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विधानसभा की जांच पर चंद बातें

 










उत्तराखंड में अधीनस्थ सेवा चयन आयोग की भर्तियों में हुई धांधलियों की चर्चा के बाद विधानसभा में हुई नियुक्तियां भी चर्चा में हैं. यह आरोप है कि विधानसभा के सभी अध्यक्षों ने “विशेषाधिकार” के नाम पर मनमानी भर्तियाँ की.सोशल मीडिया पर कई सूचियाँ घूम रही हैं कि सत्ता का स्वाद चखने वाले किस नेता के कितने करीबी और रिश्तेदार विधानसभा में नौकरी पा गए. विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष गोविंद सिंह कुंजवाल तो खुद ही स्वीकार किया कि उन्होंने मुख्यमंत्री, मंत्रियों, विपक्ष के नेताओं की सिफ़ारिश पर विधानसभा में नियुक्तियां की.











विधानसभा में नियुक्तियों का मामला इस कदर गरमा गया कि मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को विधानसभा अध्यक्ष ऋतु खंडूड़ी भूषण को विधानसभा में हुई नियुक्तियों की जांच कराने के लिए पत्र लिखना पड़ा.


चारों तरफ जब विधानसभा में हुई भर्तियों में चर्चा होने लगी तो बीती 03 सितंबर को विधानसभा अध्यक्ष ऋतु खंडूड़ी भूषण ने प्रेस के सामने विधानसभा में भर्तियों की जांच की घोषणा की. विधानसभा के सचिव, जिन्हें दो प्रमोशन एक साथ दे कर, आईएएस से अधिक वेतनमान वाली अवस्था में पहुंचा दिया गया, उन्हें लंबी छुट्टी पर भेजे जाने की घोषणा की. तीन पूर्व आईएएस अधिकारियों- दिलीप कुमार कोटिया, सुरेन्द्र सिंह रावत और अवनेन्द्र सिंह नयाल की जांच कमेटी का ऐलान उन्होंने किया. दिलीप कुमार कोटिया की अध्यक्षता वाली जांच कमेटी को एक महीने में रिपोर्ट देने को कहा गया है.


विधानसभा अध्यक्ष की इस पूरी कवायद में सबसे रोमांचकारी दृश्य था, मीडिया की मौजूदगी में विधानसभा सचिव के कमरे को सील किया जाना ! अन्यथा तो  “उत्तराखंड विधानसभा प्रदेश का सर्वोच्च सदन है, इसकी गरिमा को बनाए और बचाए रखना, मेरा दायित्व ही नहीं, मेरा कर्तव्य भी है” या “मेरा सार्वजनिक जीवन माननीय प्रधानमंत्री जी के- ना खाऊँगा, न खाने दूँगा- नारे से प्रेरित हो कर शुरू हुआ जैसे सामान्य वाक्य बोलने के लिए वे लिखित कागज का सहारा ले रही थी, वो बहुत आश्वस्तकारी तो नहीं था !














बहरहाल विधानसभा में नियुक्ति में हुई मनमानियों और दो पूर्व अध्यक्षों- गोविंद सिंह कुंजवाल और प्रेम चंद्र अग्रवाल द्वारा उसकी खुली स्वीकारोक्तियों के बावजूद, जिस तरह से जांच की बात कही गयी है, क्या वह कोई उम्मीद जगाती है ?


सन 2000 में राज्य गठन से लेकर अब तक की सब विधानसभाओं और उसके अध्यक्षों के कार्यकाल में जिस तरह से भर्तियों में मनमानी के आरोप हैं, उसके लिहाज से जांच बहुत देर में की गयी, बहुत मामूली कार्यवाही है.


विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष और वर्तमान सरकार में वित्त और संसदीय कार्य मंत्री प्रेम चंद्र अग्रवाल की बातों से स्पष्ट है कि किसी भी अध्यक्ष के कार्यकाल में हुई नियुक्तियों के लिए कोई भर्ती परीक्षा नहीं हुई. वे न भी कह रहे हों तो भी यह पूरा उत्तराखंड जानता है कि विधानसभा में हुई नियुक्तियां बिना भर्ती परीक्षा के हुई हैं. बिना भर्ती परीक्षा के नियुक्ति सही है अथवा गलत, क्या यह जानने के लिए किसी कमेटी की आवश्यकता है ?


जी नहीं, इसके लिए उत्तराखंड विधानसभा की 2011 की भर्ती नियमावली  उठा कर उसकी धारा 6 पढ़ने की आवश्यकता है. 2011 से पहले की जो भर्तियाँ हुई, वे उत्तर प्रदेश विधानसभा की भर्ती नियमवाली के अनुसार हुई. तो उसके लिए उत्तर प्रदेश विधानसभा सचिवालय सेवा (भर्ती एवं सेवा शर्तें) नियमावली 1974 के भाग तीन की धारा 6 देखनी थी, जिसमें प्रमुख सचिव से लेकर दफ्तरी,अनुसेवक और सफाईकर्मियों की नियुक्ति प्रक्रिया का उल्लेख है.


इन दो नियमावलियों में उल्लिखित नियमों को देखना, विधानसभा अध्यक्ष के लिए कोई बड़ी बात नहीं है. विधानसभा अध्यक्ष जैसे सदन चलाने के लिए नियमावली देख कर अपना निदेश देते हैं, वैसे ही अध्यक्ष महोदया, भर्ती नियमावली देख कर भी अपना निदेश पारित कर सकती थीं. लेकिन उन्होंने यह सीधा रास्ता न चुन कर जांच का लंबा- घुमावदार रास्ता चुना !


कानूनी भाषा में एक शब्द है- प्रथम दृष्टया ( prima facie). इसका मतलब है कि पहली नजर में जो दिख रहा है और जब कार्यवाही का इरादा मजबूत हो तो पहली नज़र में जो दिख रहा है, उसके अनुसार भी कार्यवाही होती है. जैसे निलंबन की कार्यवाही कोई सजा नहीं है, बल्कि यह इस आधार पर भी होती है कि व्यक्ति प्रथम दृष्टया दोषी नजर आ रहा है. उत्तराखंड विधानसभा के मामले में प्रथम दृष्टया गड़बड़ी नजर आ रही है, लेकिन उस के आधार पर निलंबन जैसी कार्यवाही भी किसी पर नहीं की गयी है ! दृष्टि का यह अजब फेर है कि पूरे उत्तराखंड को विधानसभा में नियुक्तियों के दोषी दिखाई दे रहे हैं, लेकिन जिनके हाथ कार्यवाही है, उनको प्रथम दृष्टया कार्यवाही लायक कोई दोषी नज़र नहीं आया !


अब थोड़ा जांच कमेटी की भी बात कर ली जाये. विधानसभा अध्यक्ष ऋतु खंडूड़ी भूषण ने तीन सदसीय जांच कमेटी की घोषणा करते हुए कहा कि ये सभी पूर्व कार्मिक सचिव रह चुके, विशेषज्ञ लोग हैं.  कार्मिकों की सेवा शर्तें तय करने के लिए तो यह कमेटी बनी नहीं है, जिसके लिए कार्मिक मामलों के विशेषज्ञों की आवश्यकता हो. यह तो नियुक्तियों में हुई गड़बड़ियों की जांच के लिए कमेटी बनाई गयी है. इन नियुक्तियों में गड़बड़ी का आरोप एक ऐसे व्यक्ति पर भी है, जो पूर्व विधानसभा अध्यक्ष होने के साथ ही वर्तमान सरकार में कैबिनेट मंत्री भी है. क्या ये पूर्व नौकरशाह, ऐसा साहस जुटा पाएंगे कि वर्तमान सरकार के कैबिनेट मंत्री से कठोर सवाल पूछ सकें ? नौकरशाहों के काम के तौर-तरीकों को देखते हुए ऐसा लगता तो नहीं है !


जैसे भर्तियों को लेकर आशंकाएँ हैं, वैसे ही जांच को लेकर भी हैं. जाँचों का इतिहास भी यह बताता है कि वे केवल मुद्दे की आंच ठंडी करने के काम आती रही हैं ! इसलिए यह देखना रोचक होगा कि इस जांच की तपिश से दोषी झुलसेंगे या फिर यह जांच गरमाए हुए इस मुद्दे की आंच पर मिट्टी डालने के काम आएगी ! यूं सबक यह है कि सड़क पर संघर्ष की आंच बनी रहेगी, तभी जांच में भी कुछ आंच आएगी.


-इन्द्रेश मैखुरी  

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