एक गरीब परिवार की मेधावी छात्रा पढ़ने के लिए एक नामधारी
विश्वविद्यालय में प्रवेश लेती है. पढ़ाई के दौरान अस्वस्थ होने पर वह विश्वविद्यालय
के डॉक्टर के पास इलाज करने के लिए जाती है. इलाज करने के नाम पर डॉक्टर, छात्रा का यौन
शोषण करने की कोशिश करता है.
घटना की शिकायत छात्रा, विश्वविद्यालय के अधिकारियों से करती है. विश्वविद्यालय की जांच कमेटी, डॉक्टर को दोषी पाती है, निलंबित भी करती है, लेकिन उसके खिलाफ पुलिस में शिकायत नहीं करती. एक हफ्ते तक मामले को दबाने-छुपाने की कोशिश करती है. जब अन्य छात्र-छात्राओं को पता चलता, वे प्रदर्शन करते हैं.
इस बीच कुछ संवेदनशील लोगों
के द्वारा छात्रा से संपर्क साधा जाता है और मामला पुलिस तक पहुंचता है. छात्र-छात्राओं
के प्रदर्शन और पुलिस तक मामले के पहुंचने के बाद आरोपी डॉक्टर की गिरफ्तारी होती है.
यह मामला है, उत्तराखंड के ख्यातिनाम विश्वविद्यालय- गोविंदबल्लभ
कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, पंतनगर का, जहां विश्वविद्यालय के डॉक्टर दुर्गेश कुमार द्वारा
यौन शोषण के प्रयास की शिकायत, छात्रा द्वारा पाँच दिसंबर को ही विश्वविद्यालय के
सभी जिम्मेदार प्राधिकारियों से कर दी गयी थी. विश्वविद्यालय की आंतरिक जांच में प्रथम
दृष्टया आरोप सही पाये जाने के बावजूद डॉक्टर के विरुद्ध पुलिस को कोई शिकायत नहीं
दी गयी और डॉक्टर के निलंबन के जरिये ही मामले को रफा-दफा करने की कोशिश की गयी.
एक तरफ इतने गंभीर मामले में छात्रा को कानूनी मदद
दिलाने की कोई कोशिश जीबी पंत विश्वविद्यालय द्वारा नहीं की गयी और दूसरी तरफ आरोपी
डॉक्टर सरेआम अखबारों में बयान जारी करके पीड़ित छात्रा का ही चरित्र हनन
का प्रयास करता रहा. मामले को लेकर कितनी गंभीरता बरती जा रही थी, इसका अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि विश्वविद्यालय के जिस स्कूल की
छात्रा के साथ यह मामला हुआ, उसकी डीन (जो स्वयं महिला हैं) ने
ओलंपिक संघ के चुनाव को इस संवेदनशील मामले से अधिक तरजीह दी.
यह हैरत की बात है कि उक्त विश्वविद्यालय में इतनी गंभीर
घटना होने के अगले दिन ही विश्वविद्यालय में प्रदेश के राज्यपाल ले.जन.(सेवानिवृत्त)
गुरमीत सिंह गए और उनके पूरे कार्यक्रम में छात्राओं की सुरक्षा से जुड़े इतने गंभीर
एवं संवेदनशील मसले का कहीं कोई जिक्र तक नहीं सुनाई दिया.
इस घटना के सामने आने के बाद समाचार पत्रों के हवाले से
ही यह बात सामने आई है कि यह कोई पहली, इकलौती या अलग-थलग घटना
नहीं है, बल्कि अतीत में भी इस तरह की घटनाएं होती रही हैं, जिन्हें किसी तरह से रफा-दफा कर दिया गया. समाचार पत्र- अमर उजाला में प्रकाशित
खबर के अनुसार आरोपी डॉक्टर दुर्गेश कुमार पर ही एक और छात्रा ने यौन उत्पीड़न का आरोप
लगाया है और छात्रा की तहरीर पर एक और मुकदमा आरोपी डॉक्टर के खिलाफ दर्ज कर लिया गया
है.
पंतनगर स्थित यह विश्वविद्यालय वैज्ञानिकों का विश्वविद्यालय
है, जहां छात्र-छात्राएँ अकादमिक श्रेष्ठता हासिल करने आते हैं. लेकिन यहां कोई
छात्र संघ नहीं है, छात्रों की आवाज सुनने कोई मंच नहीं है और
प्रोफेशनल कोर्स होने के चलते छात्र-छात्राओं पर प्राध्यापकों का भारी दबाव रहता है, जिसकी वजह से वे खुल करके कुछ भी बोल नहीं सकते. लेकिन क्या इसका अर्थ यह
है कि उनका उत्पीड़न किया जाये, उनकी जायज शिकायतों को जैसे-तैसे
रफा-दफा कर दिया जाये ?
पंतनगर विश्वविद्यालय के कुलपति, छात्रा की पीड़ा से अधिक ओलंपिक संघ के चुनाव को महत्व देने वाली डीन समेत
सभी प्राध्यापकों को इस बात का जवाब देना चाहिए कि यौन उत्पीड़न जैसी गंभीर शिकायतों
पर कार्यवाही न करके, वे इस विश्वविद्यालय का क्या भला कर रहे
हैं ? कोई विश्वविद्यालय उसके प्राध्यापकों की वजह से नहीं होता
बल्कि उसके विश्वविद्यालय होने के लिए छात्र-छात्राएँ प्राथमिक जरूरत हैं. ये कैसे
विद्वान हैं, कैसे वैज्ञानिक हैं, जो यौन
उत्पीड़न जैसे जघन्य मामलों में छात्राओं की आवाज दबाना अपना प्रमुख कर्तव्य समझते हैं
क्यूंकि यौन अपराधी, उनके स्टाफ का सदस्य है ? पीड़ित छात्रा को अपना न समझ कर, यौन उत्पीड़न के आरोपी
डॉक्टर को अपना समझने वालो, तुम्हारी विद्वता और वैज्ञानिकता
पर लानत है.
आम तौर पर ऐसे मामलों में विश्वविद्यालय प्रशासन से जुड़े लोगों का मत होता है कि ऐसी घटनाओं के सामने आने से विश्वविद्यालय की बदनामी होती है, इसलिए उन्हें दबाने-छुपाने की कोशिश की जाती है. लेकिन ऐसा करके यौन अपराधियों को बढ़ावा मिलता है, वह अपराध करने को अपना अधिकार समझने लगता है, इससे क्या बदनामी नहीं इज्जत अफजाही होती है ? एक विश्वविद्यालय जिसकी प्रतिष्ठा कृषि और औद्यानिकी के कामों की वजह से रही है, वह यौन अपराधियों का ऐसा गढ़ हो जाये कि वहाँ पढ़ने आने वाली छात्राओं के लिए यंत्रणा का सबब बन जाये तो क्या ऐसी स्थिति इस विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा में चार चाँद लगाएगी ? बदनामी के डर से ऐसे मामलों को रफा-दफा करने वालो, सोचो तो जरा !
अभी ज्यादा दिन नहीं बीते जब उत्तराखंड के मुख्यमंत्री
पुष्कर सिंह धामी, पुलिस महानिदेशक के साथ मिल कर पुलिस
के गौराशक्ति ऐप का विमोचन कर रहे थे और बता रहे थे कि यह ऐप महिलाओं की सुरक्षा के
लिए बेहद कारगर होगा. लेकिन जब पंतनगर के विश्वविद्यालय
की तरह यौन उत्पीड़न के आरोपियों को छुपाने का प्रयास होने लगे तो उनसे कौन सा ऐप बचाएगा, मुख्यमंत्री जी और डीजीपी साहेब ?
उत्तराखंड में बीते कुछ महीनों में कानून-व्यवस्था की
दशा पूरी तरह से रसातल को चली गयी है. महिलाओं और युवतियों के विरुद्ध हिंसा की एक
के बाद एक नयी घटनाएं सामने आ रही हैं, लेकिन मुख्यमंत्री का
ज़ोर केवल प्रचार पर है, सोशल मीडिया में इमेज बिल्डिंग पर है.
मुख्यमंत्री पुलिस की तीरंदाजी में तीर चलाते हुए फोटो खिंचवा रहे हैं और अपराध की
घटनाएं जनमानस को हलकान कर रही हैं !
-इन्द्रेश मैखुरी
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