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आयोगों को रिटायर अफसर चाहिए, रिटायर अफसरों को आयोग चाहिए

 









लगभग महीने भर पहले, 09 सितंबर को उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने ऐलान किया कि उत्तराखंड अधीनस्थ सेवा चयन आयोग(यूकेएसएसएससी) द्वारा करवायी जाने वाली परीक्षाओं को अब उत्तराखंड लोकसेवा आयोग करवाएगा. आनन-फानन में उत्तराखंड लोकसेवा आयोग ने भी उक्त सभी भर्तियों का कैलेंडर  घोषित कर दिया. इस निर्णय को यूकेएसएसएससी में व्याप्त भ्रष्टाचार पर कठोर कार्यवाही के तौर पर प्रस्तुत किया गया.  सरकार की अदाओं पर फिदा होने वाले सरकार की इस अदा पर रीझे कि वाह, क्या चोट दी है, भ्रष्टाचार को !

















घोषणाओं में थोड़ा और वीरता का ओज दिखाई दे, इसलिए कहा गया- अब सभी भर्ती परीक्षाएं होंगी, जिलाधिकारी की निगरानी में ! चारण- भाट- दरबारी फिर बोले- वाह, वाह, देखा भर्ती परीक्षाओं को भ्रष्टाचार से बचाने का कैसा फुलप्रूफ इंतजाम है, सब भर्ती परीक्षाओं की निगरानी करेंगे डीएम. अब इन्हें कौन बताए कि महाराज पहले भी सारी भर्ती परीक्षाओं, डीएम की ही निगरानी में होती थी, आयोग की परीक्षा छोड़िए, हाई स्कूल- इंटरमीडिएट की परीक्षाएं भी जिला प्रशासन और पुलिस की निगरानी में ही होती हैं. लेकिन यूकेएसएसएससी की भर्तियों में  खेल तो कहीं और हो रहा था. तृतीय श्रेणी की भर्तियाँ भी राज्य लोकसेवा आयोग को सौंप दी और तब बता रहे हैं कि डीएम की निगरानी में इन परीक्षाओं को करवाना बड़ी उपलब्धि है ! पुलिस कांस्टेबलों की भर्ती भी राज्य लोकसेवा आयोग को चली गयी ! इन भर्तियों में पहले जिला स्तर पर मेरिट बनती थी, इस बार राज्य स्तर पर बन रही थी. उसके पीछे तर्क दिया गया था कि ये भर्ती यूकेएसएसएससी करवा रहा है. कांस्टेबल भर्ती में शारीरिक नाप-जोख सब जिला स्तर पर हुआ, जिलेवार पुलिस ने ही किया पर मेरिट राज्य स्तर पर बनेगी !  और फिर यह भर्ती भी राज्य लोकसेवा आयोग को हस्तांतरित होने वाली भर्तियों में शामिल हो गयी. इस तरह उत्तराखंड संभवतः पहला राज्य होगा, जहां पुलिस कांस्टेबल की भर्ती भी राज्य लोकसेवा आयोग से हो रही है !  


लेकिन महीना- बीतते- न बीतते, खबर है कि सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी जी.एस. मर्तोलिया को उत्तराखंड अधीनस्थ सेवा चयन आयोग का अध्यक्ष बना दिया गया है.












सरकार की अदाओं पर फिदा होने वाले फिर लहालोट हैं- वाह, क्या अध्यक्ष बनाया है, सरकार ने यूकेएसएसएससी का ! अरे महाराज, जब इस आयोग की सारी परीक्षाएं, उत्तराखंड लोकसेवा आयोग को सौंप दी गयी हैं तो फिर अब ये अध्यक्ष की नियुक्ति क्यूँ ? पर जयजयकार करने वालों को इससे क्या मतलब, उनका कर्तव्य तो वाह-वाह करना है ! यूकेएसएसएससी से लेकर सारी भर्तियाँ यूकेपीएससी को सौंपी तो भी वाह-वाह और फिर यूकेएसएसएससी का अध्यक्ष बनाया तो भी वाह-वाह !


मर्तोलिया साहब प्रांतीय पुलिस सेवा (पीपीएस) अधिकारी थे, जो कालांतर में आईपीएस पा गए और डीआईजी पद से सेवानिवृत्त हुए. उत्तराखंड बनने के बाद सर्वाधिक यदि कुछ हुआ तो यही हुआ कि अफसरों के प्रमोशन इफ़रात में हुए. नायब तहसीलदार भर्ती हुए लोग पीसीएस हो गए और आईएएस होने के दरवाजे पर खड़े हैं. अफसर रिटायर होने के बाद कुर्सी छोड़ कर उठा हो, इससे पहले उत्तराखंड सरकार द्वारा उसके लिए रिटायरमेंट के बाद की दूसरी कुर्सी की व्यवस्था तैयार रहती है. युवा बेरोजगारों के लिए भर्तियाँ निकालने में भले ही बरसों-बरस बीत जाएँ पर अफसरों को रिटायरमेंट के बाद रोजगार में क्षण भर की देरी नहीं होनी चाहिए. उत्तराखंड लोकसेवा आयोग को ही ले लीजिये. यह आयोग 22 साल में पीसीएस की पाँच ही परीक्षा करवा पाया पर डॉ.राकेश कुमार ने आईएएस से वीआरएस लिया तो उनके घर पहुँचने से पहले आयोग के अध्यक्ष पद का नियुक्ति पत्र, उन तक पहुंचाने में उत्तराखंड सरकार ने क्षण भर की भी कोताही नहीं की !  मर्तोलिया साहब भी सुनते हैं, डबल इंजन के पिछले कार्यकाल में उत्तराखंड जनजाति आयोग के उपाध्यक्ष थे.


कतिपय लोग मर्तोलिया जी को ईमानदार, कर्मठ आदि-आदि विश्लेषणों से नवाज रहे हैं. इस पर टिप्पणी कर पाना तो मेरे लिए संभव नहीं है. मेरी न उनसे बातचीत है, ना मुलाक़ात. केदारनाथ अग्रवाल की एक बड़ी प्रसिद्ध कविता है-


“मैंने उसको जब-जब देखा

लोहा देखा ”


मैंने भी उनको जब-जब देखा, मुझको घूरते ही देखा. एक बार देवप्रयाग से थोड़ा आगे श्रीनगर की ओर मोटरसाइकल किनारे लगा कर फोटो खींच रहा था कि वे सरकारी गाड़ी से गुजरे. उन्होंने भरपूर आग्नेय नेत्रों से मेरी ओर देखा. डीजीपी थे- सत्यव्रत बंसल, उनके कार्यालय में मुलाक़ात करने गया था, वहां भी मर्तोलिया साहब की निगाह मुझ पर पड़ी तो नेत्रों की ज्वाला में उन्होंने कोई कमी नहीं आने दी. खैर इससे मुझ को कोई खास फर्क नहीं पड़ता. जिस व्यवस्था की अव्यवस्था के खिलाफ आप निरंतर बोलते हैं, उसके पुर्जों को आप नागवार गुजरते हैं तो यह आपके काम का प्रमाणपत्र ही है ! हालांकि ऐसा भी मुमकिन है कि ज्वालामय नेत्रों से देखना उनकी सहज, स्वाभाविक आदत हो !


मर्तोलिया साहब का एक किस्सा जरूर मेरे कानों तक पहुंचा था कि जब वे राज्य के एक मुँहफट अफसर से मिलने गए तो उस अफसर ने उनके उपनाम की चीरफाड़ करते हुए, उनपर भरपूर व्यंग्य बाणों का प्रहार कर डाला और चूंकि वह अफसर उस समय प्रमुख सचिव (गृह) था तो बेचारे मर्तोलिया साहब, उसे केवल सल्यूट ही कर पाये थे !


बहरहाल कहने का आशय यह है कि मर्तोलिया साहब को बांटे जाने वाले ईमानदारी-कर्मठता के प्रमाणपत्र के संदर्भ में, मैं कुछ कह सकने की स्थिति में नहीं हूँ. हालांकि जो लोग प्रमाणपत्र बाँट रहे हैं, वे तो हर मुख्यमंत्री को यशस्वी, लोकप्रिय भी ऐसे कहते हैं, गोया ये मुख्यमंत्री पद के साथ लगी अनिवार्य पदवियाँ हों ! और जिन अध्यक्षों के कार्यकाल में यूकेएसएसएससी में प्रचंड भ्रष्टाचार हुआ, ये प्रमाणपत्र बांटने वाले, कभी उन्हें भ्रष्ट कहते तो नहीं सुने गए !


अफसरों के बारे में अपनी तो स्पष्ट राय है. वह न बेईमान होता है, न ईमानदार होता है. वह तो पानी होता है. पुरानी हिन्दी फिल्म का गीत सुना है आपने-


“पानी रे पानी, तेरा रंग कैसा, जिसमें मिलाओ, लगे उस जैसा.”


 बस इसी तरह अफसर भी होता है, पानी जैसा. जैसी राजनीतिक सत्ता होगी, अफसर को वैसा होने में कतई कोई तकलीफ नहीं होती. सत्ता का बर्तन भ्रष्टाचार से बना है तो वह उसमें समा जाएगा, सत्ता का बर्तन, ईमानदारी वाला है तो कुछ कष्ट भले ही हो पर उसमें समाने की भी वह भरसक कोशिश करेगा !


उत्ताराखंड में आयोगों, समितियों को देख कर लगता है कि ये बने ही अफसरों को रिटायरमेंट के बाद रोजगार देने के लिए हैं. इन आयोगों को रिटायर अफसरों की जरूरत है और रिटायर अफसरों को रिटायरमेंट की बोरियत से बचने के लिए इन आयोगों की दरकार है ! बाकी युवाओं का क्या है, उनके लिए उपदेश है कि नौकरी देने वाला बनो, नौकरी मांगने वाला नहीं !


-इन्द्रेश मैखुरी

    

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