमने तुमको झोली भर-भर वोट दिये हैं, देख लो !  अचानक उसका अपराध जातीय आईने से देखा-समझा जाने लगता है. आप समझ ही रहे होंगे कि यहाँ बात नोएडा की ग्रांड ओमैक्स सोसाइटी में एक महिला को बेहद भद्दी गालियां देने वाले श्रीकांत त्यागी की हो रही है. श्रीकांत त्यागी भी भाजपा का नेता और पदाधिकारी रहा है. जो जाति के पहरुए, त्यागी के खिलाफ कार्यवाही के बाद उठ खड़े हुए, उन्होंने क्या कभी त्यागी को यह सिखाने का प्रयास भी किया होगा कि महिलाओं से कैसे पेश आना चाहिए ? आखिर उसी दिन तो अचानक श्रीकांत त्यागी ऐसी भद्दी-भद्दी गलियाँ नहीं देने लगा होगा ! क्या जाति के नाम पर श्रीकांत त्यागी के पक्ष में गोलबंदी करने वालों को, उसे महिला को गाली देख गर्व की की अनुभूति हुई होगी, जो वे उसके पक्ष में लामबंद हो गए ?


राजस्थान के जालौर में एक सरस्वती शिशु मंदिर के शिक्षक ने अपनी मटकी से पानी लेने पर तीसरी कक्षा में पढ़ने वाले दलित बच्चे इंद्र मेघवाल को इस कदर पीटा कि उसकी जान चली गयी. 














आधुनिक कहे जाने वाले देश में किसी बच्चे को सिर्फ पानी का मटका छूने के लिए इतना पीटा जा सकता है, यह सोचने में भले ही अकल्पनीय लगे पर यह जातीय नृशंसता हमारे समाज की हकीकत है. अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्स्प्रेस में छपी रिपोर्ट के अनुसार सवर्ण जाति के लोगों ने इस मामले में पीड़ित परिवार पर समझौते के लिए दबाव डाला और उन्हें पुलिस के पास न जाने को कहा. ट्विटर पर दलित वॉइस नामक ट्विटर हैंडल ने एक वीडियो शेयर करते हुए लिखा कि इन्द्र मेघवाल को पीट-पीट कर मौत के दरवाजे तक पहुंचाने वाले शिक्षक चैल सिंह के पक्ष में एक सभा का आयोजन किया गया. 












इस प्रकरण में भी देखें तो मामला एक मासूम बच्चे को बर्बरता पूर्वक पीटने से आगे बढ़ कर सजातीय शिक्षक को बचाने तक जा पहुंचा है.


आज़ादी के दिन, जब प्रधानमंत्री लाल किले की प्राचीर से महिला सम्मान पर भाषण दे रहे थे, गुजरात में उनकी पार्टी की सरकार ने बिलकीस बानो के बलात्कारियों को 15 साल से अधिक जेल की सजा काटने पर रिहा कर दिया. 












3 मार्च 2002 को बिलकीस बानो के घर में घुस कर दंगाइयों ने उसके परिवार को खत्म कर दिया और उसके साथ समूहिक बलात्कार किया. लंबी कानूनी लड़ाई के बाद बिलकीस बानो, 2008 में हत्यारों और बलात्कारियों को सजा दिलवा पायी पर देश के स्वतंत्रता दिवस के दिन, गुजरात सरकार ने इन सजा याफ़्ताओं को आज़ाद कर दिया. बात उनकी रिहाई पर ही नहीं ठहरी. हत्या और बलात्कार के दोषी करार दिये गए इन ग्यारह लोगों का हिंदुवादी संगठनों द्वारा बाकायदा फूल-मालाएँ पहना कर स्वागत किया गया.















ऐसा समाज क्या सभ्य समाज कहलाने के लायक है, जो इस आधार पर हत्यारे और बलात्कारियों का स्वागत करे कि जिनकी उन्होंने हत्या और बलात्कार किया वे दूसरे धर्म के लोग हैं ? कठुआ, बुलंदशहर से लेकर देश के तमाम हिस्सों तक, इस प्रवृत्ति को सत्ताधारी भाजपा ने आगे बढ़ाया है कि हत्यारों और बलात्कारियों के पक्ष में तिरंगा यात्राएं निकालनी हैं, उनके गले में फूल-मालाएँ डालनी हैं. इसे हिंदुओं के एक होने की मुहिम के बतौर प्रचारित किया जाता रहा है. लेकिन जरा सोच कर देखिये कि हत्यारे-बलात्कारियों की जयजयकार करने के लिए उन्मादी भीड़ का हिस्सा बनने के अलावा हिंदुओं के पास इकट्ठा होने की और कोई वाजिब, तार्किक, सभ्य और सम्मानजनक वजह नहीं रह गयी है ? हत्यारों और बलात्कारियों को सिर-माथे बैठेंगे तो तय समझिए, एक दिन उनका ही ग्रास बनेंगे.

जब आप सिर्फ इस आधार पर हत्यारे और बलात्कारियों पर फूल बरसाने लगें कि उन्होंने दूसरे धर्म-जाति  के लोगों की हत्या और बलात्कार किया है तो समझिए कि आप बेहद गंभीर मानसिक विकृति से ग्रसित हो चुके हैं, यह धर्म के नाम पर एकजुटता नहीं है, मानसिक विकृति की बीमारी से ग्रस्तों की भीड़ इकट्ठा की जा रही है. परपीड़न का सुख हासिल करने की यह बीमारी किसी समाज, किसी देश को आगे नहीं बढ़ा सकती, यह सिर्फ उसका पतन कर सकती है. इस पतन के रास्ते से बाहर नहीं निकलेंगे तो तबाही और बर्बादी के अलावा कुछ भी हाथ नहीं आएगा.

-इन्द्रेश मैखुरी

 

 

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