तीन
न्यायाधीशों की खंडपीठ में एक महिला न्यायाधीश ने फैसला सुनाया, महिला वकील आरोपियों की ओर से “न्याय मित्र” (amicus curiae) थी और एक युवा महिला की हत्या और
दुराचार के लिए विशेष फास्ट ट्रैक कोर्ट और उच्च न्यायालय से मौत की सजा पाये
आरोपी, पूरी तरह से दोषमुक्त घोषित हो कर स्वतंत्रता पा गए !
यह कैसा न्याय है ? न्याय का कौन सा आदर्श स्थापित हुआ इस
प्रक्रिया से ?
09 फरवरी 2012 को दिल्ली में दफ्तर से लौट रही किरण
नेगी को हनुमान चौक, कुतुब विहार छवाला में एक लाल की
इंडिका कार में अगवा कर लिया गया. साथ चल रही सहेलियों ने पुलिस को सूचना दी. इस
शिकायत के आधार पर अपहरण की एफ़आईआर दर्ज हुई. 12 फरवरी 2012 को मुख्य आरोपी राहुल
को लाल रंग की इंडिका कार के साथ पुलिस द्वारा गिरफ्तार किया गया. पुलिस के ब्यौरे
के अनुसार राहुल ने पुलिस को बताया कि उसने अपने भाई रवि और एक अन्य व्यक्ति विनोद
उर्फ छोटू के साथ युवती को कुतुब विहार से उठाया, उसके साथ
बलात्कार किया और उसकी हत्या करके शव झज्झर के खेतों में फेंक दिया. पुलिस ने रवि
और विनोद को भी गिरफ्तार कर लिया. पुलिस ने रवि और विनोद के साथ जा कर शव भी बरामद
कर लिया.
फास्ट ट्रैक कोर्ट ने माना कि मृतका का अपहरण लाल रंग
की इंडिका में किया गया था. कार में महिला के बाल मिले थे, जिनके डीएनए का मिलान करने पर मृतका के डीएनए से मिल गए, जिसका अर्थ है कि वे मृतका के ही बाल थे. कार में आरोपी राहुल का वीर्य
मिला. मृतका का शव रवि और विनोद ने बरामद करवाया. तीनों आरोपियों ने मृतका के सिर
पर वह जगह बताई, जहां वार करके मृतका की हत्या की गयी थी. जैक
और पाना मिला जिस पर मृतका का खून लगा था और पोस्ट्मॉर्टेम करने वाले डॉक्टर ने कहा
था कि मृतका के शरीर पर घाव इस जैक और पाने के हो सकते हैं. ऐसे ही कुछ अन्य सबूतों
के आधार पर निचली अदालत ने आरोपियों को दोषी करार देते हुए मृत्युदंड दिया था.
दिल्ली उच्च न्यायालय ने इन्हीं सबूतों पर विश्वास करने
के साथ ही पाया कि मृतका के शरीर पर जो बाल पाये गए थे, उनका डीएनए आरोपी रवि से मिलता है और कार में जो वीर्य मिला उसका डीएनए आरोपी
विनोद से मिलता है. ये सबूत निचली अदालत की नजर में नहीं आए थे.
लेकिन उच्चतम न्यायालय ने इन सबूतों को विश्वसनीय नहीं
माना बल्कि न्यायालय ने अपने फैसले में दूसरी कमियों के आधार पर आरोपियों को दोषमुक्त
कर दिया. जैसे- उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में लिखा कि आरोपियों की शिनाख्त, गवाह बनाए गए प्रत्यक्षदर्शी नहीं कर पाये. उच्चतम न्यायालय के अनुसार पुलिस
ने आरोपियों की शिनाख्त परेड नहीं करवाई. इसी तरह की बात लाल रंग की इंडिका कार और
उसमें आरोपी राहुल की गिरफ्तारी के संबंध में भी कही गयी है. अन्य आरोपियों की गिरफ्तारी
के अभियोजन पक्ष के दावे को उच्चतम न्यायालय ने संदिग्ध पाया. उच्चतम न्यायालय के फैसले
के अनुसार मृतका के शरीर पर अभियुक्त के बाल की बरामदगी संदेहास्पद है क्यूंकि मृतका
का शरीर तीन दिन तक खुले में पड़ा रहा. डीएनए प्रोफ़ाइलिंग और अन्य सैंपल परीक्षण को
भेजे जाने से पहले उनके कई दिन तक पुलिस मालखाने में रहने से उनके साथ छेड़छाड़ होने
की आशंका और ऐसी ही कई अन्य आशंकाएं उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में प्रकट की हैं.
ऐसी तमाम बातों के आधार पर उच्चतम न्यायालय की तीन न्यायाधीशों
की खंडपीठ इस नतीजे पर पहुंची कि अभियोजन पक्ष आरोपियों के खिलाफ आरोप सिद्ध करने में
नाकामयाब रहा है, इसलिए उच्चतम न्यायालय ने उनको बरी कर
दिया.
उच्चतम न्यायालय के निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति
यूयू ललित, न्यायमूर्ति रवीद्र भट और न्यायमूर्ति बेला त्रिवेदी
की खंडपीठ की ओर से फैसला लिखते हुए न्यायमूर्ति बेला त्रिवेदी ने लिखा कि यह सही है
कि जब किसी जघन्य अपराध के दोषी छूट जाते हैं तो पूरे समाज में और खास तौर पर पीड़ित
परिवार को भारी पीड़ा और अवसाद की स्थिति से गुजरना पड़ता है, लेकिन
अदालत नैतिक दोषसिद्धि या संदेह के आधार पर
आरोपियों को सजा नहीं दे सकती.
उच्चतम न्यायालय के फैसले से यह सवाल तो खड़ा होता ही है
कि क्या निचली अदालत और उच्च न्यायालय ने जिन आधारों पर सजा दी क्या वे आधार पूरी तरह
बेबुनियाद थे ? तमाम परिस्थितिजन्य साक्ष्य, जिनका उल्लेख उच्चतम न्यायालय के फैसले में भी हुआ है, क्या वे साक्ष्य माने जाने के काबिल ही नहीं थे ?
उच्चतम न्यायालय के इस तर्क को स्वीकार कर लिया जाये कि
जांच की खामियों की सजा आरोपियों को नहीं मिलनी चाहिए. लेकिन क्या इसकी सजा उस पीड़िता
को मिलनी चाहिए, जिसके जीवन कर हरण कर लिया गया हो ? खंडपीठ की ओर से फैसला लिखते हुए न्यायमूर्ति बेला त्रिवेदी ने लिखा कि न्यायाधीश
को उदासीन अम्पायर नहीं होना चाहिए, उसे मुकदमें सक्रियता पूर्वक
हिस्सा लेना चाहिए और गवाहों सवाल करने चाहिए ताकि सही निष्कर्ष पर पहुंचा जा सके.
पर इस केस में क्या दावे के साथ कहा जा सकता है मी लॉर्ड
कि आपकी सक्रियता ने मामले को सही निष्कर्ष तक पहुंचाया है ? क्या आरोपियों का बरी हो जाना ही सही निष्कर्ष है ?
क्या किसी भी फैसले में न्यायाधीश और न्याय को वहीं पहुँचना चाहिए, जहां इस मामले में आप पहुंचे हैं ?
इस फैसले के आखिर में लिखा गया है कि हालांकि आरोपी बरी
हो गए हैं परंतु पीड़िता का परिवार कानून सम्मत
मुआवजे का हकदार है, अगर मुआवजा अब तक नहीं मिला है तो दिल्ली
राज्य विधि सेवा प्राधिकरण, यह मुआवजा तत्काल प्रदान करे.
पर सवाल यह है मी लॉर्ड कि क्या पीड़िता का परिवार और उससे
सहानुभूति रखने वाले तमाम लोग, मुआवजे के लिए लड़ रहे थे ? क्या मुआवजा मिलना, बलात्कार और हत्या में अपनी बेटी
को गंवाने वाले परिवार की क्षतिपूर्ति कर सकता है ? क्या जो दरिंदगी
किरण नेगी के साथ हुई, उसकी क्षतिपूर्ति बिना दोषियों को सजा
दिये, किसी मुआवजे से मुमकिन है ?
अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है मी लॉर्ड कि जिनको
आपके सामने आरोपी के तौर पर पेश किया गया, वे आरोपी नहीं थे, यह मान लेते हैं तो आरोपी कौन हैं/थे ? किसी ने तो बर्बरता
पूर्वक किरण नेगी की हत्या की थी, उनको सजा कौन दिलवाएगा ? क्या ऐसी दरिंदगी की बाद भी उन वहशियों को सिर्फ कानून की कमजोर नसों का फायदा
उठा कर, समाज में खुले घूमने का अधिकार देना चाहिए ? क्या यह न्याय, इंसाफ और कानून के हक में सही नजीर स्थापित
होगी मी लॉर्ड ?
-इन्द्रेश मैखुरी
0 Comments